बस्तर के वन प्राणी

बस्तर के वनों में एक जमाने में तरह-तरह के वन्य प्राणी भारी संख्या में रहते थे। लेकिन प्रगति उनके ले काल साबित हुई। आज वे पश्चिम और दक्षिण पश्चिम बस्तर में, कहीं दूर कोने में ठेल दिए गए हैं। 1981 और 1983 के बीच मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य में चार अभ्यारण्य बनाए- इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान (1,258 वर्ग किलोमीटर) कांगर घाटी राष्ट्रीय उद्यान (200 वर्ग किलोमीटर), पामेड जंगली भैंसा अभ्यारण्य (139 वर्ग किलोमीटर) जंगली भैंसे को सुरक्षित पशु घोषित किया गया है। अन्य सुरक्षित पशु घोषित किया गया है। अन्य सुरक्षित पशु हैं- बाघ, चीता, भालू, गौर, बारहसिंगा, चौसिंगा, सांभर, चीतल, नीलगाय, भेकड़ी (भौंकने वाला हिरण), अजगर, मगर, उड़ने वाली गिलहरी और रीछ।

अभ्यारण्यों के लिए वन आरक्षित करके सरकार एक बार फिर वनवासियों के प्रति अपनी लापरवाही का सबूत दे रही है। इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान के कारण लगभग 5,000 वनवासी परेशानी में पड़ गए हैं, क्योंकि उनके सामान्य अधिकार, जंगल की मामूली उपज भोगने तक के हक रद्द कर दिए गए हैं। उनको वैकल्पिक सुविधाएं देने का प्रबंध अभी किया जाना बाकी है और तनाव दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। लेकिन वन अधिकारी इस बात के लिए ज्यादा चिंतित मालूम पड़ते हैं कि इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान को पर्यटकों के लिए कैसे आकर्षक बनाया जाए। एक वरिष्ठ वन अधिकारी कहते हैं कि “इंद्रावती उद्यान तो कान्हा को मात करेगा।” कान्हा इस वक्त राज्य का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यान है। यह है सरकार की प्राथमिकताओं का सूचक।

बस्तर में पाई जाने वाली नाना प्रकार की चिड़ियों में पहाड़ी मैना और भीमराज मुख्य हैं। पहाड़ी मैना, जो आदमी की आवाज की बढ़िया नकल करती है, बस्तर के ही जंगल में पाई जाती है। भीमराज नीलकंठ जितना बड़ा होता है और अपने रंग-बिरंगे पंखों की वजह से अबूझमाड़ियों को वह विशेष प्रिय है।

विकास की राजनीति


बस्तर उपनिवेशीय रचना की सटीक मिसाल है। यहां विकास का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों का शोषण। बस्तर को लेकर हुए अनेक अध्ययन यही कहते हैं कि यहां प्राकृतिक संपदा का अपार भंडार है, लेकिन क्या करें, उनका पूरा उपयोग करने के लिए संचार व्यवस्था ठीक नहीं है। उपनिवेशवादी मनोवृत्ति उन सरकारी दस्तावेजों और प्रकाशनों में भी झलकती है, जो अक्सर बस्तर को ‘पिछड़ा इलाका’ और यहां के निवासियों को ‘असभ्य, अज्ञान और आलसी’ बताते हैं। बाहर के लोग अक्सर उनको छल लेते हैं और सैकड़ों रुपए की वन उपज अक्षरशः मुट्ठी भर नमक के बदले में हड़प लेते हैं। बस्तर डिविजन के एक कमिश्नर साहब ने एक सरकारी दस्तावेज में उन वनवासियों को मूर्ख बताया और अपनी ही मूर्खता साबित करते हुए लिखा, ‘अगर इन क्षेत्रों में रेलवे और सड़क आदि परिवहन की सुविधाएं पहुंचा दी जाएं तो उनकी शैक्षिक कमी की पूर्ति सौगुनी की जा सकेगी।’ कई प्रशासक यह समझ ही नहीं पाते कि इन्ही मूर्ख और अज्ञानी वनवासियों ने अपनी सादगी भरी जीवन शैली के कारण वन संसाधनों को क्षति पहुंचाए बिना बस्तर का निर्मल स्वरूप सुरक्षित रखा था।

आमतौर पर यहां योजनाओं को बिल्कुल अविवेकपूर्ण ढंग से चलाया जाता है। वनवासियों की जन्म दर राष्ट्रीय जन्म दर की तुलना में बहुत कम है, फिर भी उन पर जबरदस्ती परिवार नियोजन कार्यक्रम थोपे जाते हैं। बस्तर के कई प्रखंडों ने सबसे अधिक संख्या में नसबंदी कराई है। जिला परिवार नियोजन विभाग की एक रिपोर्ट बताती है कि 1965-83 की अवधि में 156,333 नसबंदियां की गईं जबकि लक्ष्य था 115,880 का। आपातकाल के दौर में, 1976-77 में 6,820 के लक्ष्य के स्थान पर 39.443 नसबंदी कराई गईं। दूसरी तरफ मत्यु दर बढ़ रही है। इसी तरह यहां का विकास चलता रहा तो बहुत जल्दी ही औपनिवेशिक विजय हासिल हो जाएगी। बस्तर के बाहर के गैर-वनवसियों की संख्या वनवासियों से ज्यादा हो जाएगी, वे ही वे हो जाएंगे।

बस्तर के लोग अपने ही आंगन में पराए बनाए जा रहे हैं। एक ओर पैसा प्रधान अर्थनीति फैल रही है तो दूसरी ओर वे उन वनों से दूर किए जा रहे हैं, जिन पर उनका पूरा जीवन टिका था। वन उजड़ रहे हैं, वनवासी उखड़ रहे हैं- बस्तर का विकास जारी है।

विकल्प


देश के दूसरे भागों के प्राकृतिक संसाधन तेजी से चुकते, उजड़ते जा रहे हैं। तो बस्तर जैसे क्षेत्र नखलिस्तान के समान हैं। उसे ऐसे आरक्षित भू-भाग के रूप में बनाए रखना चाहिए जो सदाबहार रहे, वनसृजन का सिलसिला जारी रख सके। वानिकी कला को वनवासियों से सीखने का कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना चाहिए।

बस्तर की अनेक अहितकारी योजनाओं में ‘हितग्राही’ योजना एक अच्छा कदम है। फिर भी साल में मात्र 60 परिवार यह तो प्रतीकात्मक ही माना जाएगा। उस योजना को नए सिरे से बनाना चाहिए ताकि बस्तर में उजाड़े गए 400,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र को आबाद करने का व्यापक लक्ष्य पूरा हो सके। बी. के. रायबर्मन समिति की रिपोर्ट “अगर इन जंगलों को फिर से आबाद करना है तो प्रति परिवार 1.5 हेक्टेयर जमीन उसे आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने के लिए काफी होगी।” प्रति परिवार 2 हेक्टेयर जमीन उसे आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने के लिए काफी होगी। प्रति परिवार 2 हेक्टेयर जमीन दी जाए तो 200,000 परिवार-पूरे बस्तर जिले की आज की आबादी-लाभान्वित हो सकेंगे।

जहां तक इस कार्यक्रम की लागत का सवाल है, एक मोटा हिसाब किया जा सकता है-गुजरात की तरह हर परिवार को 250 रुपए महीना पांच साल तक दें। पांच साल के बाद पेड़ों के उत्पादों की बिक्री से उस राशि की पूर्ति हो सकती है। कार्यक्रम में 10,000 परिवारों को लें और हर साल दस-दस हजार परिवार जोड़ते जाएं तो पांच साल की अवधि में इक कार्यक्रम में 35 करोड़ रुपए लगेंगे। 20 साल में पूरी जमीन आबाद हो सकती है।

क्या बस्तर के लिए इतना खर्च जुटाया जा सकेगा जी हां, क्योंकि बस्तर से आज सालाना 47 करोड़ रुपए का राजस्व जमा होता है। इसमें से बस्तर पर सिर्फ पांच करोड़ रुपए खर्च होते हैं।

इसलिए इसे तो खर्च भी नहीं कहा जा सकता। यह तो पश्चाताप होगा, उन गलत कामों का जो आजादी के बाद भी देश के एक हिस्से ने अपने ही लोगों के ऊपर किए हैं।

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