टिप्पणी
नदी जोड़ एक विवादित परियोजना है। नदी जोड़ विनाश लाने और कर्ज बढ़ाने वाली योजना तो साबित होगी ही; इसके लिए जारी राशि को प्रारम्भिक कहना भी गलत होगा। राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी पर इससे पहले काफी खर्च हो चुका है, जिसके पास पिछले 22 साल से एकमेव काम अध्ययन करने का ही है। यह एजेंसी आज तक एक भी ऐसा दस्तावेज नहीं पेश कर सकी है, जिसे लोगों ने यथावत मंजूर किया हो। ऐसी विवादित परियोजना के लिए धनराशि की मंजूरी जनता केे धन की बर्बादी है।
इसी तरह दिल्ली को पानी पिलाने के लिए रेणुका बांध के मामले में रेणुका नदी जल में अपने हिस्से को लेकर हिमाचल, चंड़ीगढ, हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश पहले से असंतुष्ट बैठे हैं। ऐसे में दिल्ली द्वारा और हिस्सा मांगना नजायज भी है और विवाद का कारण भी। फिर भी वित्त मंत्री जी ने इसके लिए 50 करोड़ मंजूर कर दिए। जब तक मुनक नहर बंटवारे को प्रश्न हल नहीं हो जाता, बजट की मंजूरी विधिक संस्थाओं की अनदेखी जैसा है।
यूं भी देखें तो दिल्ली को बाहर से और पानी लाने की जरूरत कहां हैं? दिल्ली के पास पानी की वर्तमान उपलब्धता 250 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है। सैंड्रप के श्री हिमांशु ठक्कर ने अपनी टिप्पणी देते हुए ठीक ही लिखा है कि दिल्ली न वर्षाजल सरंक्षण करती है, अपनी जलसंरचनाओं का संरक्षण। दिल्ली, बाढ़ के पानी से अपने भूजल स्रोतों का पुनर्भरण भी नहीं करती। दिल्ली ने अपनी जलापूर्ति प्रणाली को लीकप्रूफ बनाने के लिए कोई ठोस उपाय आज तक नहीं किया।
सीवेज शोधन के पश्चात् पानी के पुनचक्रीकरण और पुनर्उपयोग के प्रयासों के मामले में वह आज भी फिसड्डी है। ऐसी दिल्ली को बाहर से पानी लाने के लिए और पैसा क्यों दिया जाए?
दिल्ली को जलसुधार के नाम पर जो पैसा दिया गया है, उसे दिल्ली के पास पहले से मौजूद जलढांचे और आसमान से बरसने वाले पानी के संचयन में लगाया गया, तो स्वागत योग्य होगा। यदि इसका मकसद जलापूर्ति का निजीकरण और व्यावसायीकरण साबित हुआ, तो अनुभव अच्छे नहीं है।
‘नमामि गंगा’ के नाम से जो नए एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन की स्थापना की बात कही गई है, बेहतर होता कि पहले से मौजूद ‘राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन’ का नाम बदलकर नमामि गंगा कर दिया गया होगा। नए मिशन की जरूरत कहां थी?
जरूरत तो गंगा के लिए ऐसे प्रयासों की है, जोे मल, ठोस कचरा और औद्योगिक अवजल को गंगा और उसकी सहायक धाराओं से दूर खदेड़े।
जब तक यह नहीं हो जाता, जलमार्ग विकास की जरूरत को प्राथमिकता पर रखना, कारपोरेट एजेंडे को प्राथमिकता पर रखने की जल्दी ही कहा जाएगा। 1620 किलोमीटर लंबे इलाहाबाद से हल्दिया जलमार्ग हेतु गंगा की गहराई व चौड़ाई इस भांति सुनिश्चित की जाएगी कि इसमें 1500 टन वनज के जलवाहन चल सकें। इसमें 4200 करोड़ की लागत और छह वर्ष की अवधि अनुमानित है। श्री नितिन गडकरी जी ने इसे चार साल में पूरा करने की इच्छा जाहिर की है।
मंदाकिनी के एक, गंगा के चार और यमुना के एक घाट के विकास के लिए 100 करोड़ मंजूर करने वाले वित्त मंत्री जी शायद कभी केदारनाथ नहीं गए; उत्तराखंड आपदा के वक्त तो कतई नहीं।
संभवतः वह भूल गए हैं कि मेघों और पहाड़ों से आए पानी के रास्ते को दीवारों से रोकने के कारण ही केदारनाथ बाढ़ विनाश साबित हुई। उन्हें याद करने की जरूरत है कि घाटों से सिर्फ पर्यटन को मदद मिलती है, नदी को नहीं। गंगा पुनर्जीवन, पर्यटन और यातायात विकास का काम नहीं है। नदी को तटबंधों व घाटों से बांधने से नदी की जलग्रहण क्षमता में कमी आती है।
दिल्ली को पानी पिलाने के लिए रेणुका बांध के मामले में रेणुका नदी जल में अपने हिस्से को लेकर हिमाचल, चंड़ीगढ, हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश पहले से असंतुष्ट बैठे हैं। ऐसे में दिल्ली द्वारा और हिस्सा मांगना नजायज भी है और विवाद का कारण भी। फिर भी वित्त मंत्री जी ने इसके लिए 50 करोड़ मंजूर कर दिए। जब तक मुनक नहर बंटवारे को प्रश्न हल नहीं हो जाता, बजट की मंजूरी विधिक संस्थाओं की अनदेखी जैसा है। सैंड्रप के अनुसार, वर्ष 2005 में मुंबई में और अगस्त, 2006 में सूरत और दिल्ली में दर्ज की गई है। नदियों की जलग्रहण क्षमता में कमी मौसमी बदलाव का एक सहायक कारण है। ऐसे में एक ओर मौसमी बदलाव के अनुकूलन हेतु कोष की स्थापना और दूसरी ओर नदियों की जलग्रहण क्षमता घटाने का काम गंगा और प्रकृति को रास नहीं आने वाला।
गंगा जल गुणवत्ता निगरानी की जनप्रणाली, शोधन के बाद भी अवजल को गंगा में नहीं जाने देने की घोषणा, गंगा भूमि को अतिक्रमण मुक्त और प्रवाह को बाधामुक्त कराने का दावा - उमा जी द्वारा पूर्व में पेश ये सब संकल्प न ‘गंगा मंथन’ में सुनाई दिए और बजट में।
ऐसा लगता है कि पिछले चार-पांच साल के दौरान सुश्री उमा भारती जी गंगा किनारे घूम-घूमकर जो कुछ सकरात्मक सीख व कह रही थी, उसका कोई अंश गंगा पुनरोद्धार के असल नियोजकों द्वारा सुना ही नहीं गया; सिवाय दो सुंदर नामकरण के : गंगा पुनरुद्धार और नमामि गंगा। सवाल उठ सकता है कि क्या उमा जी सिर्फ नाम की मंत्री हैं?
खैर, यदि इस बजट में गंगा के नाम पर सचमुच कुछ सकारात्मक दिखाई देता है, तो वह है हिमालयी अध्ययन हेतु राष्ट्रीय केन्द्र की स्थापना। विश्व बैंक से कर्ज लेने की तुलना में अप्रवासी गंगा कोष की स्थापना करना एक अच्छा विचार है। इसके अलावा गौर करने की बात है कि प्रदूषित भूजल से जूझ रहे ग्रामीण इलाकों में फिलहाल 20 हजार बसावटों को सुरक्षित पेयजल मुहैया कराने का लक्ष्य इस बजट में है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में सरकार द्वारा प्रस्तावित सामुदायिक भागीदारी का मतलब है कि सरकार अथवा कंपनी जलशोधन संयंत्र लगाएगी तथा उसकी लागत या रखरखाव अथवा दोनों के खर्च में समुदाय भागीदारी करेगा।
निस्संदेह तात्कालिक तौर पर इसकी जरूरत है। यह किया जाना चाहिए। किंतु पूर्व में जहां-जहां पानी की टंकी लगाकर ऐसा किया गया है, वहां पैसा खर्च होने के बावजूद गुणवत्ता पीने लायक नहीं पाई गई। सावधानी रखनी होगी कि यह न हो। गौर करने की बात है कि भूजल प्रदूषण मुक्ति का समाधान प्रदूषित जल को साफ करने के लिए कुछ मशीनें लगाना नहीं हैं। इसका समाधान है कि भूजल प्रदूषित ही न होने पाए। दूसरा, यह कि वर्षाजल का अधिकतम संचयन व बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ के पानी से रिचार्ज बढ़ाने के प्रयास हों भूजल में रिचार्ज बढ़ेगा, तो प्रदूषण का दुष्प्रभाव स्वतः घटेगा।
उम्मीद करते हैं कि प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में नहरों की लंबाई और नलकूपों की गहराई बढ़ाने की बजाय जलसंचयन ढांचों के सृजन और सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन पर काम होगा। ईमानदारी से हुआ तो शहरी नवीनीकरण के तहत् उल्लिखित कार्य सहायक होंगे। ‘नीली क्रांति’ यूं तो लाभकारी होगी ही, नदियों से इतर अन्य जलस्रोतों में मत्स्य पालन से नदियों की मछलियां हो सकती हैं, कुछ बच जाएं।
अपनी नदियों और तालाबों में बढ़ आए प्रदूषण व ठोस कचरे तथा आजकल के गांवों में कचरा निष्पादन में कोताही को देखते हुए गांव के हर घर में शौचालय का मैं कभी हामी नहीं रहा। अतः स्वच्छ भारत योजना भी सिर्फ शौचालय ही बनाना चाहती है। शौचालय से निकले गंदे पानी और गांव में गंदगी के दूसरे पहलुओं को लेकर कोई समग्र सोच न ‘निर्मल ग्राम योजना’ में थी और स्वच्छ ग्राम योजना ने इसका कोई खुलासा किया है।
बुनियादी बात यह है कि समाधान के तौर पर पूर्ववर्ती सरकारें अक्सर जलनिकासी को ही पेश करती रही हैं। इस बजट के आइनें में देखें तो समस्या के मूल पर चोट करने का प्रयास करती यह सरकार भी नहीं दिखाई देती; न ही पानी के क्षेत्र में और न कृषि के क्षेत्र में।
भारत में विभिन्न परियोजनाओं पर खर्च होने वाली राशि
परियोजना | रुपया |
नदी जोड़ परियोजना हेतु के लिए प्रारम्भिक राशि | 100 करोड़ |
‘नमामि गंगा’के नाम से नये एकीकृत गंगा संरक्षण मिशनकी स्थापना | 2037 करोड़ |
जलमार्ग विकास परियोजना | 4200 करोड़ |
(1620 किलोमीटर मार्ग को गहरा व चौड़ा कर 1500 टन वजन के जलवाहन चलाने योग्य बनाने हेतु छह वर्ष में आयेगा 4200 करोड़ का खर्च) | |
अप्रवासी गंगा कोष की स्थापना | |
नदी मुहाना विकास | 100 करोड़ |
(केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली घाटों के विकास) | |
हिमालय अध्ययन हेतु राष्ट्रीय केन्द्र की स्थापना | 100 करोड़ |
ग्रामीण पेयजल | 3600 करोड़ |
(लक्ष्य - आर्सेनिक, फ्लोराइड, भारी व जहरीले धातु तत्व व कीटनाशकों व उर्वरकों से दूषित पानी वाली 20,000 बसावटें) | |
दिल्ली जल सुधार | 500 करोड़ |
50 करोड़ | |
रेणुका बांध निर्माण हेतु | |
प्रधानमंत्री कृषिसिंचाई योजना | 1,000 करोड़ |
नीली क्रांति | 50 करोड़ |
स्वच्छ भारत योजना
(लक्ष्य : 2019 में गांधी की 150वीं जयंती तक प्रत्येक घर में शौचालय का लक्ष्य)
शहरी नवीनीकरण के तहत् सीवेज शोधन के पश्चात् पुनचक्र्रीकरण तथा जैविक खेती व फलदार वृक्षों हेतु पुर्नोपयोग हेतु पीपीपी के तहत् 500 बसावटों का लक्ष्य।
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