जाने-माने जलविज्ञानी जेएस रावत ने हाल ही में चेतावनी दी है कि हिमालय क्षेत्र के बंजर होने की दिशा में बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है। इससे पहाड़ी क्षेत्रों की पारिस्थितिकी को खतरा पैदा हो गया है। लम्बे समय से इसके लक्षण दिखाई दे रहे हैं। मसलन, ग्लेशियर आश्रित नदियाँ धीरे-धीरे कम हो रही हैं, पहाड़ के ढलान बढ़ रहे हैं, भूमिगत जलस्तर तेजी से कम हो रहा है, प्राकृतिक झरने खत्म हो रहे हैं, नदियों की धारा क्षीण हो रही हैं, बारहमासी नदियाँ अपना यह वजूद खो रही हैं और झीलें भी सूखती जा रही हैं।
पहाड़ों में हो रहे इस बदलाव पर बहुत कम शोध हुए हैं। उत्तरखण्ड में वनों के परिदृश्य में हम इस बदलाव के एक कारण की समीक्षा कर सकते हैं। यहाँ चीड़ के पेड़ों का तेजी से विस्तार हो रहा है। चौड़े पत्तों वाले ओक, बुरांश, काफल को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। वन विभाग के रिकॉर्ड बताते हैं कि अल्मोड़ा के वन डिवीजन में 81 प्रतिशत क्षेत्र चीड़ पेड़ों से आच्छादित है। जबकि ओक के वन महज 2 प्रतिशत क्षेत्र तक ही सीमित हैं।
चम्पावत जिले में चीड़ के पेड़ 27,292 हेक्टेयर क्षेत्र में व्याप्त हैं जबकि ओक के पेड़ 5,747 हेक्टेयर तक ही सीमित हैं। इसी तरह बागेश्वर में ओक के पेड़ों की हिस्सेदारी दो प्रतिशत ही है जबकि चीड़ के पेड़ 75 प्रतिशत क्षेत्र तक पहुँच रखते हैं। फिलहाल चीड़ के पेड़ 80 प्रतिशत वन क्षेत्र तक फैले हुए हैं।
चीड़ के खतरे
चीड़ के जंगल भूमिगत जल को नीचे पहुँचाने में सबसे बड़े कारक माने जाते हैं। अल्मोड़ा स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग का हाल में किया गया अध्ययन बताता है कि ओक के वनों में भूमिगत जल के रीचार्ज की दर 23 प्रतिशत है। चीड़ के वनों में यह दर आठ प्रतिशत ही है। कहने की जरूरत नहीं है कि कृषि भूमि और शहरी क्षेत्रों में जल के रीचार्ज की यह दर काफी निम्न है।
ओक के वनों के मुकाबले चीड़ के वनों की रीचार्ज क्षमता एक तिहाई ही है। चीड़ के वनों के कारण ही शुद्ध रीचार्ज दर में काफी हद तक गिरावट दर्ज की गई है। साफ है कि भूमिगत जलस्तर की इस स्थिति के जिम्मेदार चीड़ के पेड़ हैं।
चीड़ के पेड़ों से बड़ी मात्रा में नुकाली पत्तियाँ गिरती हैं। विषाक्त होने के कारण न तो पशु इन्हें खाते हैं न ही खाद बनकर इनका क्षय होता है। साल दर साल प्राकृतिक रूप से नष्ट न होने के कारण इन नुकाली पत्तियों का ढेर लगता रहता है। ये नुकीली पत्तियाँ प्लास्टिक की परत जैसा काम करती हैं और बरसात के पानी को ठहरने नहीं देतीं।
चीड़ पेड़ों की एक घातक प्रजाति है। उगने के लिये इसे ज्यादा मिट्टी की जरूरत नहीं होती। प्राकृतिक रूप से इसका विस्तार होता रहता है। ओक के वनों के पास लगने वाली आग मिट्टी से नमी सोख लेती है। इससे चीड़ के पेड़ों को पनपने में मदद मिलती है क्योंकि ये पेड़ कम नमी वाली जगह में भी आसानी से उग जाते हैं।
चीड़ के पेड़ों को उगाने में वन विभाग ने सक्रिय भूमिका निभाई है। तारपीन का तेल हासिल करने के लिये ब्रिटिश काल और उसके बाद के समय में भी इसे उगाया जा रहा है। तारपीन का इस्तेमाल पेंट उद्योग में जमकर होता है। भूमिगत जलस्तर में गिरावट के बाद 1993 में स्थानीय लोगों के विरोध के बाद इसे प्रोत्साहन देना बन्द किया गया था।
कैसे हो स्थिति में सुधार
रावत जैसे जलविज्ञानी जलस्रोतों को संरक्षित करने और स्थिति में बदलाव के लिये मशीनी और जैविक सुझाव देते हैं। मसलन, हमें ओक और चीड़ के पेड़ों के अनुपात को उलटने की जरूरत है। चीड़ के पेड़ों से जलस्रोतों को हुई क्षति की भरपाई के लिये जरूरी है कि चीड़ को उगाना बन्द किया जाए। साथ ही वनों से इसकी नुकाली पत्तियों को व्यवस्थित तरीके से हटाया जाए। इसकी भरपाई के लिये चौड़े पत्तों वाले ओक, काफल और बुरांस जैसे पेड़ों को ज्यादा से ज्यादा उगाए जाने की जरूरत है।
इसके अलावा, सरकारी एजेंसियों को चीड़ की नुकीली पत्तियों का इस्तेमाल चारकोल और गद्दे बनाने के लिये करना चाहिए। इस काम में ग्रामीणों का सहयोग अपेक्षित है। सरकारी एजेंसी को पत्ते बेचने पर ग्रामीणों को उचित हिस्सेदारी देनी होगी। चीड़ के वनों को काटने के लिये एक व्यवस्थित योजना की जरूरत है। फर्नीचर उद्योग का इसमें उपयोग किया जा सकता है।
प्राकृतिक जलस्रोतों को बचाने के लिये ये दीर्घकालिक उपाय हैं। चीड़ के वनों को नियंत्रित करने में देरी के दुष्परिणाम ही निकलेंगे। पारिस्थितिकी और स्थानीय लोगों की जिन्दगी पर देरी का गहरा असर पड़ेगा। अगर हम चीड़ पेड़ों को नियंत्रित कर पाए तो शायद हम हिमालय को बंजर होने की प्रक्रिया से बचा सकते हैं।
(लेखक लोक विज्ञान केन्द्र, अल्मोड़ा में कार्यरत हैं)
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