बंगाल में जलप्लवान सिंचाई व्यवस्था काफी लोकप्रिय थी। इसमें गंगा और दामोदर में बाढ़ के पानी और बरसात के पानी का पूरा इस्तेमाल किया जाता था। इस सदी के प्रारंभ में इस व्यवस्था का अध्ययन करने वाले विलियम विलकॉक्स के मुताबिक, यह बंगाल की विशिष्ट जरूरतों के बिल्कुल अनुकूल थी। बंगाल में जलप्लवान सिंचाई व्यवस्था काफी लोकप्रिय थी। इसमें गंगा और दामोदर में बाढ़ के पानी और बरसात के पानी का पूरा इस्तेमाल किया जाता था। इस सदी के प्रारंभ में इस व्यवस्था का अध्ययन करने वाले विलियम विलकॉक्स के मुताबिक, यह बंगाल की विशिष्ट जरूरतों के बिल्कुल अनुकूल थी। इस सिंचाई व्यवस्था के विशेष गुण ये थे-
नहरें चौड़ी और उथली थीं, जो नदी में बाढ़ का पानी बहा ले जाती थीं। इस पानी में महीने मिट्टी और मोटी रेत होती थी।
नहरें एक-दूसरे की समानान्तर लंबी होती थीं। उनमें बीच की दूरी सिंचाई के लिहाज से उपयुक्त होती थी।
सिंचाई के लिए इन नहरों के किनारों को काटकर पानी लिया जाता था। बाढ़ खत्म होने के बाद कटे हुए किनारे बंद कर दिए जाते थे। इन्हें भागलपुर में ‘कनवा’ कहा जाता है।
जलप्लावन वाली सिंचाई व्यवस्था काफी नियंत्रित थी। इससे न केवल हर मिट्टी उपजाऊ बनती थी और हर खेत को पानी मिलता था, बल्कि मलेरिया पर भी रोक लगती थी। विलकॉक्स ने तो खेती की आधुनिक समस्याओं से निबटने के लिए ही नहीं, बल्कि जन स्वास्थ्य के लिहाज से भी इस पुरानी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की सिफारिश की थी।
अपने प्रत्यक्ष अनुभवों और अध्ययन के आधार पर विलकॉक्स ने लिखा है कि दक्षिण दिशा की ओर बहने वाली हर नहर, चाहे वह भागीरथी से जाकर मिलती हो या माथभंगा की तरह नहर ही रही हो, मूलतः नहर ही थी। उन्हें एक-दूसरे के समानान्तर बहुत ही उपयुक्त दूरी पर खोदा गया था। उन्होंने आगे लिखा है, “मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने देश में सिंचाई नहरों की व्यवस्था का पता लगाना शुरू किया तो यह देखकर मैं चकित रह गया कि नक्शे में जहां भी कथित ‘मृत नदी’ का जिक्र था वहां नहर होनी चाहिए थी।”
1923 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में व्याख्यान देते हुए विलकॉक्स ने कहा था, “प्राचीन लोगों ने वह सब कर दिया है जिसकी हमें जरूरत है। हमें बस उन्हें हाथ में लेकर फिर से उपयोगी बनाना है।”
नहरें चौड़ी और उथली थीं, जो नदी में बाढ़ का पानी बहा ले जाती थीं। इस पानी में महीने मिट्टी और मोटी रेत होती थी।
नहरें एक-दूसरे की समानान्तर लंबी होती थीं। उनमें बीच की दूरी सिंचाई के लिहाज से उपयुक्त होती थी।
सिंचाई के लिए इन नहरों के किनारों को काटकर पानी लिया जाता था। बाढ़ खत्म होने के बाद कटे हुए किनारे बंद कर दिए जाते थे। इन्हें भागलपुर में ‘कनवा’ कहा जाता है।
जलप्लावन वाली सिंचाई व्यवस्था काफी नियंत्रित थी। इससे न केवल हर मिट्टी उपजाऊ बनती थी और हर खेत को पानी मिलता था, बल्कि मलेरिया पर भी रोक लगती थी। विलकॉक्स ने तो खेती की आधुनिक समस्याओं से निबटने के लिए ही नहीं, बल्कि जन स्वास्थ्य के लिहाज से भी इस पुरानी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की सिफारिश की थी।
अपने प्रत्यक्ष अनुभवों और अध्ययन के आधार पर विलकॉक्स ने लिखा है कि दक्षिण दिशा की ओर बहने वाली हर नहर, चाहे वह भागीरथी से जाकर मिलती हो या माथभंगा की तरह नहर ही रही हो, मूलतः नहर ही थी। उन्हें एक-दूसरे के समानान्तर बहुत ही उपयुक्त दूरी पर खोदा गया था। उन्होंने आगे लिखा है, “मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने देश में सिंचाई नहरों की व्यवस्था का पता लगाना शुरू किया तो यह देखकर मैं चकित रह गया कि नक्शे में जहां भी कथित ‘मृत नदी’ का जिक्र था वहां नहर होनी चाहिए थी।”
1923 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में व्याख्यान देते हुए विलकॉक्स ने कहा था, “प्राचीन लोगों ने वह सब कर दिया है जिसकी हमें जरूरत है। हमें बस उन्हें हाथ में लेकर फिर से उपयोगी बनाना है।”
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