ब्रह्मपुत्र घाटी दो समान्तर पर्वत शृंखलाओं- अरुणाचल प्रदेश और उत्तर में भूटान वाली पूर्वी हिमालय शृंखला और मेघालय, उत्तरी कछार और दक्षिण में नागालैंड वाली पूर्वोत्तर पर्वतीय शृंखला- के बीच अवस्थित है। इस घाटी का जो हिस्सा असम में आता है उसे तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है- ग्वालपाड़ा और कामरूप जिलों वाला पश्चिमी भाग; दरांग और नौगाँव जिलों वाला मध्यवर्ती भाग तथा लखीमपुर, डिब्रूगढ़ और सिबसागर जिलों वाला पूर्वी भाग। पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले का कुछ भाग भी तीस्ता नदी से कटकर इसी ब्रह्मपुत्र घाटी का हिस्सा बनता है।
1. जलपाईगुड़ी
पहाड़ियों से निकलने वाले सोतों से मैदानी इलाकों में सिंचाई करने और जल संचित करने की परम्परा बहुत पुरानी है। शुरुआती गजेटियरों से पता चलता है कि जलपाईगुड़ी के पश्चिमी दुआर इलाके में कृत्रिम व्यवस्थाओं से सिंचाई बहुत आम थी। यहाँ काफी सारी नदियाँ और सोते हैं। पानी का उपयोग अमन धान की सिंचाई में होता था। किसान सोतों से छोटी-छोटी नालियों में पानी मोड़ लेते थे, जिन्हें स्थानीय लोग जाम्पोई कहते थे। पर दुआर की नदियाँ अक्सर अपनी दिशा बदल देती थीं, इसलिये इन जलमार्गों पर सदा नजर रखनी होती थी।1
19वीं सदी के मध्य में इन नालियों को दुंग कहा जाता था, पर बाद में जाम्पोई कहा जाने लगा। जिले में सिंचाई के मुख्य स्रोत यही थीं।2 उत्तर बंगाल के अनेक हिस्सों की मिट्टी भुरभुरी होने और नदियों-सोतों के मार्ग बदलते रहने के चलते कोई बड़ी नहर या जलमार्ग बनाना सम्भव नहीं था। नदियों के अपनी दिशा बदलने या उनमें आने वाले पानी की मात्रा अचानक बहुत बढ़ने या घटने के असंख्य उदाहरण हैं। वर्तमान तीस्ता और अन्य नदियाँ ही न जाने कितनी बार अपनी दिशा बदल चुकी हैं और इससे लोगों को काफी परेशानी भी उठानी पड़ी है। ऐसा सबसे बड़ा बदलाव 1770 के दशक में हुआ। तब तक तीस्ता 240 किमी तक अकेली बहती थी और गंगा के समान्तर चलती थी। इसका आकार भी काफी बड़ा था, अटराई जलमार्ग से यह पुनरभाबा, कारोटोया और गंगा को भी पानी देती थी। जब बाढ़ बहुत ज्यादा हो तब गंगा का पानी तीस्ता में भी आ जाता था और तीस्ता इस जल को ब्रह्मपुत्र में छोड़ देती थी। यह पानी एक पुराने, लेकिन खाली पड़े जलमार्ग से होकर निकलता था। 1787 की भयंकर बाढ़ के समय तीस्ता अटराई जलमार्ग से काफी दूर चली गई और उसने उसी पुराने जलमार्ग वाला रास्ता पकड़ लिया। अब उसका पानी बहुत कम दूरी तय करके ही ब्रह्मपुत्र में जा गिरता है। इस बदलाव के बाद उत्तर बंगाल की अधिकांश नदियों को उसका पानी नहीं मिलता। इससे उनका पुराना मार्ग चाहे जितना बड़ा और चौड़ा हो, इन नदियों को उनके अनुरूप पानी ही नहीं मिलता।
पहले उत्तर बंगाल की नदियों का आकार बहुत बड़ा था। उनका प्रवाह बहुत तेज था और वे अक्सर ऊँचे-ऊँचे बाँधों के बीच से गुजरती थीं। आमतौर पर इन बाँधों पर जंगल उगे होते थे, जिससे उसे अतिरिक्त मजबूती मिला करती थी। लेकिन जलपाईगुड़ी जिले की सेटलमेंट रिपोर्ट (1906-16) बताती है कि 19वीं सदी में और 20वीं सदी के शुरू में कहीं भी जंगलों-पेड़ों को बाँधों पर न रहने देकर बहुत बड़ा नुकसान किया जा चुका है। एकमात्र जंगल ही इन बावली नदियों के मनचाहे प्रवाह पर रोक लगा पाने में सक्षम थे।
पेड़ों के हट जाने से नदियाँ ‘आजाद’ हो गईं और जहाँ मन होता है मुड़ जाती हैं और बर्बादी ढाती जाती हैं। इनके साथ ही अब स्थायी जलमार्ग या नहरें नहीं बन सकतीं और न बाँध डाले जा सकते हैं। जाम्पोई कई स्थायी ढाँचा नहीं है और बाढ़ इसके आकार-गहराई को बढ़ा-घटा भी देती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब नदियों की धार जाम्पोई होकर ही निकल पड़ती है और उसका पुराना पूरा रेत भरा मार्ग यूँ ही खाली छूट जाता है। उत्तर बंगाल में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, पर इनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शुरू में हुई किसी गलती, चाहे वह छोटी ही क्यों न हो, का खामियाजा कितने समय तक और कितने लोगों को भुगतते रहना पड़ता है।
यह गड़बड़ छोटे किसानों, चाय बागानों के मैनेजरों और बड़ी जमीन के जोतदारों सभी ने की। चाय बागानों और बड़ी जोतों के पास से गुजरने वाली नदी के बाँधों पर ये अमीर लोग हर साल नई मिट्टी डलवाते थे। एक तरफ तटबन्ध ज्यादा मजबूत हो तो पानी दूसरी तरफ भागेगा ही। सो, अमीर किसानों, बागान मालिकों की जमीन तो बच गई, पर छोटे किसान मारे गए। 20वीं सदी के शुरू में बंगाल की जमीन की उत्पादकता में भारी गिरावट आई।2
2. असम घाटी
सन 1909 में प्रकाशित असम इंपीरियल गजेटियर से पता चलता है कि असम घाटी के कुछ इलाकों में कृत्रिम सिंचाई की परम्परा काफी पुरानी है। ब्रह्मपुत्र घाटी के पश्चिमी हिस्से में स्थित ग्वालपाड़ा जिले के पूर्वी दुआर इलाके में ही कृत्रिम सिंचाई का चलन था। यह क्षेत्र पहाड़ियों के पास था और यहाँ घना जंगल था। पूर्वी दुआर के खेतों में लगने वाले धान की फसल की सिंचाई जरूर होती थी। किसान मिलजुलकर जलमार्गों का निर्माण करते थे, जिनकी लम्बाई कई-कई किलोमीटर तक भी हो जाती थी। इनसे उनके खेतों तक पानी पहुँचता था। सरकार की तरफ से सिंचाई के किसी साधन का निर्माण नहीं कराया जाता था।4 इसी प्रकार कामरूप जिले में कृत्रिम सिंचाई की एकमात्र व्यवस्था कचारी गाँव के लोगों द्वारा खोदी गई छोटी नहरें ही थीं। ऐसे कई जलमार्ग तो कुछ मीटर ही चौड़े होते थे, पर वे कई किलोमीटर दूरी तक के खेतों की सिंचाई करते थे। इनसे 1,000 से 1,500 हेक्टेयर तक जमीन की सिंचाई हो जाती थी। इनका निर्माण गाँव के लोग बिना किसी सरकारी मदद के खुद कर लिया करते थे।
ब्रह्मपुत्र घाटी के मध्यवर्ती भाग में भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। दरांग और नौगाँव जिलों के सिर्फ उन्हीं खेतों में सिंचाई की जाती थी जो पहाड़ियों के ठीक नीचे थे। इसके मैदानी हिस्से में सिंचाई की कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि यहाँ खूब बरसात होती है और जमीन काफी नीची है।4 ब्रह्मपुत्र घाटी के पूर्वी हिस्से में भी इतनी बरसात होती है कि पहले लोग यहाँ अलग से सिंचाई की व्यवस्था करना बेमानी मानते थे। उनकी खेती को सूखे से नहीं, बाढ़ से खतरा था।
राज्य के कुछ हिस्सों, खासकर गोलाघाट, सिबसागर और जोरहाट में पोखर खोदने का रिवाज था, पर इनका पानी पीने और घरेलू कामों में ही प्रयोग किया जाता था। सिबसागर के प्रसिद्ध शिव मन्दिर के पास दो प्रसिद्ध तालाब हैं। एक ऐसा ही बड़ा पोखर शहर से 3 किमी दूर है, जिसे जैसागर कहते हैं। इन पोखरों का निर्माण असम के नामी अहोम राजाओं ने कराया था और निर्माण कराने वाले के नाम से ही पोखरों को भी जाना जाता है।
घाटी में थोड़ी ज्यादा ऊँचाई पर रहने वाले बोडो आदिवासी लोग खास तरह के पोखर बनाने में माहिर थे, जिन्हें वे डोंग कहते थे। इनमें संचित होने वाला पानी सितम्बर से नवम्बर तक खेतों को सींचने में काम आता था। तालाब से पानी लाहोमी नामक उपकरण से उठाया जाता था, जो लम्बे हत्थे वाला होता है। लोग पोखरों का निर्माण कराते थे और इस पर उनका स्वामित्व होता था। इनकी खुदाई और रखरखाव में सामुदायिक भागीदारी नहीं होती थी।
असम घाटी में ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के किनारे-किनारे काफी सारे चंवर-चांचर हैं। इनमें नदियों की बाढ़ का पानी जमा हो जाता है। जब बाढ़ का पानी घटता है तब इनके अन्दर ही धान की खेती की जाती है।
Path Alias
/articles/barahamapautara-ghaatai
Post By: Editorial Team