ब्रिटिश हुकूमत की बागमती से सिंचाई की नाकाम कोशिश

रिपोर्ट के अनुसार कुओं का इस्तेमाल आमतौर पर पीने के पानी के लिए ही होता था। अगर यह कुआँ गाँव के बीच स्थित हो तब तो उससे वैसे भी सिंचाई का कोई सवाल नहीं उठता। सीतामढ़ी के उत्तरी क्षेत्र में जो 3.4 प्रतिशत सिंचित भूमि की बात कही जाती थी वह सिंचाई मुख्यतः सीतामढ़ी, पुपरी, बेलसंड, कटरा और मुजफ्फरपुर थानों में पाइनों के माध्यम से होती थी। जिले के उत्तरी क्षेत्रों में आहर और पाइन जैसी कोई व्यवस्था निश्चित रूप से कारगर हो सकती थी जैसा कि दक्षिण में गया में मौजूद है मगर इसकी इस इलाके में जरूरत ही नहीं पड़ती।

बागमती नदी से नहरों द्वारा सिंचाई करने का पहला प्रस्ताव संभवतः 1875-76 ई. में किया गया था। यह प्रस्ताव तत्कालीन मुजफ्फरपुर (उस समय मुजफ्फरपुर में आज के सीतामढ़ी, शिवहर, मुजफ्फरपुर और वैशाली जिले शामिल थे) और दरभंगा (आजकल के मधुबनी, दरभंगा और समस्तीपुर जिले) के उत्तरी पश्चिमी इलाकों को सींचने के लिए साइमन ऐण्ड ब्रुक्स नाम की एक कम्पनी द्वारा तैयार किया गया था। इस प्रस्ताव में भारत-नेपाल सीमा से कोई 16 किलोमीटर नीचे बागमती नदी पर एक वीयर बनाने का प्रस्ताव किया गया था जो कि नदी के प्रवाह के सामने पूरब-पश्चिम दिशा में निर्मित होता। वीयर नदी के प्रवाह की दिशा के सामने बांधनुमा ऐसी एक पक्की संरचना होती है जिससे उसके पीछे नदी के पानी का संचय करके उसके लेवल को उठाया जा सके और इसकी मदद से पानी को नहरों में ठेला जा सके। नदी में पानी का प्रवाह अधिक होने पर इस पूरे प्रवाह को इस पक्की संरचना के ऊपर से भी बहाया जा सकता है। इस वीयर के निर्माण के फलस्वरूप नहरों से शाखाएँ निकाल कर 2,560 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की सिंचाई कर लेने का प्रस्ताव किया गया था। प्रस्तावित मुख्य नहर में नौ-परिवहन की व्यवस्था की गयी थी और मुख्य नहर से निकलने वाली वितरणियाँ इस तरह से डिजाइन की गयी थीं कि वह नदी के प्रायः समान्तर चलतीं और नदी के पानी को बायें किनारे पर फैलने से भी रोकतीं जिससे एक हद तक बाढ़ से भी बचाव होता। उस समय इस पूरी योजना की अनुमानित लागत 27.5 लाख रुपये थी और इसे बहुत ज्यादा मंहगी योजना बताकर भारत सरकार ने खारिज कर दिया था।

1896 में बिहार में भयंकर अकाल पड़ा और तब मिस्टर मिल्स नाम के राहत कार्यों के अधीक्षक ने जमला गाँव के पास से बागमती को सोरम नदी से जोड़ते हुए लगभग 16 किलोमीटर लम्बी एक नहर खोदने का प्रस्ताव किया। बागमती में जिस स्थान से नहर निकालने की बात कही गयी थी वहां एक हेड-वर्क्स बनाने का प्रस्ताव इस योजना में शामिल था। 1875-76 में साइमन ऐण्ड ब्रुक्स ने बागमती नदी के बायें किनारे पर वितरणियों की शक्ल में तटबंध का जो प्रस्ताव दिया था उसकी जगह अब सीधे तटबंध ही प्रस्तावित था और उसके साथ-साथ आवश्यकतानुसार पुलों और कलवर्टों का प्रावधान भी इस योजना में किया गया था। इस योजना में प्रस्तावित मुख्य नहर वही थी जैसा कि साइमन ऐण्ड ब्रुक्स ने सुझाया था। कुल मिलाकर इस नहर से बागमती की विभिन्न छाड़न धाराओं का उपयोग करके रबी के मौसम में 600 क्यूसेक पानी का सिंचाई में उपयोग कर लिया जाना था। इस प्रस्ताव को एक्जीक्यूटिव इंजीनियर मिस्टर टूगुड के पास उनकी राय जानने के लिए भेजा गया और उन्होंने अपनी रिपोर्ट 1897 में सरकार को भेजी जिसमें कहा गया था कि इस योजना की लागत लगभग 2.5 लाख रुपये आयेगी और इससे 96,000 एकड़ जमीन की सिंचाई हो पायेगी। तत्कालीन बंगाल सरकार ने इस योजना को प्रशासनिक स्वीकृति दे दी और राहत कार्य के तौर पर फरवरी से जुलाई 1897 के बीच लगभग 6.4 किलोमीटर लम्बी नहर खोद डाली गयी। इस निमार्ण कार्य में भूमि अधिग्रहण तथा मिटृी का काम मिलाकर लगभग 70,000 रुपये खर्च हुए और करीबन 26,000 रुपये निर्माण सामग्री आदि इकट्ठा करने में लगे। सही संरचनाओं के अभाव में यह नहर किसी काम नहीं आयी। इस नहर का अब कोई अता-पता नहीं मिलता है।

अप्रैल 1897 में बंगाल के तत्कालीन चीफ इंजीनियर कर्नल मैकआर्थर ने सोन अंचल के तत्कालीन सुपरिन्टेडिंग इंजीनियर मिस्टर बकली को इस योजना की जांच करके अपनी रिपोर्ट देने को कहा। 12 अप्रैल 1897 को दी गयी अपनी रिपोर्ट में मिस्टर बकली ने योजना को लाभदायक बताया और कहा कि इससे केवल रबी की सिचाईं न करके खरीफ के बारे में भी सोचना चाहिये और इसके लिए यह जरूरी होगा कि नहरों पर पक्की संरचनाएं बनायी जाएं और नहरों का विस्तार किया जाए ताकि एक बड़े क्षेत्र को सिंचाई की सुविधा मिल सके। पानी की लगातार उपलब्धता बनाये रखने के लिए उन्होंने नदी पर एक वीयर बनाने का भी प्रस्ताव किया।

चीफ इंजीनियर ने मिस्टर बकली के सारे प्रस्तावों से अपनी सहमति जतायी मगर नदी की धारा के सामने वीयर बनाने से उन्हें इत्तिफाक नहीं था। अब नया एस्टीमेट बनाने के लिए योजना को चंपारण कैनाल डिवीजन के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर मिस्टर बटलर के पास भेजा गया और बटलर ने जो योजना और जो एस्टीमेट बनाया उसकी राशि उन्होंने 9,09,154 रुपये बतायी जिसमें हेड-वर्क्स के साथ-साथ 16 किलोमीटर लम्बी मुख्य नहर शामिल थी और उसके साथ ही तीन साइफन, पुरानी धार पर एक एक्वीडक्ट, लखनदेई नदी पर एक वीयर, एक पुल-सह-रेगुलेटर और एक एस्केप चैनेल का निर्माण होना था। लगभग 80 किलोमीटर लम्बी वितरणियों और 88 किलोमीटर लम्बी छाड़न धाराओं का पुनरुद्धार भी इस योजना में शामिल था।

इस पूरी योजना को कलक्टर मिस्टर चैपमैन और कमिश्नर मिस्टर बोरडिलों के पास भेजा गया ताकि वह राहत कार्य के तौर पर किये जाने वाले इस निर्माण कार्य की आर्थिक समीक्षा कर सकें। इन दोनों ही अफसरों ने योजना से अपनी असहमति जतायी और सरकार ने काम आगे बढ़ाने का अपना इरादा बदल दिया। भारत के पहले सिंचाई आयोग (1903) ने इस बागमती परियोजना पर अपनी टिप्पणी की थी। उसका मानना था, ‘‘...फिर भी, ऐसा साफ झलकता है कि कोई बड़ी योजना बहुत ज्यादा फायदेमन्द नहीं हो पायेगी जबकि लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की राय थी कि अगर यह योजना केवल (सूखे से) सुरक्षा के लिए हाथ में ली जाती है तब इसके निर्माण के पक्ष में दिये गए तर्क कुछ ढीले पड़ जाते हैं। ...थोड़ी बहुत आपत्तियों के साथ हम भी इस राय का समर्थन करते हैं। हमारे (आयोग के) सामने जो कुछ भी दस्तावेज रखे गए हैं उनके मुताबिक इस योजना की लागत चालीस से पचास लाख रुपयों के बीच आयेगी जबकि इससे मिलने वाला कुल राजस्व डेढ़ लाख रुपये के आस-पास ही हो पायेगा। इसमें से भी एक लाख रुपये के करीब तो हर साल सिंचाई के लागत खर्च में ही शेष हो जायेंगे। अगर पूंजी निवेश पर 5 प्रतिशत वार्षिक ब्याज देना पड़े और निर्माण कार्यों के समय इतना तो लगता ही है, तब सालाना डेढ़ से दो लाख रुपयों के बीच हमेशा के लिए योजना पर खर्च करना पड़ जायेगा।

जिन वर्षों में बारिश कम होती है उनमें स्थानीय किसान इन नदियों पर बांध बना दिया करते हैं। यह बांध नदी की धारा के सामने बनते हैं और इनकी एक श्रृंखला का निर्माण किया जाता है। एक बांध द्वारा नहर की मदद से सिंचाई कर लेने के बाद उसे काट दिया जाता था और पानी नीचे के बांध में जाकर रुक जाता था। इस तरह पूरा क्षेत्र सिंचित हो जाता था। कहीं-कहीं इस नदी और लखनदेई पर पाइनों का निर्माण कर के पानी को काफी दूर तक पहुँचा दिया जाता था।

लम्बे समय से इस जिले में काम का अनुभव रखने वाले एक कलक्टर का कहना है कि जिन इलाकों में इस योजना से सिंचाई मिलेगी वहाँ योजना न बना कर सूखा पड़ने पर अगर राहत कार्य चलाने पड़ जाएं तो एक साल में उस पर खर्च 25,000 रुपयों से ज्यादा नहीं होगा। इस तरह की बातें केवल अनुमान के आधार पर कही जाती हैं लेकिन राहत कार्यों पर आने वाला खर्च अगर इस से ज्यादा नहीं होता है तब हमारे पास यह मान लेने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है कि इस तरह के खर्च में न पड़ा जाए जिसमें साल-दर-साल योजना पर डेढ़ से दो लाख रुपयों की चपत लगती रहे। लेकिन हमें यह बात भी आसानी से स्वीकार नहीं है कि एक ऐसी योजना जिससे डेढ़ से दो लाख एकड़ जमीन की सिंचाई संभव है उससे मिलने वाला सालाना औसत राजस्व डेढ़ लाख रुपयों से ज्यादा नहीं हो पायेगा और न ही प्रस्तावित 12 आने प्रति एकड़ का सिंचाई शुल्क ही हमें व्यावहारिक लगता है। बहुत मुमकिन है कि एक ऐसे जिले में, जहाँ एक औसत वर्षा वाले साल में किसान को सिंचाई की जरूरत ही नहीं पड़ती वहाँ इससे ज्यादा सिंचाई शुल्क की वसूली न हो सके... लेकिन 50 लाख रुपये लागत वाली इस योजना से अगर एक सूखे के वर्ष में 2,00,000 एकड़ भूमि पर निश्चित रूप से सिंचाई उपलब्ध करवायी जा सके तब इस योजना को मंहगी योजना नहीं कहा जा सकता।

एक निर्धारित समय के अन्दर अगर यह मुमकिन हो सके कि परियोजना से मिलने वाले कुल सालाना राजस्व को पूरे कृषि क्षेत्र में प्रति एकड़ 1 रुपया 4 आना सिंचाई शुल्क लगा कर ढाई लाख रुपयों के आस-पास पहुँचा दिया तब हमें जरूर लगता है कि इस योजना को निश्चित रूप से सिंचाई की सुरक्षा देने वाली योजना माना जा सकता है और तब तर्कसंगत मान कर योजना को भी स्वीकार करना पड़ेगा। इसलिए हम सिफारिश करते हैं कि योजना का विस्तृत एस्टीमेट तैयार किया जाए... हम इस बात से भी सहमत नहीं हैं कि 1896 में प्रस्तावित छोटी योजना के स्वरूप को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाए और हमारा मानना है कि इसका क्रियान्वयन जिला स्तर पर जरूर किया जाए। डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर मिस्टर डिजली का सुझाव भी यही है कि या तो अभी या जब भी राहत कार्यों के अधीन कोई काम करना हो, तब इसे पूरा कर लिया जाए।’’

लगभग इसी समय की मुजफ्फरपुर की सेटिलमेन्ट रिपोर्ट में जिले में होने वाली सिंचाई की काफी चर्चा है। रिपोर्ट कहती है, ‘‘... जहाँ तक सिंचाई का सवाल है उसके आंकड़े बहुत ही निराशाजनक हैं और अगर हाजीपुर परगने में सिंचाई को दरकिनार कर दिया जाए, जहाँ 8.6 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित होता है, तो पूरे जिले (उस समय का मुजफ्फरपुर) की सिंचाई का औसत एक प्रतिशत से भी कम रहता है। वह थाने जिनमें सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत जिले के सिंचित क्षेत्र के औसत एक प्रतिशत से ज्यादा है उनमें हाजीपुर 8.6 प्रतिशत, महुआ 3.2 प्रतिशत, मुजफ्फरपुर 2.1 प्रतिशत और पुपरी 3 प्रतिशत शामिल हैं। ...हाजीपुर में उपलब्ध सिंचाई का ही यह परिणाम है कि वहाँ की कृषि पर बारिश की कमी का कोई असर नहीं होता और उस इलाके में बहुत ज्यादा खुशहाली देखने को मिलती है।’’

रिपोर्ट आगे कहती है कि सीतामढ़ी में सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत केवल 0.4 है और यह सारा क्षेत्र पुपरी के आस-पास की निचली धान की जमीन का क्षेत्र है। इसके अलावा केवल मुजफ्फरपुर थाने का क्षेत्र ही ऐसा है जहाँ कुछ सिंचाई होती है और इसका प्रतिशत 2.1 होता है। इस थाने की जमीन 13 परगनों पर फैली हुई है। रेवेन्यू सर्वेक्षण की रिपोर्टों के अनुसार चकला नईं को छोड़ कर कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ लोग सिंचाई करते हों और यह सिंचाई भी सब्जी उगाने और पान की खेती के लिए ही की जाती है। इन इलाकों में काम करने वाले सहायक सेटिलमेन्ट अफसरों का मानना है कि इन थानों में सिंचाई के विकास की गति बहुत धीमी है। ...शिवहर थाने के अंचल की एक टिप्पणी में बाबू नन्द किशोर लाल, सहायक सेटिलमेन्ट अफसर का कहना था, ‘‘...यहाँ पर सिंचाई व्यवस्था का रिकार्ड रखने वाला कोई रजिस्टर नहीं है। अगर कभी सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है तब किसान अपनी कुछ जमीन कुओं और तालाबों के माध्यम से सींच लेते हैं।’’

बेलसंड के अधिकारी बाबू भबतारण चटर्जी का मानना था कि, ‘‘...इस अंचल में सिंचाई मुख्यतः तालाबों के माध्यम से होती है और ये तालाब यहाँ बड़ी संख्या में मौजूद हैं। यह सिंचाई उसी जमीन पर हो पाती है जो इन तालाबों के पास हैं। बाकी जमीन पर सिंचाई वर्षा पर ही निर्भर करती है।’’ पारू थाने के अधिकारी बाबू माखन लाल चटर्जी लिखते हैं कि, ‘‘...नियमतः इस इलाके में कोई सिंचाई होती ही नहीं है। तीन बड़ी नदियों को छोड़ कर यहाँ बड़ी संख्या में कुएं मौजूद हैं लेकिन उनका उपयोग सिंचाई में नहीं होता। किसानों के बीच यह आम धारणा है कि जिस तरह की मिट्टी इस इलाके में मौजूद है उस पर सिंचाई करने से फसल को फायदे की जगह नुकसान पहुँचता है और यह मान्यता उन सारे किसानों की है, चाहे वे पढ़े लिखे हों या अशिक्षित ही क्यों न हों।’’

रिपोर्ट के अनुसार कुओं का इस्तेमाल आमतौर पर पीने के पानी के लिए ही होता था। अगर यह कुआँ गाँव के बीच स्थित हो तब तो उससे वैसे भी सिंचाई का कोई सवाल नहीं उठता। सीतामढ़ी के उत्तरी क्षेत्र में जो 3.4 प्रतिशत सिंचित भूमि की बात कही जाती थी वह सिंचाई मुख्यतः सीतामढ़ी, पुपरी, बेलसंड, कटरा और मुजफ्फरपुर थानों में पाइनों के माध्यम से होती थी। जिले के उत्तरी क्षेत्रों में आहर और पाइन जैसी कोई व्यवस्था निश्चित रूप से कारगर हो सकती थी जैसा कि दक्षिण में गया में मौजूद है मगर इसकी इस इलाके में जरूरत ही नहीं पड़ती। जो कुछ भी सिंचाई यहाँ होती थी, वह तालाबों के माध्यम से हो जाती थी।

सेटिलमेन्ट रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इस इलाके की जमीन बहुत उपजाऊ है तथा उसमें नमी को रोक रखने की अद्भुत क्षमता है जिसकी वजह से किसानों को सिंचाई के फायदे को समझने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती। मुजफ्फरपुर के दक्षिणी भाग के हाजीपुर, महुआ, लालगंज, पारू और मुजफ्फरपुर थानों में तो जो भी सिंचाई होती है वह ज्यादातर कुओं से होती है और उसका प्रतिशत 78 के नीचे नहीं जाता मगर सीतामढ़ी, शिवहर, पुपरी, बेलसंड और कटरा जैसे थानों में तो कुओं से होने वाली सिंचाई 15 प्रतिशत के ऊपर नहीं जा पाती। पुपरी में कुओं की स्थिति का वर्णन करते हुए बाबू चारु चन्द्र कुंअर का कहना था, ‘‘...जहाँ तक कच्चे कुओं से सिंचाई का सवाल है तो मैं यह कहूँगा कि इस इलाके में यह असफल हुआ है। यह सच है कि यहाँ जमीन के 6 से 10 फुट नीचे पानी मिल जाया करता है मगर इस पूरे क्षेत्र में जमीन की निचली सतह में बालू है और उसकी वजह से कुओं की दीवारों को ढहते देर नहीं लगती। इससे बचने के लिए लोग चटाइयों या बांस की अस्थाई लाइनिंग कर देते हैं पर उससे भी कोई फायदा नहीं होता है।’’

पक्के कुएं इसका एक विकल्प हो सकते थे मगर इस पूरे इलाके की जमीन नीची है और पूरे इलाके में छोटी-छोटी नदियों का जाल बिछा होने के कारण जमीन बाढ़ में अक्सर डूब जाती थी जिससे कुएं भी पट जाते थे। यह भौगोलिक परिस्थिति सिंचाई के लिए कुओं को अव्यावहारिक बना देती थी। गाँव के बाहर बना कुआँ चाहे वह कच्चा हो या पक्का, देख-रेख की कमी से हमेशा खतरे में ही पड़ा रहता था।

पुपरी थाने में जिस 78 प्रतिशत सिंचाई की बात की जाती थी उसका मुख्य कारण अधवारा समूह की नदियाँ थीं जिनसे सीतामढ़ी थाने के कुछ क्षेत्रों की सिंचाई होती थी। इस व्यवस्था के बारे में पुपरी अंचल के अधिकारी बाबू चारु चन्द्र कुंअर का कहना था, ‘‘... अपनी बहुत सी छोटी-छोटी सहायक धाराओं के साथ अधवारा नदी इस क्षेत्र के पश्चिमी और उत्तर पश्चिमी हिस्से की सिंचाई करती है। जिन वर्षों में बारिश कम होती है उनमें स्थानीय किसान इन नदियों पर बांध बना दिया करते हैं। यह बांध नदी की धारा के सामने बनते हैं और इनकी एक श्रृंखला का निर्माण किया जाता है। एक बांध द्वारा नहर की मदद से सिंचाई कर लेने के बाद उसे काट दिया जाता था और पानी नीचे के बांध में जाकर रुक जाता था। इस तरह पूरा क्षेत्र सिंचित हो जाता था। कहीं-कहीं इस नदी और लखनदेई पर पाइनों का निर्माण कर के पानी को काफी दूर तक पहुँचा दिया जाता था।’’ कुछ इसी तरह की व्यवस्था के बारे में राम दरेस राय ने लेखक को बताया था।

इन सारी कोशिशों और पृष्ठभूमि को देखते हुए इतना तो जरूर लगता है कि ब्रिटिश शासन बागमती नदी से सिंचाई के विकास के लिए उत्सुक था मगर यह काम वह पूरी तरह ठोंक-बजा कर करना चाहता था। उनके खर्चों में निर्माण में लगी पूंजी, उस पर लगने वाला ब्याज, रख-रखाव का खर्च तथा कर्मचारियों की तनख्वाह आदि का व्यय शामिल था। यदि कोई योजना इन शर्तों को पूरा नहीं करती थी तो उस योजना के प्रति उनका आग्रह बहुत कम रहता था। वे इस बात से भी परेशान रहते थे कि साधारण वर्षा वाले साल में किसान नहरों से पानी नहीं लेंगे और अगर वे पानी नहीं लेंगे तो पैसा भी नहीं देंगे। ऐसी हालत में योजना का खर्च बट्टे खाते में चला जायेगा। शायद यही वजह रही हो कि अंग्रेजों ने बाद के दिनों में योजना में कोई रुचि नहीं दिखायी।

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Post By: tridmin
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