अनादिकाल से मनुष्य के जीवन में नदियों का महत्व रहा है। विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारे विकसित हुई हैं। भारत में सिन्धु घाटी की सभ्यता इसका प्रमाण है। इसके अलावा भारत का प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास भी गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा तट का इतिहास है। ऐसा माना जाता है कि सरस्वती नदी के तट पर वेदों की ऋचायें रची गईं, तमसा नदी के तट पर क्रौंच-वध की घटना ने रामायण संस्कृति को जन्म दिया। आश्रम संस्कृति की सार्थकता एवं रमणीयता नदियों के किनारे पनपी और नागर सभ्यता का वैभव नदियों के किनारे ही बढ़ा। बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर सभी नदियों का स्मरण करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधं कुरू।।
सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही क्यों हुआ? इसके कारण हैं। आदि मानव घने जंगलों में विचरण करता था। उसे भोजन जुटाने में मुश्किल का सामना करना पड़ता था। पीने के लिए पानी की भी कठिनाई थी। नदी के किनारे पर बसने से दोनों समस्याएँ कुछ हद तक दूर होती थीं। निरंतर बहती नदियाँ पानी देती थीं। अपनी प्यास बुझाने के लिए जानवर भी नदी के तट पर जाते थे। आदमी उनका शिकार सहजता से कर लेता था। इस तरह से भोजन और पानी जो जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ होती हैं उनकी पूर्ति हो जाया करती थी।
मध्यप्रदेश की हृदयस्थली बुन्देलखण्ड को चेदि तथा दशार्ण भी कहा जाता है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में “चेद्य नैषधयोः पूर्वे विन्ध्यक्षेत्राच्य पश्चिमे रेवाय मुनयोर्मध्मे युद्ध देश इतीर्यते।” यह श्लोक वर्णित है। दशार्ण अर्थात दश जल वाला या दश दुर्ग भूमि वाला द्धण शब्द दुर्ग भूमौजले च इति यादवः जिस प्रकार पंजाब का नाम पांच नदियों के कारण पड़ा मालूम होता है, उसी प्रकार बुन्देलखण्ड का दशार्ण नाम – धसान, पार्वती, सिन्ध (काली) बेतवा, चम्बल, यमुना, नर्मदा, केन, टौंस और जामनेर इन दस नदियों के कारण संभव हुआ है।
सुकवि तथा वीर प्रसविनी बुन्देली धरा को प्रकृति ने उदारतापूर्वक अनोखी छटा प्रदान की है। यहाँ पग-पग पर कहीं सुन्दर सघन वन और कहीं शस्यश्यामला भूमि दृष्टिगोचर होती है। विन्ध्य की पर्वत श्रेणियाँ यत्र-तत्र अपना सिर ऊँचा किए खड़ी हैं। यमुना, बेतवा, धमान ,केन, नर्मदा आदि कल-कल नादिनी सरितायें उसके भू-भाग को सदा सींचती रहती हैं। शीतल जल से भरे हुए अनेकों सरोवर प्रकृति के सौन्दर्य को सहस्त्रगुणा बढ़ाते हैं। अर्थात यहाँ प्रकृति अपने सहज सुन्दर रूप में अवतरित हुई है। यहाँ की सरिताएं विन्ध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत श्रेणियों में जन्मी हैं। कभी चट्टानों में अठखेलियाँ करतीं, कभी घने वनों में आच्छादित इलाकों में धँसती और कभी मैदानी भागों से बहती ये नदियाँ आगे बढ़ती हैं।
जल में प्राणदायिनी शक्ति छिपी है, मानव शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है। जिसमें जल का प्रमुख स्थान है। ताजा जल हमें केवल एक ही स्रोत से मिलता है, वह है वर्षा यानी आकाश से गिरने वाला जल जो अपने आप गिरता है। झीलें, हिमनद, नदियां, चश्में, कुएँ जल के गौण साधन हैं, और इन्हें भी वर्षा या बर्फ से जल मिलता है। इन साधनों के माध्यम से वर्षा का पानी इकट्ठा हो जाता है।
जब वर्षा होती है, तो वह पृथ्वीवासियों का ताप हरती है, अमृत बरसाती है जिससे भूमि का चप्पा-चप्पा हरियाली से हरा-भरा हो जाता है।
पानी को अमृत माना जाता है- पानी पीने से शरीर में अनेक महत्वपूर्ण शारीरिक प्रक्रियायें प्रारंभ हो जाती हैं- जल अनेक जीवन विषों को समेटता हुआ शरीर से बाहर निकल जाता है। गेंहूँ या धान का एक दाना पैदा करने के लिए जल की कई हजार बूँदें लगती हैं। मनुष्य की दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु अनेक टन जल की खपत होती है। अर्थात जल ही जीवन है। हमारे लोक कवियों ने अपने गीतों में जल के महत्व को स्वीकारा है। यहाँ के गीतों, गाथाओं, लोकोक्तियों, मुहावरों, कथा-कहानियों में जल के महत्व का वर्णन मिलता है। अगर हम जल के महत्व को जान लें तो जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता को सुलझाने में हम अपना योगदान दे सकेंगे। हमारा कल्याणमय भविष्य इस बात पर टिका है, कि हम उपलब्ध जल के उपयोग में कितने सफल हो सकते हैं- वर्षा ऋतु हमारी नियति का महानाट्य है जिसके अभिनेता होते हैं ‘मेघ’ तभी तो हमारे लोक में मेघों का आवाहन होता है, हमारे देश में मेघोत्सवों का आयोजन होता है। बुन्देली लोकगीत भी इसमें पीछे नहीं हैं तभी तो वे कहते हैं कि-
रूमक-झुमक चले अईयो रे
साहुन के बदला रे
फाग
गह तन गगर कपत तन थर-थर
डरत धरत घट सर पर।
गगरी के लेते ही वह थर-थर काँपती है तथा सिर पर घड़ा रखते हुए डरती है। वह डर को छोड़ती ही नहीं है- क्योंकि पानी भरने में एक पहर का समय लगता है।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधं कुरू।।
सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही क्यों हुआ? इसके कारण हैं। आदि मानव घने जंगलों में विचरण करता था। उसे भोजन जुटाने में मुश्किल का सामना करना पड़ता था। पीने के लिए पानी की भी कठिनाई थी। नदी के किनारे पर बसने से दोनों समस्याएँ कुछ हद तक दूर होती थीं। निरंतर बहती नदियाँ पानी देती थीं। अपनी प्यास बुझाने के लिए जानवर भी नदी के तट पर जाते थे। आदमी उनका शिकार सहजता से कर लेता था। इस तरह से भोजन और पानी जो जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ होती हैं उनकी पूर्ति हो जाया करती थी।
मध्यप्रदेश की हृदयस्थली बुन्देलखण्ड को चेदि तथा दशार्ण भी कहा जाता है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में “चेद्य नैषधयोः पूर्वे विन्ध्यक्षेत्राच्य पश्चिमे रेवाय मुनयोर्मध्मे युद्ध देश इतीर्यते।” यह श्लोक वर्णित है। दशार्ण अर्थात दश जल वाला या दश दुर्ग भूमि वाला द्धण शब्द दुर्ग भूमौजले च इति यादवः जिस प्रकार पंजाब का नाम पांच नदियों के कारण पड़ा मालूम होता है, उसी प्रकार बुन्देलखण्ड का दशार्ण नाम – धसान, पार्वती, सिन्ध (काली) बेतवा, चम्बल, यमुना, नर्मदा, केन, टौंस और जामनेर इन दस नदियों के कारण संभव हुआ है।
सुकवि तथा वीर प्रसविनी बुन्देली धरा को प्रकृति ने उदारतापूर्वक अनोखी छटा प्रदान की है। यहाँ पग-पग पर कहीं सुन्दर सघन वन और कहीं शस्यश्यामला भूमि दृष्टिगोचर होती है। विन्ध्य की पर्वत श्रेणियाँ यत्र-तत्र अपना सिर ऊँचा किए खड़ी हैं। यमुना, बेतवा, धमान ,केन, नर्मदा आदि कल-कल नादिनी सरितायें उसके भू-भाग को सदा सींचती रहती हैं। शीतल जल से भरे हुए अनेकों सरोवर प्रकृति के सौन्दर्य को सहस्त्रगुणा बढ़ाते हैं। अर्थात यहाँ प्रकृति अपने सहज सुन्दर रूप में अवतरित हुई है। यहाँ की सरिताएं विन्ध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत श्रेणियों में जन्मी हैं। कभी चट्टानों में अठखेलियाँ करतीं, कभी घने वनों में आच्छादित इलाकों में धँसती और कभी मैदानी भागों से बहती ये नदियाँ आगे बढ़ती हैं।
जल में प्राणदायिनी शक्ति छिपी है, मानव शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है। जिसमें जल का प्रमुख स्थान है। ताजा जल हमें केवल एक ही स्रोत से मिलता है, वह है वर्षा यानी आकाश से गिरने वाला जल जो अपने आप गिरता है। झीलें, हिमनद, नदियां, चश्में, कुएँ जल के गौण साधन हैं, और इन्हें भी वर्षा या बर्फ से जल मिलता है। इन साधनों के माध्यम से वर्षा का पानी इकट्ठा हो जाता है।
जब वर्षा होती है, तो वह पृथ्वीवासियों का ताप हरती है, अमृत बरसाती है जिससे भूमि का चप्पा-चप्पा हरियाली से हरा-भरा हो जाता है।
पानी को अमृत माना जाता है- पानी पीने से शरीर में अनेक महत्वपूर्ण शारीरिक प्रक्रियायें प्रारंभ हो जाती हैं- जल अनेक जीवन विषों को समेटता हुआ शरीर से बाहर निकल जाता है। गेंहूँ या धान का एक दाना पैदा करने के लिए जल की कई हजार बूँदें लगती हैं। मनुष्य की दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु अनेक टन जल की खपत होती है। अर्थात जल ही जीवन है। हमारे लोक कवियों ने अपने गीतों में जल के महत्व को स्वीकारा है। यहाँ के गीतों, गाथाओं, लोकोक्तियों, मुहावरों, कथा-कहानियों में जल के महत्व का वर्णन मिलता है। अगर हम जल के महत्व को जान लें तो जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता को सुलझाने में हम अपना योगदान दे सकेंगे। हमारा कल्याणमय भविष्य इस बात पर टिका है, कि हम उपलब्ध जल के उपयोग में कितने सफल हो सकते हैं- वर्षा ऋतु हमारी नियति का महानाट्य है जिसके अभिनेता होते हैं ‘मेघ’ तभी तो हमारे लोक में मेघों का आवाहन होता है, हमारे देश में मेघोत्सवों का आयोजन होता है। बुन्देली लोकगीत भी इसमें पीछे नहीं हैं तभी तो वे कहते हैं कि-
रूमक-झुमक चले अईयो रे
साहुन के बदला रे
फाग
गह तन गगर कपत तन थर-थर
डरत धरत घट सर पर।
गगरी के लेते ही वह थर-थर काँपती है तथा सिर पर घड़ा रखते हुए डरती है। वह डर को छोड़ती ही नहीं है- क्योंकि पानी भरने में एक पहर का समय लगता है।
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