हमारे देश में लाखों हेक्टेयर जमीन बंजर है। इसका कोई उपयोग नहीं हो पाता। यदि किसी तरह इस जमीन पर भी पेड़-पौधे लगाए जा सकें तो कितना बेहतर हो, लेकिन बंजर जमीन में पौधों का पनपना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है। इस समस्या के निदान के लिये कई प्रयोग और अनुसन्धान किये जा रहे हैं, जिससे बंजर जमीन पर भी जंगल खड़ा किया जा सके।
कई बार सरकारी प्रयास भी हुए लेकिन कभी इसमें सफलता नहीं मिली। एक बार तो बुन्देलखण्ड की बंजर जमीन पर हेलिकॉप्टर से बीज उड़ाने का हास्यास्पद प्रयोग भी किया गया। बाद में इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
दरअसल बिना जमीनी हकीकत जाने और वैज्ञानिक समझ नहीं होने से ऐसे प्रयोगों का यही हश्र होना था और वही हुआ भी। बुन्देलखण्ड के सूखे से निपटने के लिये कई बार इन बंजर पहाड़ियों पर पौधे लगाने की जुगत की गई लेकिन आज भी बुन्देलखण्ड सहित कई इलाके सूखे की चपेट में हैं।
छत्तीसगढ़ में रायपुर के पर्यावरण प्रेमी कमल कुमार अग्रवाल ने बंजर जमीन में पौधरोपण की एक ऐसी ही अनूठी तकनीक विकसित की है। इससे काफी हद तक बंजर जमीन में भी पौधे पनप सकते हैं। इतना ही नहीं, कुछ जगह उन्होंने खुद इस विधि से पौधे रोपकर उन्हें बड़ा किया और बताया कि किस तरह बंजर जमीन में भी हरियाली लाई जा सकती है।
उनका दावा है कि इस वैज्ञानिक तकनीक से किये जाने वाला पौधरोपण पूरी तरह सफल है और शत-प्रतिशत पौधे जिन्दा बचे रहते हैं। जितने ही पौधे धरती पर होंगे, हमारा पर्यावरण उतना ही साफ और शुद्ध बना रहेगा तथा हम प्रदूषण के आसन्न संकटों से बचे रह सकेंगे।
कमल कुमार अग्रवाल बताते हैं- 'काफी सालों से मेरे मन में पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं को लेकर विचार चलता रहता था। एक तरफ घटते हुए जंगल तो दूसरी तरफ बढती हुई बंजर जमीन। बंजर जमीन की वजह से ही बुन्देलखण्ड जैसे देश के कई हिस्सों में हर साल सूखा पड़ता है और इसका खामियाजा वहाँ के लोगों को अपने घर-बार छोड़कर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ता है। मैंने कई महीनों तक इससे जुड़ी किताबें पढ़ीं और इंटरनेट पर भी बहुत सामग्री खोजी लेकिन कहीं से भी कोई सन्तोषजनक बात नहीं बनी। फिर एक दिन खुद कुछ प्रयोग करने की मन में ठानते हुए रायपुर के पास ही पड़ी बंजर जमीन के एक टुकड़े को ही अपनी प्रयोगशाला बना लिया। कुछ महीनों में ही मेरा एक प्रयोग सफल होता नजर आया। इसका परीक्षण करने के लिये मैंने कई पर्यावरणविदों तथा भू-वैज्ञानिकों से बात की। उन्होंने इसे देखा और सराहा।'
इस तकनीक में बंजर जमीन पर पौधरोपण करने से पहले गड्ढा खोदना होता है। इस गड्ढे में रेत और मिट्टी भरनी होती है, जिसमें रेत का अनुपात ज्यादा होता है। गड्ढा खोदने में निकली मिट्टी से गड्ढे के चारों ओर 10 इंच की दूरी पर मेड़ (पाल) बना दी जाती है ताकि बारिश का पूरा पानी इस मेड़ की वजह से गड्ढे में पहुँच सकेगा।
10 इंच की दूरी पर पाल होने से अतिरिक्त क्षेत्रफल का पानी भी सीधे पौधे की जड़ों तक पहुँच सकेगा। रेत बारिश के पानी को सोख लेती और नमी बनाए रखता है। इसकी वजह से लम्बे वक्त तक पौधे की जड़ों को मिलता रहेगा। इस तरह पौधे को लगातार कुछ महीनों तक पानी मिलते रहने से उसके सूखने की सम्भावना काफी कम हो जाती है। इस तकनीक को उन्होंने अपने नाम पर 'कमल तकनीक' नाम दिया है।
इस रेनवाटर हार्वेस्टिंग की वजह से बंजर जमीन में भी पौधरोपण सफल हो सकेगा। बंजर जमीन में अधिकांश ज्यादा ढलान होने से बरसाती पानी तेजी से नीचे की ओर व्यर्थ बह जाता है। इस विधि से इसका भी समाधान हो रहा है। जिस जगह पर पानी बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं है, वहाँ भी यह कारगर है।
पानी बिल्कुल उपलब्ध नहीं होने की दशा में 2x2x2 फीट का गड्ढा खोदकर रेत से भरना होगा। इसी तरह सामान्य पानी होने की दशा में डेढ़xडेढ़xडेढ़ फीट का गड्ढा खोदकर पौधरोपण किया जाता है। जहाँ पहले से पौधरोपण किया जाता रहा है तो वहाँ केवल पौधे से लगभग एक फीट की दूरी पर तीन तरफ दो फीट गहरा गड्ढा खोदना होता है। फिर उसमें पौधा लगाकर रेत डालकर पाटना है।
अब तक जो पौधरोपण हम साधारण तरीके से करते हैं, उसमें पौधरोपण कर गड्ढे की मिट्टी को वापस उसी गड्ढे में भर देते हैं। खोदी गई मिट्टी को फिर भरने में पोल की वजह से मिट्टी धरातल के ऊपर हो जाती है। धरातल से ऊँचा होने के कारण बारिश के दिनों में पानी इसके आसपास व्यर्थ बह जाता है। लेकिन जड़ों तक बहुत कम ही पानी पहुँच पाता है।
इतना ही नहीं गड्ढे में भरी गई मिट्टी भी लूज हो जाती है और उस जगह पोल रह जाती है। इससे गर्मियों के दिनों में चलने वाली गर्म हवा और लू के थपेड़े सीधे पौधे की जड़ों तक जाकर उसे नुकसान पहुँचाते हैं। इससे पौधे की नमी खत्म हो जाती है और पौधा झुलस कर सूख जाता है।
सूखे और पठारी इलाकों में पौधे की जड़ों में लगने वाले दीमक तथा अन्य जीव-जन्तुओं या कीड़ों का असर भी इस तकनीक में बहुत कम हो जाता है। यह इस तरह होता है कि पौधे की जड़ों में लगातार नमी बनी रहने से दीमक या अन्य कीड़े पनप नहीं पाते और इस तरह पौधे इनसे भी बचे रह जाते हैं।
अमूमन लोग बंजर जमीन पर खेती या पौधरोपण करने से कतराते हैं लेकिन इस नई तकनीक के प्रयोग में आने से बंजर जमीन पर भी पौधरोपण या खेती करने के प्रति उनका रुझान बढ़ेगा और इस जमीन का भी सही मायनों में उपयोग हो सकेगा। इससे बारिश का अतिरिक्त पानी भी जमीन में रिसकर धरती के पानी के भण्डार को बढ़ाता है।
कमल कुमार अग्रवाल बताते हैं कि पौधों में स्टोमेटा नामक छिद्र होते हैं। सबसे ज्यादा स्टोमेटा पत्तियों में होते हैं। इन्हें रंध्र छिद्र या स्टोमा भी कहा जाता है। दरअसल ये पौधे की नाक होते हैं। जिस तरह मनुष्य और अन्य जानवर नासिका के जरिए ही साँस लेते हैं, ठीक उसी तरह पौधे भी इन्हीं रंध्र छिद्रों के जरिए कार्बन डाइऑक्साइड अपने भीतर लेते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इनका एक खास काम यह भी होता है कि ये छिद्र ही पौधे में संग्रहित अतिरिक्त पानी को वाष्प के रूप में उत्सर्जित कर वायुमंडल में छोड़ते हैं। परिस्थितियों के मुताबिक ये खुलते या बन्द होते रहते हैं।
बरसात के दिनों में जब पानी की अधिकता होती है तो स्टोमा पूरी तरह खुल जाते हैं और इसके बाद जैसे-जैसे मौसम बदलता है, जाड़े और गर्मियों में पौधे को मिलने वाले पानी की मात्रा कम होती जाती है। ऐसी स्थिति में ये धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं और गर्मी के दिनों में तो ये करीब-करीब बन्द हो जाते हैं। अप्रैल से जून महीने तक बहुत तेज गर्मी पड़ती है और यही वक्त पौधों के पानी की कमी से सूखकर खत्म होने का होता है। यदि किसी तरह गर्मियों के दिनों में पौधे की जड़ों में नमी बरकरार रह सके तो पौधे को बचाया जा सकता है।
इसी तकनीक से गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय में भी अब तक करीब सवा लाख से ज्यादा पौधों का रोपण किया जा चुका है और इनमें से कई अब पेड़ में बदल चुके हैं। कृषि विश्वविद्यालय अधिकारियों के मुताबिक यह पद्धति यहाँ काफी कारगर साबित हुई है तथा ज्यादातर पौधे अभी तक जिन्दा हैं।
यहाँ पौधरोपण के दौरान गड्ढे में एक तरफ रेत डालकर उसमें पाइप के जरिए पानी देने की तकनीक भी जोड़ी गई थी। डॉ. एन डी भरद और उनकी टीम ने इसकी प्रशंसा की तथा इसे नवाचारी शोध का अंग बताया। उन्होंने बताया कि इससे बरसाती पानी का सही इस्तेमाल हो सकेगा और यह पेड़-पौधों को जीवित बनाए रखने के लिये प्रभावी पद्धति है।
यह तकनीक वन विभाग के लिये भी बहुत कारगर साबित हो सकती है। वन विभाग हर साल करोड़ों पौधे लगाता है लेकिन इनमें से ज्यादातर गर्मियाँ आते-आते खत्म हो जाते हैं। इस सहज, सरल और सुलभ तकनीक से लाखों हेक्टेयर बंजर जमीन का भी समुचित उपयोग हो सकता है।
पेड़ भी पानी की ही तरह हमारे जीवन आधार हैं। पेड़ों के बिना साँस लेने के लिये जरूरी हवा और पानी की कल्पना भी बेमानी है। इस तरह की नवाचारी तकनीकों का उपयोग कर हम अपनी वन सम्पदा को बढ़ाने के साथ ही पर्यावरण को भी प्रदूषित होने से बचा सकते हैं।
धरती पर जितने ज्यादा पेड़-पौधे होंगे, वे उतनी ही ज्यादा बारिश लाने में सक्षम होते हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है। यह भी कि पेड़ पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से हजारों लीटर बारिश के पानी को जमीन में रिसाने में अपना योगदान करते हैं। इस तरह पेड़-पौधे उस इलाके का जलस्तर बढ़ाने में भी मदद करते हैं।
कई बार सरकारी प्रयास भी हुए लेकिन कभी इसमें सफलता नहीं मिली। एक बार तो बुन्देलखण्ड की बंजर जमीन पर हेलिकॉप्टर से बीज उड़ाने का हास्यास्पद प्रयोग भी किया गया। बाद में इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
दरअसल बिना जमीनी हकीकत जाने और वैज्ञानिक समझ नहीं होने से ऐसे प्रयोगों का यही हश्र होना था और वही हुआ भी। बुन्देलखण्ड के सूखे से निपटने के लिये कई बार इन बंजर पहाड़ियों पर पौधे लगाने की जुगत की गई लेकिन आज भी बुन्देलखण्ड सहित कई इलाके सूखे की चपेट में हैं।
छत्तीसगढ़ में रायपुर के पर्यावरण प्रेमी कमल कुमार अग्रवाल ने बंजर जमीन में पौधरोपण की एक ऐसी ही अनूठी तकनीक विकसित की है। इससे काफी हद तक बंजर जमीन में भी पौधे पनप सकते हैं। इतना ही नहीं, कुछ जगह उन्होंने खुद इस विधि से पौधे रोपकर उन्हें बड़ा किया और बताया कि किस तरह बंजर जमीन में भी हरियाली लाई जा सकती है।
उनका दावा है कि इस वैज्ञानिक तकनीक से किये जाने वाला पौधरोपण पूरी तरह सफल है और शत-प्रतिशत पौधे जिन्दा बचे रहते हैं। जितने ही पौधे धरती पर होंगे, हमारा पर्यावरण उतना ही साफ और शुद्ध बना रहेगा तथा हम प्रदूषण के आसन्न संकटों से बचे रह सकेंगे।
कमल कुमार अग्रवाल बताते हैं- 'काफी सालों से मेरे मन में पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं को लेकर विचार चलता रहता था। एक तरफ घटते हुए जंगल तो दूसरी तरफ बढती हुई बंजर जमीन। बंजर जमीन की वजह से ही बुन्देलखण्ड जैसे देश के कई हिस्सों में हर साल सूखा पड़ता है और इसका खामियाजा वहाँ के लोगों को अपने घर-बार छोड़कर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ता है। मैंने कई महीनों तक इससे जुड़ी किताबें पढ़ीं और इंटरनेट पर भी बहुत सामग्री खोजी लेकिन कहीं से भी कोई सन्तोषजनक बात नहीं बनी। फिर एक दिन खुद कुछ प्रयोग करने की मन में ठानते हुए रायपुर के पास ही पड़ी बंजर जमीन के एक टुकड़े को ही अपनी प्रयोगशाला बना लिया। कुछ महीनों में ही मेरा एक प्रयोग सफल होता नजर आया। इसका परीक्षण करने के लिये मैंने कई पर्यावरणविदों तथा भू-वैज्ञानिकों से बात की। उन्होंने इसे देखा और सराहा।'
इस तकनीक में बंजर जमीन पर पौधरोपण करने से पहले गड्ढा खोदना होता है। इस गड्ढे में रेत और मिट्टी भरनी होती है, जिसमें रेत का अनुपात ज्यादा होता है। गड्ढा खोदने में निकली मिट्टी से गड्ढे के चारों ओर 10 इंच की दूरी पर मेड़ (पाल) बना दी जाती है ताकि बारिश का पूरा पानी इस मेड़ की वजह से गड्ढे में पहुँच सकेगा।
10 इंच की दूरी पर पाल होने से अतिरिक्त क्षेत्रफल का पानी भी सीधे पौधे की जड़ों तक पहुँच सकेगा। रेत बारिश के पानी को सोख लेती और नमी बनाए रखता है। इसकी वजह से लम्बे वक्त तक पौधे की जड़ों को मिलता रहेगा। इस तरह पौधे को लगातार कुछ महीनों तक पानी मिलते रहने से उसके सूखने की सम्भावना काफी कम हो जाती है। इस तकनीक को उन्होंने अपने नाम पर 'कमल तकनीक' नाम दिया है।
इस रेनवाटर हार्वेस्टिंग की वजह से बंजर जमीन में भी पौधरोपण सफल हो सकेगा। बंजर जमीन में अधिकांश ज्यादा ढलान होने से बरसाती पानी तेजी से नीचे की ओर व्यर्थ बह जाता है। इस विधि से इसका भी समाधान हो रहा है। जिस जगह पर पानी बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं है, वहाँ भी यह कारगर है।
पानी बिल्कुल उपलब्ध नहीं होने की दशा में 2x2x2 फीट का गड्ढा खोदकर रेत से भरना होगा। इसी तरह सामान्य पानी होने की दशा में डेढ़xडेढ़xडेढ़ फीट का गड्ढा खोदकर पौधरोपण किया जाता है। जहाँ पहले से पौधरोपण किया जाता रहा है तो वहाँ केवल पौधे से लगभग एक फीट की दूरी पर तीन तरफ दो फीट गहरा गड्ढा खोदना होता है। फिर उसमें पौधा लगाकर रेत डालकर पाटना है।
अब तक जो पौधरोपण हम साधारण तरीके से करते हैं, उसमें पौधरोपण कर गड्ढे की मिट्टी को वापस उसी गड्ढे में भर देते हैं। खोदी गई मिट्टी को फिर भरने में पोल की वजह से मिट्टी धरातल के ऊपर हो जाती है। धरातल से ऊँचा होने के कारण बारिश के दिनों में पानी इसके आसपास व्यर्थ बह जाता है। लेकिन जड़ों तक बहुत कम ही पानी पहुँच पाता है।
इतना ही नहीं गड्ढे में भरी गई मिट्टी भी लूज हो जाती है और उस जगह पोल रह जाती है। इससे गर्मियों के दिनों में चलने वाली गर्म हवा और लू के थपेड़े सीधे पौधे की जड़ों तक जाकर उसे नुकसान पहुँचाते हैं। इससे पौधे की नमी खत्म हो जाती है और पौधा झुलस कर सूख जाता है।
सूखे और पठारी इलाकों में पौधे की जड़ों में लगने वाले दीमक तथा अन्य जीव-जन्तुओं या कीड़ों का असर भी इस तकनीक में बहुत कम हो जाता है। यह इस तरह होता है कि पौधे की जड़ों में लगातार नमी बनी रहने से दीमक या अन्य कीड़े पनप नहीं पाते और इस तरह पौधे इनसे भी बचे रह जाते हैं।
अमूमन लोग बंजर जमीन पर खेती या पौधरोपण करने से कतराते हैं लेकिन इस नई तकनीक के प्रयोग में आने से बंजर जमीन पर भी पौधरोपण या खेती करने के प्रति उनका रुझान बढ़ेगा और इस जमीन का भी सही मायनों में उपयोग हो सकेगा। इससे बारिश का अतिरिक्त पानी भी जमीन में रिसकर धरती के पानी के भण्डार को बढ़ाता है।
कमल कुमार अग्रवाल बताते हैं कि पौधों में स्टोमेटा नामक छिद्र होते हैं। सबसे ज्यादा स्टोमेटा पत्तियों में होते हैं। इन्हें रंध्र छिद्र या स्टोमा भी कहा जाता है। दरअसल ये पौधे की नाक होते हैं। जिस तरह मनुष्य और अन्य जानवर नासिका के जरिए ही साँस लेते हैं, ठीक उसी तरह पौधे भी इन्हीं रंध्र छिद्रों के जरिए कार्बन डाइऑक्साइड अपने भीतर लेते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इनका एक खास काम यह भी होता है कि ये छिद्र ही पौधे में संग्रहित अतिरिक्त पानी को वाष्प के रूप में उत्सर्जित कर वायुमंडल में छोड़ते हैं। परिस्थितियों के मुताबिक ये खुलते या बन्द होते रहते हैं।
बरसात के दिनों में जब पानी की अधिकता होती है तो स्टोमा पूरी तरह खुल जाते हैं और इसके बाद जैसे-जैसे मौसम बदलता है, जाड़े और गर्मियों में पौधे को मिलने वाले पानी की मात्रा कम होती जाती है। ऐसी स्थिति में ये धीरे-धीरे बन्द होने लगते हैं और गर्मी के दिनों में तो ये करीब-करीब बन्द हो जाते हैं। अप्रैल से जून महीने तक बहुत तेज गर्मी पड़ती है और यही वक्त पौधों के पानी की कमी से सूखकर खत्म होने का होता है। यदि किसी तरह गर्मियों के दिनों में पौधे की जड़ों में नमी बरकरार रह सके तो पौधे को बचाया जा सकता है।
इसी तकनीक से गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय में भी अब तक करीब सवा लाख से ज्यादा पौधों का रोपण किया जा चुका है और इनमें से कई अब पेड़ में बदल चुके हैं। कृषि विश्वविद्यालय अधिकारियों के मुताबिक यह पद्धति यहाँ काफी कारगर साबित हुई है तथा ज्यादातर पौधे अभी तक जिन्दा हैं।
यहाँ पौधरोपण के दौरान गड्ढे में एक तरफ रेत डालकर उसमें पाइप के जरिए पानी देने की तकनीक भी जोड़ी गई थी। डॉ. एन डी भरद और उनकी टीम ने इसकी प्रशंसा की तथा इसे नवाचारी शोध का अंग बताया। उन्होंने बताया कि इससे बरसाती पानी का सही इस्तेमाल हो सकेगा और यह पेड़-पौधों को जीवित बनाए रखने के लिये प्रभावी पद्धति है।
यह तकनीक वन विभाग के लिये भी बहुत कारगर साबित हो सकती है। वन विभाग हर साल करोड़ों पौधे लगाता है लेकिन इनमें से ज्यादातर गर्मियाँ आते-आते खत्म हो जाते हैं। इस सहज, सरल और सुलभ तकनीक से लाखों हेक्टेयर बंजर जमीन का भी समुचित उपयोग हो सकता है।
पेड़ भी पानी की ही तरह हमारे जीवन आधार हैं। पेड़ों के बिना साँस लेने के लिये जरूरी हवा और पानी की कल्पना भी बेमानी है। इस तरह की नवाचारी तकनीकों का उपयोग कर हम अपनी वन सम्पदा को बढ़ाने के साथ ही पर्यावरण को भी प्रदूषित होने से बचा सकते हैं।
धरती पर जितने ज्यादा पेड़-पौधे होंगे, वे उतनी ही ज्यादा बारिश लाने में सक्षम होते हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है। यह भी कि पेड़ पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से हजारों लीटर बारिश के पानी को जमीन में रिसाने में अपना योगदान करते हैं। इस तरह पेड़-पौधे उस इलाके का जलस्तर बढ़ाने में भी मदद करते हैं।
TAGS |
barren land, plantation, bundelkhand, madhya pradesh, kamal kumar agrawal, drought in bundelkhand, technique to develop green cover, digging of land, filling of sand on soil in dig, sand maintain moisture in soil, water percolate beneath the surface, groundwater recharge, stomata. |
Path Alias
/articles/banjara-jamaina-maen-bhai-ugaa-sakaengae-paaudhae
Post By: editorial