बरसे जब अमृत सर्वस्व करे तृप्त

जलदान
जलदान

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक बार कहा था कि भारत का वास्तविक वित्त मंत्री मानसून है। सहजता से कही उनकी इस बात के बहुत गूढ़ मायने हैं। मानसून देश की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और लोकाचार गतिविधियों में रचा-बसा है चार महीने के दौरान दक्षिण पश्चिम मानसून देश की धरती पर इतना पानी उड़ेल देता है कि अगर हम उसी को सहेज लें तो साल भर मन भर पिएँ और जिएँ। पानी की किल्लत किसी भी रूप में नहीं हो सकती है। बारिश की इन अमृत बूँदों से अपने कुएँ, तालाब, पोखर और नदियों को लबालब कर लें, साथ ही धरती की कोख में इसे पहुँचाकर भूजल स्तर को ऊपर उठा दें तो बाकी के आठ महीने हमें बाल्टी लेकर इधर-से-उधर नहीं भटकना पड़े। यकीन मानिये साल भर देश में होने वाली कुल बारिश का 80 फीसद हिस्सा केवल चार महीने के मानसूनी सीजन में जब बरसता है तो चहुँओर जल ही जल दिखता है। इस तस्वीर में हम बाकी के आठ महीने के किल्लत वाले दिनों का अक्स नहीं ढूँढ पाते हैं। लिहाजा इन बूँदों को सहेजने का कोई उपक्रम नहीं करते। इस लापरवाही से उबर अपनी धरती अपने कुएँ, तालाबों, पोखरों, बावड़ियों और नदियों के लिये जलदान करना ही जलसंकट का एकमात्र निदान है।

किसानों के लिये वरदान

सूखे का दंश झेल रहे लोगों को मध्य प्रदेश के छोटे से जिले देवास से सीखना चाहिए। इस जिले के तकरीबन हर गाँव ने सालभर खेतों की सिंचाई की व्यवस्था करने का उम्दा तरीका निकाला। सभी गाँवों में किसानों ने अपने खेतों में तालाब बनाये, जिनमें सालभर के लिये पर्याप्त मात्रा में वर्षाजल संरक्षित किया जा सके।

मानसून तालाब

औसतन हर तालाब 8 फीट लम्बा और 10 फीट गहरा होता है। यह तकरीबन एक हेक्टेयर जमीन घेरता है जिससे आठ से 10 हेक्टेयर जमीन को साल भर सींचा जा सकता है। इससे अनाज की पैदावार 300 फीसद तक अधिक होती है।

भागीरथी कृषि अभियान

जैसे ही पहले वर्ष अच्छे परिणाम मिले, कृषि विभाग ने किसानों को प्रशिक्षण और अन्य तकनीकी सहायता मुहैया कराई। खर्च किसानों ने खुद वहन किया। इस अभियान को भागीरथी कृषक अभियान और तालाब खोदने वाले किसान को भागीरथी कृषक नाम दिया गया। तालाबों को रीवा सागर नाम मिला। छोटे-से-छोटे तालाब की खुदाई की लागत एक से डेढ़ लाख रुपए थी। दो साल बाद सरकार ने सब्सिडी स्कीम शुरू की। इसके तहत कम-से-कम 12 फिट गहरे तालाब के लिये 16,350 रुपए की राशि दी गई। बाद में इस रकम को बढ़ाकर 80 हजार से एक लाख कर दिया गया। स्कीम का नाम बदलकर राम बलराम कर दिया गया।

फायदे ही फायदे

इन तालाबों के बनाये जाने के बाद जिले का कुल सिंचित क्षेत्र बढ़ा। किसानों ने दो से अधिक फसलें बोईं जिनसे अधिक पैदावार हुई। सिंचाई के लिये बोरवेल चलाने को रात-रात भर जागकर बिजली का इन्तजार करने की किसानों की मुसीबत खत्म हुई।

बना मिसाल

बुन्देलखण्ड के महोबा जिले के किसानों ने 2013 में देवास का दौरा किया और अपने खेतों में तालाब खोदे। 2017 में यहाँ औसत से काफी कम बारिश हुई इसके बावजूद यहाँ के किसान दो फसलें उगा सके। 2016 में मराठवाड़ा के सूखाग्रस्त क्षेत्र लातूर के किसानों ने भी यह प्रयोग किया।

ऐसे हुई शुरुआत

2006 में देवास के जिलाधिकारी उमाकांत उमराव ने कृषि विभाग के अधिकारियों के साथ 40 किसानों को इस बात के लिये तैयार किया कि वे अपने-अपने खेतों में तालाब खोदें। किसान प्रेम सिंह खिंची और एक अन्य ने सबसे पहले इस पर अमल किया। पहले ही वर्ष में खिंची ने दो की बजाय तीन फसलें उगाई। जैसे ही उनकी आय में तीन गुना वृद्धि हुई, लोगों ने अनुसरण करना शुरू कर दिया। देवास जिले में चार हजार से अधिक मानसून तालाब खोदे डाले गये। 2016 तक यहाँ एेसे पाँच लाख तालाब थे।

सूखते तालाब

तालाब, पोखर, ताल या तलैया कमोबेश एक ही जलस्रोत के अलग-अलग नाम हैं। ये ऐसी प्राकृतिक संरचनाएँ होती हैं, जिनसे नफा छोड़ नुकसान नहीं होता है। मानसून के दौरान चार महीने होने वाली बारिश का पानी इनमें जमा होता है जो बाद में अलग-अलग कार्यों में इस्तेमाल किया जाता है।

फायदे ही फायदे

1. भूजल स्तर दुरुस्त रहता है।
2. जमीन की नमी बरकरार रहती है।
3.धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण रहता है।
4. स्थानीय समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक केन्द्र होते हैं।
5. लोगों के जुटान से सामुदायिकता पुष्पित-पल्लवित होती है।
6. लोगों के रोजगार के भी ये बड़े स्रोत होते हैं।

सहज और किफायती निर्माण

इस संरचना के निर्माण के लिये न तो विशिष्ट तकनीक की जरूरत पड़ती है और न ही बड़ी पूँजी की। पहले के दिनों में तो लोग श्रमदान करके तालाब या पोखर बना डालते थे। विडम्बना यह है कि जो तालाब पारम्परिक रूप से जल के सबसे बड़े जल संसाधन माने जाते रहे हैं, सरकारी भाषा में उन्हें ‘जल संसाधन’ नहीं माना जाता है।

हाहाकारी तस्वीर

तब:1947 में देश में कुल चौबीस लाख तालाब थे। तब देश की आबादी आज की चौथाई थी।

अब: वैसे तो देश में तालाब जैसे प्राकृतिक जलस्रोतों का कोई समग्र आँकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन अगर 2000-01 की गिनती को सही मानें तो इसके अनुसार देश में तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की संख्या 5.5 लाख थी। हालांकि इसमें से 15 फीसद बेकार पड़े थे, लेकिन 4 लाख 70 हजार जलाशयों का इस्तेमाल किसी-न-किसी रूप में हो रहा था।

जल संकट की संजीवनी

1944 में गठित अकाल जाँच आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि आने वाले वर्षों में पेयजल की बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। इस संकट से जूझने के लिये तालाब ही कारगर होंगे।जहाँ इनकी बेकद्री ज्यादा होगी, वहाँ जल समस्या हाहाकारी रूप लेगी। आज बुन्देलखण्ड, तेलंगाना और कालाहांडी जैसे क्षेत्र पानी संकट के पर्याय के रूप में जाने जाते हैं, कुछ दशक पहले अपने प्रचुर और लबालब तालाबों के रूप में इनकी पहचान थी।

कहाँ कितने तालाब

मेरठ- राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार जिले में कुल 3276 तालाब थे। इनमें से 1232 अतिक्रमण के शिकार थे। 2015 में जिला विकास अधिकारी ने सर्वें में पाया कि जिले के 12 ब्लॉकों में 1651 तालाब ही मौजूद हैं। तालाबों जैसे जलस्रोतों की बदहाली के चलते क्षेत्र में भूजल स्तर 68 सेमी प्रति साल की दर से गिर रहा है।

बुन्देलखण्ड- 2014 में सूचना के अधिकार के तहत पूछे गये एक प्रश्न के जवाब में उत्तर प्रदेश सरकार ने माना है कि पिछले दशक में बुन्देलखण्ड से 4020 तालाब विलुप्त हो गये। इनमें से चित्रकूट में 151, बांदा में 869, हमीरपुर में 541 और झांसी में 2459 तालाब खत्म हुए। जालौन और ललितपुर में न तो कोई तालाब खत्म हुआ और न ही नये का सृजन किया गया। इससे अलग एक साल पहले किये गये सर्वे में पाया गया कि 4424 तालाब और पोखर अतिक्रमण के शिकार हैं। पूरे उत्तर प्रदेश में तालाबों, पोखर, जलाशय और कुओं की कुल संख्या 8,75,345 है।

दिल्ली- सरकार की ‘पार्क एंड गार्डन सोसाइटी’ के अनुसार, वर्तमान में यहाँ 629 तालाब हैं, लेकिन असल में अधिकांश खस्ताहाल हैं। इन पर अवैध कब्जे हैं। 180 तालाबों का अतिक्रमण किया जा चुका है। 70 पर आंशिक तो 110 तालाबों पर पूरा अवैध कब्जा हो चुका है। इसके अलावा कितनी ही जगहों पर सीवेज और कूड़े के निपटान की सही व्यवस्था न होने का खामियाजा भी ये तालाब ही भुगत रहे हैं।

मद्रास प्रेसीडेंसी- आजादी के समय यहाँ पचास हजार तालाबों के होने का उल्लेख मिलता है।

मैसूर राज्य- अंग्रेजों के राजस्व रिकॉर्ड में यहाँ 39 हजार तालाब होने की बात दर्ज है।

खात्मे की वजह

तालाबों के खात्मे के पीछे समाज और सरकार समान रूप से जिम्मेदार हैं। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गन्दगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव में सूख रहे हैं। कुछ मामलों में इन्हें गैर जरूरी मानते हुए इनकी जमीन का दूसरे मदों में इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल तालाबों पर अवैध कब्जा इसलिये भी आसान है क्योंकि देशभर के तालाबों की जिम्मेदारी अलग-अलग महकमों के पास है।

कोई एक स्वतंत्र महकमा अकेले इनके रख-रखाव देखभाल के लिये जिम्मेदार नहीं है। राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय और पर्यटन जैसे विभागों के पास इन तालाबों का जिम्मा है। लिहाजा अतिक्रमण की स्थिति में सब एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाल जवाबदेही से बचने की कोशिश करते हैं। तालाबों को हड़पने में सरकारी नुमाइंदे और समाज की नुमाइंदगी कर रहे लोगों की मिली भगत होती है।

सिकुड़ती नदियाँ

देश में तकरीबन 400 नदियाँ हैं। इनकी कुल लम्बाई तकरीबन दो लाख किमी होगी। इतने में पाँच बार धरती का चक्कर लगाया जा सकता है। ये अपने साथ 1,869 अरब घन पानी लेकर चलती हैं। इतने में पूरा देश दो फीट पानी में डूब सकता है। ये नदियाँ सवा सौ करोड़ लोगों की प्यास बुझाती हैं, देश की सांस्कतिक धरोहरों को पुष्पित-पल्लवित करती हैं। इन सबके बावजूद हम ही अपनी नदियों के रक्षा नहीं कर पा रहे हैं।

70 फीसद नदियाँ खतरे में

दिसम्बर, 2016 में इंडिया रिवर्स वीक के तहत जल कार्यकर्ता और विशेषज्ञों की बैठक हुई थी। इसमें देश की 290 नदियों का परीक्षण किया गया। अध्ययन में सामने आया कि इनमें से 205 नदियाँ यानी 70 फीसद से भी अधिक खतरे के घेरे में हैं। इनमें कई बड़ी नदियाँ भी शामिल हैं। इनकी धारा कम हो गई है, सहायक नदियाँ या तो सूख गई हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। सभी में प्रदूषण चरम पर है, नदियों के किनारे अतिक्रमण किया गया है और कैचमेंट एरिया में लगे पेड़ों को काट डाला गया है।

विकास परियाजनाएँ बड़ी बाधा

साउथ एशिया नेटवर्क अॉन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल के हिमांशु ठक्कर के मुताबिक नदियों के सिकुड़ने और प्रदूषित होने के पीछे कई विकास परियाजनाओं का हाथ है। नदियों पर बाँध और पनबिजली प्रोजेक्ट बनाया जाना, रिवरफ्रंट पर विकास करना, नदियों में कूड़ा फेंकना और जैव-विविधता को खत्म करना बड़े कारण हैं। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन और नदियों की महत्ता को न समझना भी नदियों के अहित में काम करता है। असली विकास तब होगा जब नदियों को उनका पुराना स्वरूप लौटाया जा सकेगा।

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