ब्रह्मपुत्र को बचाने का नजरिया नदी घाटी की अवधारणा पर आधारित होना चाहिए न कि संकीर्ण राष्ट्रीय हितों पर, जिनके चलते भारत और चीन की सरकारें अपनी जनता की राय के प्रति अंधी हो चुकी हैं। चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा के बाद की स्थिति में भारत, चीन और विशेषकर बांग्लादेश में पर्यावरण पर काम करने वाले समूहों के लिए सबसे ज्यादा चिंताजनक और ध्यान देने वाले सवाल त्सांगपो-ब्रह्मपुत्र पर चीन द्वारा बनाए जा रहे बांध और ब्रह्मपुत्र की मुख्यधारा तथा उसकी 39 उपधाराओं के लिए भारत सरकार के मास्टर प्लान के संदर्भ में पैदा हो रहे हैं। दोनों देशों की सरकारों की योजना त्सांगपो-ब्रह्मपुत्र को किस्तों में मार देने की है। दुनिया की इन दोनों सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताओं के बीच हितों का टकराव पहले भी होता रहा है और ऐसा लगता है कि वे दोबारा ऐसा करने की तैयारी में हैं। चीन की ही तरह भारत के मास्टर प्लान में भी भंडारण बांधों और तटबंधों की परिकल्पना की गई है। ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों पर बड़े बांधों के निर्माण का विरोध पर्यावरण समूह और प्रभावित समुदाय पहले से ही करते आ रहे हैं। तिब्बत के पठार पर पहला मेगा हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट बताया जाने वाला जांगमू प्रोजेक्ट चीन सरकार का है जिसके तहत 85 मेगावाट की छह बिजली उत्पादन इकाइयों को लगाया जाना है। चीन की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में तिब्बत के लिहाज से यह निर्णायक परियोजना है। तिब्बत के इस इलाके में ब्रह्मपुत्र पर मध्यम आकार के पांच बांध बनाने की योजना चीनी सरकार की है।
चूंकि 510 मेगावाट के जांग्मू पावर स्टेशन पर निर्माण चालू हो चुका है, लिहाजा इसका पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) एक औपचारिकता ही होगा। इस बारे में चीन की सरकार ने भारत के साथ कोई ठोस जानकारी साझा नहीं की है। नतीजतन, भारत सरकार भी इस पर कुछ विनम्र किस्म की चिंताएं ही उठा रही है और बदले में उसे कूटनीतिक आश्वासनों के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगा है। भारत की संसद में यह मसला उठ चुका है। राज्यसभा में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने कहा था, ‘मैं जब चीनी विदेश मंत्री से मिला तो ब्रह्मपुत्र पर जांग्मू में बनाई जा रही पनबिजली परियोजना का मसला उठा। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि यह छोटा सा बांध है और इसका असर उत्तर-पूर्वी भारत में नदी की निचली धारा पर नहीं पड़ेगा।’ ध्यान रहे कि चीन के चाइना गेझुबा कॉरपोरेशन को इस परियोजना के निर्माण का ठेका अप्रैल 2009 में ही मिल चुका था, लेकिन अप्रैल 2010 में एक साल बाद चीनी विदेश मंत्री यांग जीची ने आधिकारिक तौर पर इसका खुलासा किया। दूसरी ओर अरुणाचल प्रदेश के ऊर्जा मंत्री जाब्रोन गामलिन कहते हैं, ‘चीन द्वारा बांध का निर्माण हमारे लिए चिंता की बात है, लेकिन हम पक्के तौर पर यह नहीं जानते कि बांध कितना बड़ा है और नीचे रह रहे लोगों पर इसका असर क्या होगा।’
ब्रह्मपुत्र, जिसे चीन में त्सांगपो कहते हैं, चीन, भारत और बांग्लादेश से होकर बहती है। तिब्बत से यह अरुणाचल में प्रवेश करती है जहां इसे दिहांग कहते हैं। असम घाटी में यह ब्रह्मपुत्र बनती है और दक्षिण में बांग्लादेश में इसे जमुना कहते हैं। यहां गंगा से मिलकर सुंदरबन डेल्टा का निर्माण करती है। बांग्लादेश में गंगा के साथ विलय के बाद यह दो धाराओं में फूटती है, पद्मा और मेघना। इस इलाके में सिंचाई और परिवहन के लिहाज से यह काफी महत्वपूर्ण है। भारत सरकार ने पहली बार 1986 में ब्रह्मपुत्र के लिए मास्टर प्लान बनाया था जिसे जल संसाधन मंत्रालय ने 1995 में कुछ संशोधनों के बाद 1997 में पारित कर दिया। इसके तहत उत्तर-पूर्वी भारत में कुल 168 बांध प्रस्तावित हैं। इस मास्टर प्लान के अलावा मंत्रालय के तहत ब्रह्मपुत्र बोर्ड ड्रेनेज विकास योजनाओं और बहुउद्देश्यीय योजनाओं पर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करता है। इन परियोजनाओं में लोहित की सहायक नदी नोओ-देहिंग, गारो पहाडिय़ों से निकलने वाली सिमसांग, खासी से निकलने वाली जादूकाटा, कुलसी आदि पर परियोजनाएं शामिल हैं। इन सभी परियोजनाओं के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश है।
सवाल उठता है कि ब्रह्मपुत्र पर चीन सरकार द्वारा बनाए जा रहे बांधों को लेकर चिंता यदि सही है (जिसमें तिब्बतियों की राय की कोई जगह नहीं) तो क्या भारत द्वारा इस नदी पर बनाए जाने वाले बांध बांग्लादेश को प्रभावित नहीं करेंगे? खबर है कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सचिवों की एक कमेटी ब्रह्मपुत्र के पानी को मोडऩे के मसले और जांग्मू परियोजना पर निगाह रखे हुए है। इसके उलट केंद्रीय ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे का बयान देखें- ‘मुझे नहीं पता कि चीन ब्रह्मपुत्र पर कोई बांध बना रहा है, इसलिए इस पर प्रतिक्रिया का कोई अर्थ नहीं।’ दूसरी ओर जब हम एस.एम. कृष्णा द्वारा असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को लिखा आश्वासन का पत्र देखते हैं जिसमें जांग्मू पर उनकी चिंताओं को गलत बताया गया है, तो पता चलता है कि सरकार के भीतर ही इस मसले पर कितना भ्रम है।
इससे पहले मई 2010 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश ने अपनी बीजिंग यात्रा में कहा था, ‘भारत में सबसे बड़ा डर इस बात को लेकर है कि चीन अपने बंजर दक्षिण-पश्चिमी इलाके की सिंचाई के लिए ब्रह्मपुत्र का पानी मोड़ देगा जिससे भारत पर असर पड़ेगा। यह भारत को राजनीतिक और पारिस्थितिकीय दोनों ही स्तरों पर अस्वीकार्य होगा। हां, यदि परियोजना भंडारण या पानी को मोडऩे के लिए नहीं है और नदी की धारा को बनाए रखती है, तब चिंता की कोई बात नहीं है।’ ठीक यही बात भारत की प्रस्तावित राष्ट्रीय पनबिजली परियोजनाओं और बिहार में नदी जोड़ परियोजना के लिए भी सही ठहरती है। इन चिंताओं और अरुणाचल में लोगों के विरोध की अनदेखी करते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय ने पर्यावरण और वन मंत्रालय से इन परियोजनाओं को मिलने वाली पर्यावरणीय मंजूरी में हो रही देरी पर सफाई मांगी है। वहीं अरुणाचल के मुख्यमंत्री दोरजी खांडू ने व्यापक राष्ट्रीय हित में मंजूरियों की प्रक्रिया तेज किए जाने की बात की है, जबकि अरुणाचल द्वारा मंजूर किए गए पहले और अब तक के इकलौते बड़े बांध निर्माण की स्थिति ऐसी नहीं है जो किसी भी तरह की उम्मीद जगा सके। गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश सरकार ने ब्रह्मपुत्र घाटी में पनबिजली विकास के लिए कुल 78 परियोजनाएं मंजूर की हैं। जो इकलौता बांध अब तक बन कर तैयार है, वह है 405 मेगावाट का रंगनदी हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट-1, जिसे 2002 में मंजूरी दी गई थी। इसके बनने के बाद नदी में जल का प्रवाह बेहद कम हुआ है, मछलियां पूरी तरह समाप्त हो गई हैं और कृषि भूमि पर भी बुरा असर पड़ा है क्योंकि गांव वालों ने नदी का पानी खेतों तक पहुंचाने के लिए जो चैनल बनाए थे, वे सब सूख गए हैं। नदी के किनारे बागवानी पूरी तरह खत्म हो चुकी है जो यहां के लोगों की आजीविका का महत्वपूर्ण स्रोत थी। जिस नदी को लोग पहले बहुत प्यार करते थे, आज बांध के कारण उसके असंतुलित प्रवाह से उन्हें डर लगता है।
ब्रह्मपुत्र को बचाने का नजरिया नदी घाटी की अवधारणा पर आधारित होना चाहिए न कि संकीर्ण राष्ट्रीय हितों पर, जिनके चलते भारत और चीन की सरकारें अपनी जनता की राय के प्रति अंधी हो चुकी हैं। इस नदी की चरणों में हत्या करने से बेहतर होगा कि दोनों देश इसे बचाने के लिए एक संयुक्त अध्ययन करवाएं।
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