बीटी बैंगन उर्फ पेट हमारा, मर्जी उनकी


वैश्वीकरण के उस दौर में हमारी थाली में जो व्यंजन परोसे जाएंगे और उन्हें हम खाएंगे, उसके बारे में हम नहीं जान सकेंगे कि हम जो खा रहे हैं, बिल्कुलवही खा पा रहे हैं। व्यंजन तो वही होंगे, यानी चावल, दाल, रोटी, भिंडी की सब्जी, बैंगन का भुर्ता और टमाटर की चटनी। इन्हें हमारे किसान ही उगाएंगे, लेकिन इसमें अमरीकी कृषि बायोटेक कम्पनी मोनसेंटो का बीटी जीन डाला होगा। ऐसी फसलों को जीएम (जेनेटिकली मोडिफाइड) कहा जाता है और इनकी खेती को बायोटेक खेती। भारत में अभी ऐसी कई खाद्यान्न फसलों और सब्जियों पर शोध चल रहा है और इन्हें शीघ्र ही बाजार में लाने की तैयारी है। अत: भविष्य में हम जो भी खाएंगे, सभी जीएम ही होंगे। इनकी लेबलिंग नहीं होने के कारण इन्हें सामान्य फसलों और खाद्यों से अलग करना और पहचानना असंभव हो जाएगा।

2010 के शुरुआती महीनों में बेचारे बैंगन पर पूरे देश में बावाल मच गया था। लगा जैसे पूरा देश की बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती के विरोध में उठ खड़ा हो गया है। बात इतनी सी हुई थी कि अक्टूबर 2009 में जीन इंजीनियरी अनुमोदन समिति (जीइएसी) ने बीटी बैंगन की खेती के लिये मंजूरी दी थी और इसी आधार पर भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग तथा कृषि मंत्रालय ने भी इसे हरी झंडी दिखा दी थी। लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अंतिम फैसला लेने से पहले इस पर देश के सात शहरों में सार्वजनिक चर्चा कराकर आम राय मांगी। एक राष्ट्रीय बहस शुरू हो गई। इस राष्ट्रीय बहस में बीटी बैंगन को लेकर ऐसा लगा कि देश साफ-साफ दो फाड़ हो गया है। इसके विरोध में थे कृषक संगठन, उपभोक्ता समूह, एनजीओ, विज्ञानी, कृषि विशेषज्ञ और 11 राज्यों की सरकारें और समर्थन में भारत सरकार के उपरोक्त दो मंत्रालय, जीइएसी, जीएम तकनीक से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े विज्ञानियों का समूह, प्रशासनिक अधिकारी और पूरीबायोटेक लॉबी।

सब्जियों का राजा बैंगन राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन गया क्योंकि यह हमारी जिंदगी के हर पहलू से जुड़ा मुद्दा था- स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, जैव और पर्यावरण सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा, संप्रभुता और पूरे भविष्य से। बैंगन को बचाने की इस देशव्यापी मुहिम को कुछ लोगों ने तो 21वीं सदी का स्वतंत्रता आंदोलन तक कह डाला। चौतरफा विरोध को देखते हुए अंतत: 10 फरवरी 2010 को बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती को अनिश्चत काल के लिये स्थगित कर दिया गया। यह निश्चय ही एक राष्ट्रीय महत्त्व का मुद्दा है जिसके कई आयाम हैं - तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, रजनीतिक और वैधानिक।

भारत बैंगन की उत्पत्ति और विविधता का केंद्र है। यहाँ इसकी 2400 किस्में पाई जाती हैं और आलू के बाद सबसे अधिक खपत इसी की है। यहाँ करीब 5.5 लाख हेक्टेयर भूमि में करीब-करीब सभी राज्यों में इसकी खेती की जाती है। भारत में बैंगन का इतिहास करीब 4000 वर्ष पुराना है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में भी इसकी चर्चा है। इसकी कुछ किस्में औषधीय गुणों वाली हैं। इनका प्रयोग आयुर्वेद और अन्य परम्परागत औषधीय प्रणाली में किया जाता है। इसके कई किस्मों का उपयोग प्रसाद के रूप में भी होता है। यह हमारी कृषि जैव विविधता का एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। यह सदियों से हमारी खाद्य संस्कृति से जुड़ा हुआ है। इसकी फसल को काफी नुकसान, 50-60 प्रतिशत तक, दो मुख्य कीड़ों - तनाछेदक (लियोसिनोडिस ओरबनालिस) और फलछेदक (हेलिकाविरपा आर्मीजेरा) से होता है। अत: इनके नियंत्रण के लिये कीटनाशक रसायनों का छिड़काव बहुत जरूरी होता है।

बीटी बैंगन भी एक जीएम फसल है। इसमें मृदा जीवाणु, बैसिलस थुरीजिएंसिस का बीटी जीन जीनियागरी द्वारा डाल दिया गया है। प्रतिरोपित बाहरी जीन की कृपा से बैंगन का पौधा ही एक कीटनाशक प्रोटीन क्राइ-1 एसी का निर्माण करने लगता है। यह प्रोटीन एक जहर है जो बैंगन को नुकसान पहुँचाने वाले उपरोक्त कीड़ों को मार डालता है। इसी विशिष्ट गुण के कारण कहा जा रहा है कि बैंगन की खेती में कीटनाशकों का अलग से इस्तेमाल करना नहीं पड़ेगा और खर्च बचेगा। मनुष्य के स्वास्थ्य पर इस जीन का कोई असर नहीं होता। बीटी बैंगन परम्परागत बैंगन जितना ही सुरक्षित है। बीटी बैंगन का विकास तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर और कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, धारवाड़ के विज्ञानियों ने महिको-मोनसेंटो कम्पनी के साथ एक साझी परियोजना के अंतर्गत यूएसएड और फोर्ड प्रतिष्ठान प्रदत्त आर्थिक अनुदान से किया है। अमरीकी कृषि बायोटेक कम्पनी मोनसेंटो को ‘ट्रिप्स’ के तहत बीटी जीन पर पेटेंट प्राप्त है। अत: सभी बीटी बैंगन की किस्मों पर मालिकाना हक मोनसेंटो का ही होगा।

भारत में बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधान के लिये विश्वसनीय, पारदर्शी और स्पष्ट नियामक तंत्र का अभाव है। वर्तमान तदर्थ नियामक तंत्र कई सार्वजनिक निकायों और मंत्रालयों का घालमेल है। अत: इनके कार्य क्षेत्र एक दूसरे से घुले-मिले हैं और इनमें जवाबदेही से बचने की मानसिकता रहती है। बीटी बैंगन के मामले सारा कुछ जल्दबाजी में हुआ लगता है। जीइएसी ने अनुमति देने में भारी कोताही बरती थी। न कोई निष्पक्ष विश्लेषण और परीक्षण तथा न ही कोई जवाबदेह प्रणाली। बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती को मंजूरी महिको और इससे जुड़ी संस्थाओं और संगठनों के आंकड़ों के आधार पर दी गई थी। प्रश्न उठता है कि जब हमारे यहाँ बैंगन की कोई कमी नहीं है तब बीटी बैंगन की जरूरत क्यों आ पड़ी? यह दुनिया की पहली जीएम खाद्य फसल होगी जिसका सीधा उपयोग इंसान करेगा। बीटी बैंगन को किसने मांगा था- किसान, उपभोक्ता, सरकारी कृषि विज्ञानी, प्रशासनिक अधिकारी, केंद्र सरकार या बायोटेक कम्पनियाँ?

अपने आविष्कार के समय से ही जीएम टेक्नोलॉजी और उत्पाद पूरी दुनिया में विवादास्पद है। इसके समर्थकों के अनुसार, जीएम फसलें अधिक उपजाऊ हैं, सुरक्षित हैं और कीटनाशकों का खर्च बचाते हैं। लेकिन इसके विरोधियों के पास इसकी सुरक्षा और परीक्षण तथा मानक स्वास्थ्य और पर्यावरण पर इसके प्रभाव को लेकर ज्यादा गंभीर प्रश्न हैं जिनका संतोषजनक उत्तर बायोटेक लॉबी देने में असमर्थ है। वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि जीएम फसलों और खाद्यों में कैंसर पैदा करने वाले रसायन कार्सिनोजेंस और जन्मजात बीमारियों के लिये उत्तरदायी रसायन टेरैटोजेंस पैदा करने का गुण होता है। इसके अतिरिक्त उनमें घातक रसायनों के निर्माण की एक अनियंत्रित प्रक्रिया होती है जिसके परिणाम भयावह हो सकते हैं। जीन इंजीनियरी द्वारा नए प्रकार के टॉक्सिन तथा अन्य अहितकर रसायनों, जो अप्रत्यासित, अपूर्वानुमानिक और अपरिवर्तनीय हैं, को उत्पन्न करने की अद्वितीय संभावना होती है। जीएम बैंगन का एक और भी खतरा है- क्षैतिज जीन हस्तांतरण (एचजीटी)।

इस प्राकृतिक प्रक्रिया के कारण बीटी जीन हमारे शीरीर के अंदर पाये जाने वाले लाभदायक जीवाणुओं के अंदर घुसकर बीटी जहर पैदा करने लगेगा और हमारी सेहत का भुर्ता बना डालेगा। बीटी बैंगन में ‘सीएएमवी 355’ नामक एक विषाणु ‘प्रोमोटर जीन’ तथा ‘एनपीटी 11’ नामक एंटीलबायोटिक प्रतिरोधी ‘मार्कर जीन’ पाया गया है। ये दोनों जीन मिलकर सुपर विषाणुओं का निर्माण करने में पूरी तरह सक्षम हैं। तब ऐसा हो जाने पर जिसकी संभावना बहुत अधिक है, ऐंटीबायोटिक दवाओं का हमारी शरीर पर असर ही नहीं होगा।

खैर, जन परामर्श समिति की देश के विभिन्न हिस्सों में हुई आठ दौर की बैठकों, जो 13 जनवरी से लेकर 30 जनवरी 2010 तक चली, के दौरान राज्य सरकारों, पर्यावरण संस्थानों, किसान संगठनों और निष्पक्ष विज्ञानियों द्वारा बीटी बैंगन के खिलाफ तीव्र विरोध को देखते हुए बीटी बैंगन की खेती का फैसला केंद्र सरकार को लंबित करना पड़ा। 9 फरवरी 2010 को बीटी बैंगन का अनिश्चितकालीन स्थगन भारतीय कृषि के विनाश का स्थगन था। यह हमारी कृषि प्रणाली के लिये ‘टाइम बम’ सिद्ध होता। इसके विरोधियों का अभियान कि वे प्रयोगशाला चूहे नहीं हैं, एक उचित और देशभक्ति पूर्ण कदम था। इससे हमारे कृषि तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री आहत थे। उन्होंने इसे विज्ञान और वैज्ञानिक समुदाय को हतोत्साहित करने वाला बताया। पूछा जा सकता है कि विज्ञान भावनाओं द्वारा कब से संचालित होने लगा? देश और जनहित विज्ञानियों की भावनाओं से छोटा कब हो गया? बीटी लॉबी का इससे नाराज होना स्वाभाविक था क्योंकि भारत के बीज बाजार, जिसका 85 प्रतिशत अभी भी असंगठित और सार्वजनिक क्षेत्र में है, में वे अपनी पैठ बनाने में असफल रह गए। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी है, उनका हमारे बीज बाजार पर कब्जा करने का प्रयास जारी है।

बीटी बैंगन तो एक बहाना था, सिर्फ दिखाने का दाँत। इसके पीदे 58 में से 41 खाद्य फसलों, करीब-करीब सभी प्रमुख खाद्यान्न और सब्जियों की फौज अनुमति के इंतजार में खड़ी थीं। कृषि बायोटेक निगम दुनिया की खाद्य श्रृंखला पर कब्जा करने की मुहिम में जुटे हुए हैं। एक बार बीजों पर पराधीनता हो जाने से हमारे देश की राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता तथा खाद्य सुरक्षा हमेशा के लिये समाप्त हो जाएगी। जैव संप्रभुता और बीज स्वराज हमारा मौलिक अधिकार है यह जीन या जैव साम्राज्यवाद है। हमें भविष्य में भी बहुत सतर्क रहना होगा।

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