आर्कटिक टुंड्रा प्रदेश के स्थायी बर्फ के पिघलने से वहाँ दबी ग्रीनहाउस गैसें- कार्बन डाइऑक्साइड और मिथेन - इतनी मात्रा में बाहर निकलेंगी कि तापमान वृद्धि की मौजूदा दर को काफी बढ़ा देंगी। धरती का तापमान बढ़ने का अनिवार्य नतीजा यह होगा कि लू चलने के दौर में इजाफा होगा, मौसम का सन्तुलन बिगड़ जाएगा और समुद्र का जलस्तर बढ़ जाएगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ना सबसे खतरनाक है क्योंकि इससे तटीय शहर डूब जाएँगे, नदियों का मुहाना चौड़ा हो जाएगा और दुनिया भर से करोड़ों लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। कहाँ बसाया जाएगा इन्हें।
इस साल कश्मीर समेत पर्वतीय इलाकों में भारी बर्फबारी और हिमस्खलन के नजारों ने बहुतों को चौंकाया। कश्मीर में यह तबाही भी लेकर आया और सैन्य शिविर के चपेट में आने से 14 से अधिक जवानों की मौत हो गई। वैज्ञानिक बिरादरी इसे जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देख रही है और आगाह कर रही है कि वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा कम करने की कोशिश फौरन नहीं की जाती तो हालात भयावह हो सकते हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को अमेरिका को पीछे रखने की साजिश बताया तो दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैसों पर अंकुश लगाने के पेरिस घोषणा-पत्र पर संदेह के बादल मँडराने लगे हैं। ऐसे में नए हालात क्या हो सकता है और क्या किया जा सकता है?वैज्ञानिक बिरादरी में अनेक स्रोतों से जुटाए स्वतंत्र सबूतों के आधार पर लगभग आम सहमति है कि धरती का तापमान वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) के स्तर से बढ़ने से बढ़ रहा है। सबसे चिन्ताजनक है धरती पर बर्फ की चादर का पिघलना, खासकर आर्कटिक क्षेत्र में, जो भू-मण्डल पर सबसे तेजी से गरम होने वाला इलाका है।
ग्रीनलैंड पर 3,000 मीटर मोटी बर्फ की परत कई साल से पिघल रही है। उसके पिघलने की दर में इजाफा दो स्वतंत्र कारणों से हो रहा है, एक, आर्कटिक सागर में धीरे-धीरे बर्फ की ऊपरी परत घट रही है जिससे उसका तापमान बढ़ रहा है। दूसरे, बर्फ की परत की मोटाई घटने से ऊँचाई कम होती जा रही है। ग्रीनलैंड में बर्फ की परत के पूरी तरह पिघलने से समुद्र का जलस्तर करीब छह मीटर तक बढ़ जाएगा। आर्कटिक टुंड्रा प्रदेश के स्थायी बर्फ के पिघलने से वहाँ दबी ग्रीनहाउस गैसें- कार्बन डाइऑक्साइड और मिथेन - इतनी मात्रा में बाहर निकलेंगी कि तापमान वृद्धि की मौजूदा दर को काफी बढ़ा देंगी।
धरती का तापमान बढ़ने का अनिवार्य नतीजा यह होगा कि लू चलने के दौर में इजाफा होगा, मौसम का सन्तुलन बिगड़ जाएगा और समुद्र का जलस्तर बढ़ जाएगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ना सबसे खतरनाक है क्योंकि इससे तटीय शहर डूब जाएँगे, नदियों का मुहाना चौड़ा हो जाएगा और दुनिया भर से करोड़ों लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। कहाँ बसाया जाएगा इन्हें।
वैज्ञानिकों के मुताबिक, समुद्री तट पिछले करीब 10,000 साल से स्थायी बने हुए हैं। समुद्र आज भी गुजरात में लोथल के तट पर लोटता है, जो करीब 4,500 साल पहले हड़प्पा सभ्यता के कांसा युग में बन्दरगाह हुआ करता था। हालांकि 15,000 से 10,000 साल पहले के दौर 5,000 साल में आखिरी बार जब बर्फ युग का अन्त हुआ था तो उत्तरी अमेरिका के उत्तरी हिस्सों और यूरेशिया के कुछ हिस्सों में बर्फ की परत पिघली थी और समुद्र का जलस्तर 130 मीटर तक बढ़ गया था।
उसी दौर में वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड का घनत्व 0.18 फीसदी से 0.28 फीसदी तक बढ़ गया था और 1900 की सदी तक समुद्र के जलस्तर की तरह ही स्थायी बना रहा। उसके बाद औद्योगिक युग के आगमन के बाद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर धीरे-धीरे बढ़ा और 2016 में वह 0.40 फीसदी पर पहुँच गया। इस सदी में मनुष्य ने वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ाने में इस कदर योगदान किया है कि यह इसके पहले उस 5,000 साल की अवधि में नहीं हुआ था जब बड़े पैमाने पर बर्फ पिघली थी। इसलिये आश्चर्य नहीं कि हमने बला को बुलावा दे दिया है। अगर यह इसी तरह जारी रहा तो बाकी बची बर्फ की परत भी पिघल जाएगी और समुद्र का जलस्तर करीब 100 मीटर तक बढ़ जाएगा।
समुद्र के जलस्तर बढ़ने की अनिवार्य समस्या को जानकर बड़ा सवाल यही है कि हमारे पास कितना समय है? इसका जवाब इसमें निहित है कि आने वाले वर्षों में विश्व समुदाय क्या करता है। अगर हम जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, गैस) को जलाते रहते हैं और वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा घटाने के मद में कुछ नहीं करते तो इस सदी के मध्य के पहले ही तटीय और नदी के मुहानों पर बसे शहरों तथा निचले इलाकों से बड़े पैमाने पर लोगों को निकालने की योजना बनानी शुरू करनी होगी। यानी जब आज के बच्चे जवान होंगे।
उम्मीद यही है कि जितनी जल्दी युद्ध-स्तर पर इसे रोकने के उपाय शुरू कर दिये जाएँगे तो इस समय सीमा को कुछ टाला जा सकेगा। इस मामले में भारत सहित कई देशों की पेरिस समझौते पर सहमति बिना शक एक अहम उपाय है लेकिन इसके लक्ष्य आज जरूरी उपायों से कुछ कमतर हैं। ट्रंप की अगुआई में अमेरिकी सरकार द्वारा जलवायु के मोर्चे पर अपने लक्ष्य बदलने पर जलवायु परिवर्तन से जूझने के प्रति प्रतिबद्ध तंत्र का भारी आन्तरिक विरोध झेलना पड़ेगा। इसी मामले में सबसे पुरानी सभ्यता होने पर गर्व करने वाले भारत को नेतृत्व की भूमिका अपनानी चाहिए उज्ज्वल भविष्य की राह पर आगे बढ़ना चाहिए।
क्या हो सकते हैं उपाय
प्रथम, हर वर्ग के लोगों में जलवायु सम्बन्धी शिक्षा का व्यापक प्रसार किया जा सकता है, जो बताए कि समाज में आगे कैसे खतरे हैं, उनसे क्या होने वाला है और कैसे उससे बचा जा सकता है या कम-से-कम टाला जा सकता है। दूसरे, अक्षय ऊर्जा स्रोतों खासकर वायु और सौर ऊर्जा का प्रचलन बढ़ाकर जीवाश्म ईंधन को जलाने पर रोक लगाई जाये और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाया जाये। तीसरे, वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने के उपाय अपनाए जाएँ। चौथे, खाद्य सुरक्षा के लिये टिकाऊ नई तकनीक का ईजाद किया जाये।
वायुमण्डल में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में कार्बन की अतिरिक्त मात्रा को उसकी प्रारम्भिक अवस्था में लाने के लिये जरूरी मात्रा करीब 250 अरब टन है। इसे ऐसे समझिए कि समूची धरती पर फसल, घास और वनों के रूप में पेड़-पौधों के रूप में कार्बन की कुल मात्रा 500 अरब टन है। तो, इतनी मात्रा में पेड़-पौधे लगाने की जमीन, पानी और उर्वरक हम कहाँ से लाएँगे? इसका जवाब समुद्री रेगिस्तान या मृत समुद्र का इलाका है, जो पृथ्वी के लगभग आधे गोलार्द्ध के बराबर है और जिसका खाद्य सामग्री उत्पादन या कार्बन सोखने में कोई योगदान नहीं है।
पृथ्वी की व्यवस्था के वैज्ञानिक हमारी धरती पर जलवायु प्रणाली को बेहतर समझने के लिये कई नए प्रयोग कर रहे हैं। धरती का तापमान बढ़ने के असर के बारे में उनकी भविष्यवाणियाँ सही साबित हो रही हैं। अत्याधुनिक कम्प्यूटरों की मदद से विभिन्न शोध क्षेत्रों से आ रही खबरें दिलचस्प हैं और लोगों का ध्यान खींच सकती हैं क्योंकि ये अप्रत्याशित तरीके से प्रभावित करती हैं।भाषणों, फिल्मों और इंटरनेट पर एनीमेशन के जरिए लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। आगे आने वाली समस्याओं और उनके समाधान पर मीडिया और मनोरंजन उद्योग लोगों का ध्यान खींच सकता है। इस अभियान में सबसे ज्यादा जोर चक्रीय समझ के विकास पर होना चाहिए जिसके लिये हमारी पृथ्वी के हाइड्रोलॉजिकल और कार्बन चक्र गहरी समझ की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं। चक्रीय सोच टिकाऊपन का दार्शनिक आधार है और सपाट विचारों से काफी आगे ले जाती है। सपाट सोच दिक-काल पर आधारित विचारकों की अल्पकालिक धारणा का परिणाम है और इसी से वर्तमान समस्या पैदा हुई है। यह बताना मुनासिब है कि चक्रीय अवधारणा प्राचीन भारतीय दर्शन का आधार रही है।
द्वितीय, सार्वजनिक स्वास्थ्य और जीवन स्तर की गुणवत्ता में सुधार का बहुत कुछ जीवाश्म ईंधन को जलाने पर आधारित है। भारत वायु प्रदूषण और लोगों खासकर बच्चों की सेहत पर इसके बुरे असर के रूप में इसकी भारी कीमत चुका रहा है। क्या आज जन्म लेने वाले बच्चों को कल साँस के रोग लग जाएँगे? क्या शहरों से जीवाश्म ईंधन वाले इंजनों को हटाकर बिजली से चलने वाले इंजन से बदलना हमारी पहुँच नहीं है? देश भर में बिजली के प्रसार से वृद्धि और रोजगार की सम्भावना बढ़ रही है क्योंकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग कुशल और प्रशिक्षित कामगारों में बदलते जा रहे हैं।
ऊर्जा के विकेन्द्रीकरण के लिये तकनीक विकसित हो चुकी है, इसलिये अब काहे की देरी है? सौर ऊर्जा से जगमग भारत विकेन्द्रीकृत आत्मनिर्भरता की उसी सपने को साकार करेगा जिसे गाँधी देखा करते थे और अब वह आधुनिक, स्मार्ट तकनीक देश के हर आदमी की पहुँच में सम्भव दिख रहा है। सौर ऊर्जा से बिजली और उसकी कमी की भरपाई के क्षेत्र में नया कुछ करने की भारी सम्भावनाएँ हैं, जिससे नए बाजार के लिये नए उत्पाद भी तैयार होंगे। दुनिया भर में प्रवासी भारतीयों को इस विशाल अभियान में शामिल होने को राजी किया जा सकता है। इस मामले में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में निवेश करना जीवाश्म ईंधन के दौर जैसी ही गलती दोहराने जैसा होगा। यानी इससे निकलने वाले कचरे के दुष्प्रभाव पर न सोचकर आगे बढ़ना होगा।
रेडियोधर्मिता ऐसी ऊर्जा है जिसे हम महसूस नहीं कर सकते इसलिये गलती कर बैठते हैं। फिलहाल जर्मनी अपने रिएक्टरों को तोड़ने और उसके कचरे को निबटाने की समस्या से जूझ रहा है। इसमें भारी लागत के अलावा यह भी समस्या है कि आपात स्थिति में उन्हें कहाँ दफनाया जाये। यह बड़ी समस्या आने वाली है। भारत को आने वाली पीढ़ियों को धरती के बढ़ते तापमान के बीच बेकार हुए परमाणु रिएक्टरों को ठिकाने लगाने पर मजबूर करने के बदले सूर्य नमस्कार की नई इबारत लिखनी चाहिए।
तृतीय, पेड़-पौधे लगाने के अलावा, वायुमण्डल से एंथ्रेपेजेनिक कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने की प्रक्रिया वैज्ञानिक बिरादरी में बेहद अलोकप्रिय है। खासकर यह मान लिया जाता है कि इस क्षेत्र में शोध से उत्सर्जन घटाने का प्राथमिक उद्देश्य टल जाएगा। इस दलील को सुनकर ऐसा लगता है जैसे जहाज में छेद का पता चलने पर अधिकारियों ने तय किया कि जब तक छेद की मरम्मत का इन्तजाम नहीं हो जाता, तब तक पानी बाहर उलीचने का काम न किया जाये। असल में समस्या की विकरालता से यह साबित हो गया है कि कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना उत्सर्जन पर काबू पाने का विकल्प नहीं हो सकता।
वायुमण्डल में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में कार्बन की अतिरिक्त मात्रा को उसकी प्रारम्भिक अवस्था में लाने के लिये जरूरी मात्रा (वायुमण्डल में 0.28 से 0.4 फीसदी का फर्क) करीब 250 अरब टन है। इसे ऐसे समझिए कि समूची धरती पर फसल, घास और वनों के रूप में पेड़-पौधों के रूप में कार्बन की कुल मात्रा 500 अरब टन है। तो, इतनी मात्रा में पेड़-पौधे लगाने की जमीन, पानी और उर्वरक हम कहाँ से लाएँगे? इसका जवाब समुद्री रेगिस्तान या मृत समुद्र (जिसमें कोई जैविक प्रक्रिया नहीं चलती) का इलाका है, जो पृथ्वी के लगभग आधे गोलार्द्ध के बराबर है और जिसका खाद्य सामग्री उत्पादन या कार्बन सोखने में कोई योगदान नहीं है।
चतुर्थ, खाद्य पदार्थों के वैकल्पिक, सुरक्षित स्रोत भी विकसित करने होंगे। वैज्ञानिकों के मुताबिक समुद्री रेगिस्तान में कृत्रिम पारिस्थितिकी का विकास करके खेती के बारे में सोचना चाहिए। ये करीब 200 मीटर मोटी गरम पानी की परत है जो समुद्र में खनिज से भरपूर ठंडे जल के ऊपर तैरती है।
खनिज से भरपूर गहरे जल को ऊपर सतह पर लाकर नखलिस्तान बनाया जा सकता है। इसमें मछलियों का प्रजनन, समुद्री पौधों को लगाया जा सकता है, जो कार्बन सोखने का काम भी करते हैं। स्थानीय ऊर्जा से ही यह काम अंजाम दिया जा सकता है। खुले समुद्र में खाद्य पदार्थों के वैकल्पिक स्रोत से न सिर्फ कृषि योग्य भूमि पर दबाव घटेगा, बल्कि शहरों में भीड़-भाड़ भी कम करने में इसका योगदान होगा। इससे कार्बन को सोखने की नई प्राकृतिक पारिस्थितिकी भी पैदा होगी। अन्तरिक्ष में सैर-सपाटे का ख्वाब देखने के बदले हमें अपनी पृथ्वी गैर-इस्तेमालशुदा इलाकों को ईजाद करना चाहिए। कहने की दरकार नहीं कि भारत ऐसा अभियान छेड़ने की बेहतर स्थिति में है।
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