यह निर्णय सरल नहीं कि वर्तमान जल संकट के विश्लेषण की प्रक्रिया का विषय प्रवेश किस बिन्दु से करें। जल संकट का मुद्दा जितना विकट, विकराल और संवेदनशील है उससे सैकड़ों गुना जटिल है। यह पतंग के माँझे की तरह उलझा हुआ विषय है। जितना सुलझाओ उतना और उलझ जाता है।
देश भर में सरकारी प्रयासों के अलावा, चार-पाँच हजार गैर-सरकारी संस्थाएँ तो अवश्य संलग्न हैं जो जल संकट के निराकरण का सतत अभ्यास कर रही हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पहले दो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे राष्ट्रीय नेता रहे हैं जिन्होंने ‘जी जान’ लगाकर इस समस्या के ‘निराकरण’ का हर सम्भव प्रयास किया था। इन महानुभावों के समस्त प्रयास केवल निष्फल नहीं हुए, बल्कि नकारात्मक ही सिद्ध हुए हैं तो क्या कहा कि यह राष्ट्र द्रोह जैसा अपराध होगा? लेकिन यह तथ्य तो स्वीकार करना पड़ेगा की हमारा शीर्ष नेतृत्व अत्यन्त सरलमना है, इसलिये जटिल यथार्थ समझने में पूर्णयता असमर्थ है। आश्चर्य नहीं कि हमारे सभी बड़े वैज्ञानिक इन्हीं नेताओं के पिछलग्गू या चाटुकार हैं, वरना ऐसा सर्वनाश सम्भव ही नहीं था।
गैर-सरकारी सन्दर्भ में देखे तो पानी की समस्या के निराकरण में संलग्न नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेता मेधा पाटकर, तरुण भारत संघ (अलवर) के नायक राजेन्द्र सिंह सिसोदिया, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र जैसे करीब 100 नायकों की सूची बनाई जा सकती है जो सहज वृत्ति से जी जान लगाकर पानी की समस्या का निराकरण ढूँढने में पिछले कई वर्षों से निरन्तर सक्रिय हैं। इस विश्लेषण का लेखक भी, अपने को ‘पानीबाबा’ कहलवाने में संकोच महसूस नहीं करता? हम सब इस सर्वनाश का कारण हैं या नहीं, इस विषय पर विवाद हो सकता हैं। किन्तु यह तथ्य तो स्पष्ट है कि हमारे सबके होने के बावजूद पिछली दो सदी से सूखे की समस्या का निरन्तर विस्तार हुआ है, और होता रहेगा।
राजीव गाँधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में (1984-89) ‘वाटर मिशन’ और ‘गंगा एक्शन प्लान’ आरम्भ करवाया था। वाजपेयी ने भारत की नदियों को जोड़ने का कार्यक्रम शुरू करवा दिया था। वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी ने इन दोनों योजनाओं को जमा जोड़कर ‘नमामि गंगे’ नाम की योजना लागू करवा दी है। स्वच्छ भारत अभियान भी डेढ़ वर्ष से जारी है। बल्कि यूँ सोचा जा सकता है कि जितने विशाल और भव्य निराकरण के संकल्प हैं, लगभग उसी अनुपात में समस्या सुरसा के मुख की तरह विकराल बन रही है?
वर्तमान में देश जिस हल्ला बोल जल संकट की चर्चा कर रहा है उससे इतना निष्कर्ष तो स्पष्ट है कि यह समस्या अचानक उत्पन्न नहीं हुई है। यह तथ्य अवश्य ध्यान आता है कि कृषि सम्बन्धी देशव्यापी सूखे की चर्चा 1965 में शुरू हो गई थी। उस दौर में बिहार का सूखा और राष्ट्रव्यापी अन्नाभाव विशेष चर्चा का विषय बना था। बिहार को सूखे से उबारने के लिये बिहार रिलीफ कमेटी का गठन हुआ था। सन 1942 की क्रान्ति के एक महानायक जयप्रकाश नारायण उस समिति के अध्यक्ष थे। बिहार अकाल राहत समिति ने 1960 के दशक में विविध स्तर पर बड़े-बड़े काम किये, जिसके परिणाम स्वरूप जेपी पुन: एक महानायक रूप में स्थापित हो गए और 1974-75 में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का बिगुल बजा सके। लेकिन बिहार की जल समस्या, सूखा और बाढ़ अपनी गति से विकराल रूप धारण करते रहे। हाल-फिलहाल निराकरण की कोई क्षीण सम्भावना भी दिखाई नहीं पड़ती।
सन 1970 के दशक में हरियाणा पंजाब से ऐसी सूचनाएँ आने लगीं कि पानी जहरीला बन रहा है और भूमि की सतह पर क्षारीय तत्वों का विस्तार हो रहा है। यही युग हरित क्रान्ति की सफलता का युग था। इस काल की यही विशेषता थी कि अनेक क्रान्तियाँ एक साथ आरम्भ हो गई। पंडित नेहरू ने 1953-54 में भाखड़ा-नांगल जलाशय का उद्घाटन किया तो उसे ‘नवतीर्थ’ की संज्ञा से सम्बोधित किया था। सत्तर के दशक में पर्यावरण विशेषज्ञों ने यह सवाल उठा दिया: मन्दिर या मकबरे यानि बड़े बाँध तीर्थ या कब्रगाह? पंजाब से बीकानेर जाने वाली रेलगाड़ी का नामकरण ‘कैंसर एक्सप्रेस’ इस प्रश्न की सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सल्तनतकालीन हिन्दुस्तान में पंजाब के इसी इलाके में जनता ने 100 साल तक फिरोज नहर का अनुभव करने के बाद उसे दफना दिया था। भाखड़ा बाँध का इतिहास अभी 60 वर्ष का ही है?
शिवालिक की पहाड़ियों से फिरोजपुर तक बहने वाली मानव निर्मित नहर को सम्भवत: 15वीं सदी के आरम्भ में दफनाया गया था, 600 साल में यह अन्तर तो अवश्य पड़ेगा कि इस बार लोक विवेक का प्रादुर्भाव महाराष्ट्र से आरम्भ होगा।
जल-विज्ञान विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर की गणना के मुताबिक पिछले 50 सालों में सर्वाधिक विशाल बाँधों का निर्माण महाराष्ट्र में हुआ है, अत: वही क्षेत्र सर्वाधिक कष्ट भोग रहा है? यह तो आँखों देखा और जाना सत्य है कि महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र पिछले 50 सालों से निरन्तर सूखे का कष्ट भोग रहे हैं। सर्वाधिक किसानों की आत्महत्या भी इसी अंचल में हुई है।
जल-संकट विश्लेषण के सन्दर्भ में इतनी लम्बी भूमिका के बाद प्रश्न है: क्या इस संकट के ‘हेतु’ को समग्रता/विस्तार में जाने बिना ही समस्या का निदान निरूपित किया जा सकता है? दरअसल प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जहवारलाल नेहरू के समय से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक हमारा सतत प्रयास यही है कि बीमारी का हेतु (कारण-परिणाम-सम्बन्ध का ऐतिहासिक सिलसिला) जाने बिना ही रोग का निराकरण करेंगे। सवाल यह है कि राजनेता समस्याओं का इतिहास पढ़ने लगेंगे तो सत्ता कौन भोगेगा?
वर्तमान सूखा और अकाल आदि की समस्या के इतिहास को सन 1770 से जानना और समझना आवश्यक है। क्योंकि 30 वर्षीय लम्बी बंगाल आपदा के परिप्रेक्ष्य में उससे अगले 20-25 वर्षों में सरकारी स्तर पर ‘सूखा मुक्ति’ अभियान की शुरुआत हो जाती है और यह सरल इतिहास है कि औपनिवेशिक सत्ता ने जो भी रीति-नीति साल 1820-30 से विकसित की और 1947 तक चलाई, आजाद हिन्दुस्तान के सभी रहनुमाओं ने उसका अक्षरश: अनुसरण किया है। निकट भविष्य में कोई बुनियादी परिवर्तन सम्भव तो नहीं दिखाई देता?
वर्तमान सूखा और अकाल आदि की समस्या के इतिहास को सन 1770 से जानना और समझना आवश्यक है। क्योंकि 30 वर्षीय लम्बी बंगाल आपदा के परिप्रेक्ष्य में उससे अगले 20-25 वर्षों में सरकारी स्तर पर ‘सूखा मुक्ति’ अभियान की शुरुआत हो जाती है और यह सरल इतिहास है कि औपनिवेशिक सत्ता ने जो भी रीति-नीति साल 1820-30 से विकसित की और 1947 तक चलाई, आजाद हिन्दुस्तान के सभी रहनुमाओं ने उसका अक्षरश: अनुसरण किया है। निकट भविष्य में कोई बुनियादी परिवर्तन सम्भव तो नहीं दिखाई देता?रुड़की का थांपसन इंजीनियरिंग कॉलेज एक ऐतिहासिक प्रमाण है। रुड़की कॉलेज का आईआईटी के रूप में नेहरू युग में विस्तृत अवतरण हुआ और बाद में उसका भी आईआईटी में रूपान्तरण कर दिया गया। यह भारत के आधुनिक विकास की महत्त्वपूर्ण घटना है। पिछले 200 बरस में जो भी साइंस, तकनीकी विद्या का विकास हुआ है, उसका वर्तमान सूखे से क्या सम्बन्ध है? इस परस्परता को देखे बिना समस्या का निराकरण सम्भव तो नहीं है।
इस सम्बन्ध में भारतीय भूगोल की समझ और उससे परिचय का प्रश्न विशिष्ट महत्त्व का विषय है। वास्तव में मूल समस्या तो भारत भूगोल से अपरिचय या अनभिज्ञता की है। एक बार पुन: स्मरण करवा दें कि थांपसन इंजीनियरिंग कॉलेज (1840) की स्थापना मूलत: सूखा निराकरण के लिये की गई थी। जो आरम्भिक पाठ्यक्रम बना उसमें हाइड्रोलॉजी प्रमुख विषय था। रोचक तथ्य है कि पिछले पौने दो सौ सालों से आज तक भारत का भौगोलिक इतिहास किसी भी साइंस टेक्नोलॉजी के सिलेबस का हिस्सा नहीं है।
लेकिन जब हम भारत माता के भूगोल की बात करते है तो एक पेंच फँस जाता है। ‘वंदे मातरम’ तो 1882 में प्रकट हो गया। बंकिम बाबू ने एक परिभाषा प्रस्तुत भी की थी किन्तु हम उसका आज तक अर्थ नहीं कर पाये, वह परिभाषा थीं:
‘सुजलाम, सुफलाम, मलयजशीतलाम्,
शस्यश्यामलाम, मातरम!’
इस परिभाषा का कुंजी शब्द या मुहावरा ‘सुजलाम’ है। यह तो हमें पता ही नहीं है कि बंकिम बाबू किस ‘श्रेष्ठ जल’ का जिक्र कर रहे हैं? यह सुजल कहाँ और कैसे बनता है और, चन्दन से सुगन्धित कहाँ और कैसे होता है? और ‘माँ’ को शस्य-श्यामलाम रूप में कैसे परिवर्तित कर देता है? बंकिम की परिभाषा उस स्तुति पर आधारित थी, जो महाराज हर्ष ने 1200 वर्ष पहले हिमालय के सम्मान में गाई थी।
कुल मिलाकर भारत के सन्दर्भ में मूल विषय उस संगठित विशाल जलराशि का है जिसे हिमालय समुद्र से अपनी तरफ आकर्षित करता है और निज साये में बसे दक्षिणी भूभाग को जलप्लावित कर वापस समुद्र में लौटता है तो भारत को शस्यश्यामल बनाता है।
अंग्रेज हाकिम (यानि औपनिवेशिक मालिक) ने भारतवर्ष की भौगोलिक परिभाषा को निजी प्रशासनिक सुविधा के अनुसार कब, क्यों और कैसे गढ़ना शुरू किया, इस विषय पर कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है। यह तथ्य स्पष्ट रहना चाहिए कि औपनिवेशिक काल के इतिहास पर कोई समुचित दृष्टिकोण अभी विकसित नहीं हुआ। हमारा गुलाम मानस बदस्तूर जारी ही है।
वास्तव में हिमालय विश्व की साझा धरोहर है और उसका इस दृष्टि से देखें तो हिमालय समूचे विश्व के लिये शुद्ध जल का विशालतम संग्राहलय है और केवल दक्षिण एशिया नहीं बल्कि चीन और इंडो-चाइना में बहने वाली नदियों का मूल स्रोत है।
हिमालय सम्बन्धी कुछ मूल सूत्रों को ध्यान में रखें तो पानी के अभाव में सूखे के विषय को समझने में सुविधा होगी :-
1. अगर हिमालय टुंड्रा-साइबेरिया से चलने वाली हवाओं को अवरुद्ध न करे तो यह भूखण्ड भी साइबेरिया का दक्षिणी विस्तार ही हो।
2. इस उप महाद्वीप की जल प्रणाली और मानसून स्वयं एक सुसंगठित सशक्त प्राकृतिक प्रबन्ध है। तिब्बत के हिमनद और हिमालय के शिखर, बर्फ का अस्तित्व बनाए रखने के लिये निज ताप निर्मुक्त करते हैं और जो सूर्य की प्रतिबिम्बित चमक और ताप होता है, उससे हिमालय शिखर क्षेत्र के आकाश में एक व्यापक व्योम का निर्माण होता है। उस व्योम से प्रेरित ‘वायुवेग’ हिन्द महासागर से तिब्बत के हिमनदों की तरफ आकर्षित होता है, वही कालिदास का मेघदूत या जनभाषा का मानसून है।
3. यह मानसून उत्तर में हिमालय शिखरों तक, पूर्व में म्यांमार तक फैली उपत्यकाओं तक, दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित श्रीलंका तक और पश्चिम में अरब सागर और बलूच पठार तक इस उपमहाद्वीप का सीमांकन करता है। साल भर में बरसने वाले पानी को संचालित करता है।
4. इस जल प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण घटक-विशाल भूखण्ड, दक्षिण एशिया का संयुक्त, समुचित जल निर्गम भी है। इस अंचल के समस्त मैदान और पहाड़ों के ढलान की मिट्टी और आर्द्रता मानसून और जल निर्गम के विशिष्ट उपादान हैं।
5. अगर इस उपमहाद्वीप को 78 डिग्री देशान्तर रेखा से दो भागों में बाँट दें तो कन्याकुमारी से श्रीनगर तक जो रेखा है, उसके पूर्वी अर्धांग में बरसात बंगाल की खाड़ी से आती है और कुल बरसात का लगभग 75 प्रतिशत होती है। पश्चिमी अर्धांग की बारिश अरब सागर से आती है और 25 प्रतिशत होती है। जिस दिशा से जितना पानी आता है, उस दिशा को उतना ही वापस लौटता है।
6. हिन्द महासागर में सुदूर दक्षिण से जो मानसून उत्तर की दिशा में चलता है, वह केरल-कन्याकुमारी पहुँचते-पहुँचते पृथ्वी की दैनंदिन प्रक्रिया की गति के कारण बड़ी मात्रा में पूर्वी पृथ्वी की तरफ मुड़ जाता है। बंगाल की खाड़ी से जल उठाता है, म्यांमार की अराकान पर्वत शृंखला से टकराकर बरसता है और बंगाल-असम के हिमालय और गंगा के मैदान, ओड़िशा से मध्य प्रदेश की तरफ मुड़ जाता है। मानसून का यह बंगाल की खाड़ी वाला अंग हमारे देश में प्रमुख वर्षा करता है। मध्य देश में स्थित मालवा और बुन्देलखण्ड ऐसा क्षेत्र है जहाँ दोनों दिशा से आने वाले मानसून बरसते थे और पर्याप्त आर्द्रता का निर्माण करते थे। सर्वाधिक उत्तम गेहूँ और रवि के शाक इसी क्षेत्र में होते थे। किन्तु आज भयावह अकाल है। वास्तव में बुन्देलखण्ड एक अनूठा जल निर्गम (ड्रेनेज) है। बीते 30 सालों में इस क्षेत्र के जलवायु में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। किन्तु उस सन्दर्भ में कोई अधिकृत अध्ययन उपलब्ध नहीं है।
7. पूर्वमुखी मानसून का एक बड़ा भाग चीन, दक्षिण पूर्वी एशिया, हिन्द एशिया, मलेशिया के रास्ते जापान और आस्ट्रेलिया की तरफ चला जाता है। यह पूरे इलाके में जलवायु का प्रमुख कारक है।
8. इसी तरह पूर्व से उत्तर पश्चिम की तरफ बहने वाले मानसून का एक भाग हिमालय और एक भाग हिन्दूकुश लांघ कर मध्य एशिया-अराल समुद्र की तरफ बढ़ता है और एक ठेठ पश्चिमी वेग मिस्र, मेसोपोटामिया की तरफ चला जाता है। जो शाखा वाया अरब सागर ठेठ दक्षिण से उत्तर-पश्चिम की तरफ बहती है, वह इसी मुख्य धारा में जुड़ जाती है।
9. वर्षा की मात्रा में विविधता और अन्य अनेक विविधताएँ इस उपमहाद्वीप में पचास विविध पारिस्थितिकीय अंचलों का निर्माण करती है, जो शेष विश्व में पाई जाने वाली भौगोलिक विविधता से कुछ ही कम हैं?
10. म्यांमार से ढाका होकर कन्याकुमारी तक और वहाँ से कराची तक लगभग सात हजार मील लम्बे तट पर हजारों डेल्टा (मुहाने) और छोटे-बड़े पश्चजल क्षेत्र (बैक वाटर) स्थित हैं। दक्षिण एशिया तटीय भूभाग की जैव सम्पदा और वैविध्य विश्व के अन्य किसी भी तट से कई गुना अधिक है। इस तटीय सम्पदा का मूल कारक वह शुद्ध-मीठे जल की अन्तरधारा है, जो विशाल नदियों (पश्चिम में सिन्धु और पूर्व में गंगा) द्वारा लाये गए जल, गाद आदि से निर्मित होती है और उपमहाद्वीप के तट को एक सूत्र में बाँधती है।
भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है लेकिन पिछले दो सौ बरसों में हिमालय के बारे में हमारे अज्ञान का निरन्तर विस्तार हुआ है। हिमालय जितना पराया विदेशियोें के लिये था, आज हमारे लिये उससे भी अधिक पराया हो गया है। जितना और जैसा सर्वनाश विदेशियों ने दो सौ बरसों में नहीं किया, उससे कई गुना भयावह बिगाड़ हमने 60-70 बरसों में किया है। चालीस-पचास बरस पहले मध्य हिमालय में लगातार दस-पन्द्रह दिन बर्फ बारी होती थी। मध्य हिमालय, निम्न हिमालय, तराई और गंगा-सिन्धु के मैदान में प्रकृति प्रदत्त परस्पर निर्भरता का रिश्ता था। उस रिश्ते में बड़ा परिवर्तन हुआ है- जो कुछ हुआ है हमारे अपने कर्मों से हुआ है अल-नीनों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। तकरीबन 10 दिसम्बर से बर्फबारी होती थी, बीस-पच्चीस या उससे भी अधिक दिन शिमला, धर्मशाला, डलहौजी, मसूरी, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी, के पर्वत बर्फ से ढके रहते थे। अब इस मध्य हिमालई शृंखला में भी कभी-कभार ही बर्फ गिरती है, शायद वह भी कुल दो-चार दिन। लगभग जनवरी के अन्त में, या उससे कुछ बाद।
हमारे नेतृत्त्व से लेकर विद्वत जनों तक किसी को अनुमान ही नहीं है कि मध्य हिमालय में बर्फबारी क्यों बन्द हो गई, या इतनी कम क्यों हो गई और भौतिक संसाधनों की उपलब्धि में क्या हानि-लाभ हुआ? शिखर हिमालय, मध्य हिमालय, निम्न हिमालय, तराई और सिन्धु-गंगा के मैदान जब शीत का चिल्ला पड़ना चाहिए तब अकस्मात गर्म हवाएँ चल रही हैं। शरद, हेमन्त और वसन्त में अचानक ठंड पड़ रही है।
जल संकट के ‘हेतु’ को समझने के लिये भूगोल का इतना अभ्यास तो सीखना ही होगा। वास्तव में जल-संकट जलवायु में हो रहे अनेक परिवर्तनों का एक अंग है- न कि स्वायत घटना।
इस परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य जानना और समझना होगा कि संकट सूखे से उत्पन्न जलाभाव का नहीं बल्कि व्यापक स्तर पर जलवायु परिवर्तन का है। पिछले तीन बरसों से मार्च (फाल्गुन) में लगातार व्यापक स्तर पर ओला वृष्टि हो रही है। साल 1950 से अब तलक भू-परिदृश्य में जो आमूल परिवर्तन हुआ है उसे दुरुस्त किये बना सूखे की समस्या का निराकरण सम्भव नहीं। उच्चतम न्यायलय का आदेश है कि साल 1950 में जो जलाशय भूमि दर्ज है वहाँ जलाशय लौटाना होगा। लेकिन हम 80 प्रतिशत जलाशय भूमि पर गृह निर्माण कर चुके हैं? इस परिस्थिति के कारण परिणाम की हमें कोई छिटपुट समझ भी नहीं है।
भारत भूका उत्तरी अर्धांग, सिन्धु-गंगा का मैदान दीर्घकाल से छह ऋतुओं का देश है- माघ अन्त से आधे चैत तक वसन्त होता है, बैसाख-जेष्ठ गर्मी पड़ती है, आधे असाढ़ से आधे आश्विन तक चौमासा यानि वर्षा का समय होता है। बरखा के बाद शरद और उसके बाद हेमन्त और शीत ऋतु का समय होता है। तात्पर्य यह कि हमारा किसान एक के बाद एक छह फसलों में साल भर व्यस्त रहता था।
18वीं सदी के उत्तरार्ध में जो निजाम बदला दीर्घकालीन ‘अकाल’ पड़ा, अराजकता फैली और उसके प्रत्युत्तर में सन्यासी विद्रोह हुआ उसके बाद शुरू हुआ। ‘सुखा-मुक्ति’ योजना और कार्यक्रम। गौरतलब तथ्य है कि 19वीं सदी के आरम्भिक वर्षों में ‘सूखे भारत’ का आख्यान लिखा जा चुका था- यहाँ पुन: दोहरा दें कि एकाध अपवाद को छोड़ दें तो हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के लगभग सभी महापुरुषों/नायकों को अंग्रेजों द्वारा लिखे गए इतिहास पर पूरा विश्वास है कि भारत सदा-सर्वदा से सूखा और अकाल का घर था। साल 1830 में तो ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने गंगा-जमुना के दोआब में ईस्ट यमुना कैनाल का काम पूरा कर दिया था। मानव और प्रकृति के सुयोग से विकसित ‘रजवाहो’ (फ्लड ड्रेनेज) का विशाल ताना-बाना कैनाल और उसकी डिस्ट्रीब्युट्रीज में तब्दील हो गया।
यह कोई साधारण परिवर्तन नहीं था। दोआब की जनता ने सन 1857 का गदर आयोजित किया था, किन्तु प्रत्युत्तर में कम्पनी सरकार ने जो दमन चक्र चलाया तो ‘1857’ का लगभग स्मृति लोप हो गया और नहरी सिंचाई को सर्वोत्तम कृषि व्यवस्था मान लिया गया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि नहरी सिंचाई के बावजूद भूजल (यानि कुओं) पर निर्भरता लगातार बढ़ती रही। लेकिन भूजल संचयन की पुरातन व्यवस्था धीरे-धीरे नष्ट हो गई। आज तो उसके प्रतीक चिन्ह भी समाप्त हो गए हैं। देश में लगभग 70 प्रतिशत तालाब की भूमि पर अवैध कब्जा हो गया है और वहाँ रिहायश स्थापित हो चुकी है।
इन तालाबों के नष्ट हो जाने से सबसे बड़ा नुकसान स्थानीय बारिश का हुआ है और आर्द्रता के स्तर में आमूल परिवर्तन हो गया। मानसून आगमन से ठीक पहले में जो स्थानीय बारिश अनिवार्य शर्त है- उसका क्रम ही टूट गया। समूचे उत्तर भारत में सर्दियों की बारिश भी इन्हीं तालाबों पर आधारित थी नवम्बर के पहले-दूसरे सप्ताह में सिन्धु-गंगा के मैदान में बारिश होती थी- उसकी नमी से मध्य हिमालय में बर्फबारी होती उससे जो ठंड बढ़ती थी उसी के प्रभाव से शिखर हिमालय में व्यापक बर्फबारी होती थी। पिछले 40 वर्षों से हिमनद लगातार सिकुड़ रहे हैं या गायब हो रहे हैं।
एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि दक्षिण भारत में जो उत्तम काठ नौकायन रचना में प्रयुक्त होता था वहीं मद्रास टीक कहलाता था। पुर्तगाल, इंग्लैंड, फ्रांस और डच जाति ने अपने देशों में नौकायन को सुदृढ़ बनाने के लिये सर्वप्रथम दक्षिण भारत के जंगलों का नाश किया, उसके बाद बर्मा और हिमालयी वनों का नाश हुआ। आरम्भिक दिनों में रेलगाड़ी भी लकड़ी के ईंधन से चलती थी और रेल पटरी बिछाने के लिये लकड़ी के स्लीपरों का प्रयोग होता था। संक्षेप में यह जानना अनिवार्य है कि सत्रहवीं सदी के मध्य में या उससे भी पहले यूरोपीय जातियों द्वारा जंगलों का जो विनाश शुरू हुआ वह आज तक जारी है। यह कोई गुप्त सूचना नहीं कि अंग्रेज हुकूमत से आजादी के बाद वन विनाश के कार्यक्रम की गति में बहुत तेजी आ गई थी।
दक्षिण एशिया में जो जलवायु परिवर्तन हुआ उसका स्वरूप और इतिहास उस ग्लोबल क्लाइमेट चेंज के संवाद से बिल्कुल भिन्न है जिसके लिये पिछले 40 बरस से संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं ने वैश्विक संवाद चला रखा है। हमारा जलवायु परिवर्तन मूलत: हमारे अपने भू-परिदृश्य से सम्बद्ध है। हिमालय के हिमनदों का सीधा रिश्ता सिन्धु-गंगा के मैदानी भू-परिदृश्य में आबद्ध है। इस सन्दर्भ में हिमालय की तराई-पठानकोट से चटगाँव (बांग्लादेश) एक महत्त्वपूर्ण विभाग है। समूची तराई लगभग नष्ट हो चुकी है। बीते 20-30 सालों में वे लोग भी लुप्त हो गए जिन्हें यह समझ और जानकारी थी कि तराई के घने जगलों का क्या महत्त्व है। टिहरी बाँध के प्रसिद्ध विरोधी सुन्दरलाल बहुगुणा कहा करते थे कि जिस गति से तराई का पर्दा कम होगा उसी गति से हिमालय के शिखर और हिमनद पिघलते रहेंगे।
बतौर निष्कर्ष हमारे सार तत्व यही है कि उत्तर भारत में उस भू-परिदृश्य का पुनर्निर्माण करना होगा जो अंग्रेजों के आगमन से पहले (औरंगजेब के काल तक) दिखाई पड़ता था। भूजलस्तर, जो बहुत नीचे गिर चुका है, को पुन: प्राप्त करने की दो ही शर्ते हैं कि सतही जलकाया और वनस्पतिक आडम्बर (धरती की वेशभूषा) उसी अनुपात में पुनर्स्थापित कर दें जिसमें वह सत्रहवीं सदी के अन्त तक दिखाई पड़ती थी।
जल संकट पर चल रहे संवाद में आमूल परिवर्तन करके संवाद का परिप्रेक्ष्य ‘जल संकट’ से बदल कर ‘जलवायु परिवर्तन’ करना होगा। वैश्विक गपशप की जगह स्थानीय इतिहास और घटनाक्रम की प्राथमिकता को स्वीकार करना होगा।
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