ब्रह्मपुत्र की धरती

गुवाहाटी अपनी प्राकृतिक सुषमा और तीर्थस्थलों के लिए प्रसिद्ध है। ब्रह्मपुत्र नदी तो जैसे इस क्षेत्र की प्राणरेखा हो। वहां से लौट कर अपने तीर्थाटन और पर्यटन अनुभवों को साझा कर रही हैं सरिता शर्मा।

ब्रह्मपुत्र में जल का विस्तार देखकर लगता था उसके पार कुछ भी नहीं है। मौसम सुहाना हो गया था। थोड़ी देर में नदी के बीचों बीच पीकॉक द्वीप पर स्थित उमानंद मंदिर आ गया। मान्यता है कि शिव की आराधना में खलल डालने के कारण कामदेव को भस्म हो जाने का श्राप मिला था, जिसकी वजह से इस पर्वत का नाम भस्मशाला पड़ा।

ब्रह्मपुत्र नदी की लहरें हों या कामख्या देवी का रहस्य जो एक बार गुवाहाटी हो आए उसे नदी पार घने जंगलों से आती हवा में घुली आवाजें लगातार पुकारती रहती हैं। गुवाहाटी शहर महाभारत काल में नरकासुर की राजधानी ‘प्राग्ज्योतिषानंद’ कहलाता था जिसका अर्थ ‘पूर्वी ज्ञानोदय का नगर’। काम के देवता कामदेव का जन्मस्थल होने की वजह से इसका एक नाम कामरूप भी है। चीनी यात्री हुएनसांग ने गुवाहाटी का जिक्र किया है। यह मेरी गुवाहाटी की दूसरी यात्रा थी। पहली बार गई थी तो जल्दबाजी थी।

पहली बार गई थी तब हम तीन सहेलियां थीं। इस बार भी हम तीन थे- मैं, पिताजी और बहन उमा। हमारे ठहरने की व्यवस्था पान बाजार के फ्लाईओवर से सटे होटल में थी। खुली लिफ्ट में तीसरी मंजिल के अपने कमरे में जाते हुए और कमरे की बाल्कनी से पुल पर गुजरते वाहन शहर को गतिमान बनाते हुए नजर आते थे और कुछ दूर रेल की सीटी माहौल को गुंजायमान रखती थी। वहां से ब्रह्मपुत्र नदी तक जाने में सिर्फ दस मिनट लगते हैं। उमा का जन्मदिन भी था सो हमने उस दिन सिर्फ मंदिर देखने का कार्यक्रम बनाया। हम सबसे पहले कामाख्या देवी के दर्शन के लिए गए। नीलांचल हिल पर स्थित दसवीं शताब्दी में बना यह मंदिर असम की व्याकुलता का सुंदर नमूना है, जिसका गुंबद मधुमक्खियों के छत्ते जैसा दिखता है। इसे दुनिया के प्रसिद्ध तांत्रिक मंदिरों में से एक माना जाता है। इसकी बाहरी दीवारों पर जन-जीवन के चित्र उभारे गए हैं।

मंदिर के अंदर एक कोने में प्रस्तरखंड पर यौनाकृति अंकित है। गुफा के अंदर एक रहस्यमयी प्राकृतिक झरने से इस आकृति पर तलृरलता बनी रहती है जिस पर दर्शनार्थी फूल और बेलपत्र चढ़ाते हैं। इस मंदिर के बारे में कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। कहा जाता है कि सती (पार्वती) ने अपने पिता द्वारा भगवान शिव का अपमान किए जाने पर हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी थी। भगवान शिव वहां पहुंचे तब तक सती का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का शरीर आग से निकाला और तांडव नृत्य आरंभ कर दिया। देवताओं ने उनका नृत्य रोकने के लिए भगवान विष्णु से आग्रह किया। भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए। भगवान शिव जब मृत पार्वती को लेकर चारों ओर घूम रहे थे तो उनकी जननेंद्रिय इस स्थल पर गिरी और यह पर्वत बिल्कुल नीला पड़ गया। पुराणों में इस प्रसंग का भी जिक्र है कि इस पर्वत पर शिव-पार्वती संग राग रचाते थे।

मंदिर के बाहरी हिस्से में देवी को खुश करने के लिए पशुओं की बलि चढ़ाने की प्रथा है। हम शाकाहारी हैं... हमें पुजारी ने बाहरी भाग में बनी मूर्ति के दर्शन कराके भेज दिया था। इस बार समय बचाने के लिए वीआईपी टिकट लिया ताकि मंदिर की परिक्रमा किए बिना सीधे गर्भगृह पहुंचा जा सके। मंदिर की सीढ़ियों पर भिखारियों की भीड़ लगी हुई थी। सस्ते टिकट लेकर मंदिर की परिक्रमा करने वाले श्रद्धालुओं की बहुत लंबी लाइन लगी हुई थी। उन्हें देवी के दर्शन करने के लिए कई घंटे तक धीरे-धीरे सरकने वाली परिक्रमा करनी पड़ती है। गर्भगृह जाने के लिए टूटी-फूटी सीढ़ियां बनी हुई थीं जिनमें भक्तों की धक्का-मुक्की चल रही थी। हमने नीचे उतरकर जलमग्न प्रतिमा के दर्शन किए, दीया जलाया और फूल चढ़ाए। अंधेरे, घुटन और सीलनभरी उस जगह पर दो मिनट रुकना भी दूभर था। बाहर निकल कर चैन की सांस ली। पंक्ति तोड़कर दर्शन कराने वाले पुजारी मनमानी दक्षिणा लेते हैं।

हमारा अगला पड़ाव तिरुपति बालाजी के मंदिर का था। इसका प्रमुख प्राचीन मंदिर तिरुपति में है। गुवाहाटी में बेलतोला में बना यह मंदिर पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र के तीर्थ यात्रियों के लिए स्थापत्य कला का अनोखा नमूना है। यहां गणेश, बालाजी, देवी दुर्गा की मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं। गुवाहाटी के प्राचीन मंदिरों के बीच बना यह भव्य मंदिर अपने शिल्प और विशाल उद्यान से गुवाहाटी भ्रमण को यादगार बना देता है। यहां घूमते हुए लगता है जैसे हम दक्षिण भारत पहुंच गए हैं। इसके बाद हम वशिष्ठ आश्रम की ओर चल दिए। आश्रम में स्थित वशिष्ठ मुनि की आदमकद प्रतिमा ऐसी जान पड़ती है मानो उनकी आत्मा अब भी आसपास विद्यमान है। हमें जहां जाना होता है उसके साथ कोई न कोई संबंध तो जरूर होता है। वर्ना एक जगह एक बार ही जाना हो पाता है। हमें पिछली यात्रा में इस आश्रम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। ब्रह्मपुत्र नदी, कामाख्या देवी के साथ-साथ गुरु वशिष्ठ ने भी हमें आमंत्रित किया होगा। इसके बाद हम गुवाहाटी से शिलांग के रास्ते पर बने हुए साईं बाबा के मंदिर में गए। सड़क किनारे बना यह छोटा सा मंदिर साई बाबा की तरह बहुत शांत और सुकूनभरा है। होटल लौटकर दिन भर की थकान मिटाने के बाद हमने रात को उमा का जन्मदिन मनाया।

अगला दिन ब्रह्मपुत्र नदी पर क्रूज के नाम था। पिछली बार शाम के वक्त घंटे भर के क्रूज में नाव को रोककर थोड़ी देर में पानी के बीच खड़ा कर दिया गया था और फिर हम लौट आए थे। नाव पर पचासों लोगों की भीड़ में अंधेरे और धुंधलके के कारण कुछ भी साफ नजर नहीं आ रहा ता। अबकी बार हमने दिन के समय क्रूज किया जिससे नदी और आसपास की जगहों का नजारा देखा जा सके। एक छोटा सा जहाज, जिसमें पिताजी, उमा, मैं थी। हमने जहाज पर उतरकर उसके हर केबिन में घूम कर देखा। टाइटेनिक फिल्म के सभी दृश्य जीवंत होने लगे। पानी के अंदर एक छोटी सी बस्ती बस गई थी जिसमें रसोईघर, बार, गोल्फ रूम और जरूरत की सब चीजें मौजूद थीं।

हमने लौटकर नाश्ता किया। डेक पर केन के सोफे पर बैठकर खुले आसमान के नीचे अपनों के बीच क्रूज करना अनूठा अनुभव था- हेमंत कुमार का गाना- ‘लहरों पे लहर’ मन में गूंजने लगा था। जल की तरंगें मन की तरंगों को झंकृत करती रहीं। बरसात हो या नदी-जल बहुत आकर्षित करता है। ब्रह्मपुत्र में जल का विस्तार देखकर लगता था उसके पार कुछ भी नहीं है। मौसम सुहाना हो गया था। थोड़ी देर में नदी के बीचों बीच पीकॉक द्वीप पर स्थित उमानंद मंदिर आ गया। मान्यता है कि शिव की आराधना में खलल डालने के कारण कामदेव को भस्म हो जाने का श्राप मिला था, जिसकी वजह से इस पर्वत का नाम भस्मशाला पड़ा इस ऐतिहासिक मंदिर का निर्माण अहोम राजा गदाधर सिंह ने किया था। मंदिर की दीवारों पर पहाड़ की चट्टानों को काट कर उभारे गए देवी-देवताओं की मूर्तियों में असमी कला के दर्शन होते हैं।

मंदिर के अंदरूनी परिसर का निर्माण काले, सफेद और लाल पत्थरों से किया गया है। सोमवार के दिन मंदिर में दर्शन के लिए आने वाले लोगों का तांता लगा रहता है। मंदिर से उतरकर हम फिर से क्रूज पर गए।

सामने एक द्वीप दिखाई दिया था जहां लोग रेतीली जमीन पर तंबू गाड़कर पार्टी कर रहे थे। उड़ती हुई धूल देखकर हमने द्वीप पर न उतर कर वापसी की यात्रा शुरू कर दी। हवा के झोंके थपकियां दे रहे थे। ब्रह्मपुत्र नदी और मंदिरों ने मन पर अमिट छाप छोड़ दी। ब्रह्मपुत्र नदी की लहरो पर सफर की यादें हमारे साथ आ गईं।

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