बिजली उत्पादन के अनेकानेक तरीकों से प्रयास किया जा रहा है। ‘थर्मल पॉवर सिस्टम, हाइडिल सिस्टम, न्यूक्लियर सिस्टम’ इन सभी से ही ज्यादातर बिजली हमें प्राप्त होती है। पर इन तीनों के सीमाएं और दिक्कतें हमारे सामने हैं। जरूरी हो गया है कि इन तीनों से बाहर जाकर ऊर्जा जरूरतों के लिए बिजली को पहचाना जाए। पवनचक्की, सौर ऊर्जा, ज्वार-भाटा ऊर्जा तथा गोबर गैस आदि तरीकों को मजबूत करना होगा। हर हाल में हमें बिजली उत्पादन की खामियों को दूर करना ही होगा। तभी हम ऊर्जा सुरक्षा पा सकते हैं, बता रहे हैं अशोक गुप्ता।
अक्षय ऊर्जा भारत के लिए दशकों पुराना जाना-पहचाना तरीका है। भारत ने सिलिकॉन सेमीकंडक्टर टेक्नोलॉजी को आधी सदी पहले से अपनाया हुआ है और कई संस्थानों ने स्वतंत्र रूप से सौर ऊर्जा के क्षेत्र में काम किया है। तेज हवाओं वाले इलाकों में पवनचक्कियां भी बिजली बनाने में मददगार सिद्ध हुई हैं। लेकिन प्रश्न यही है कि इनमें से किसी का भी सफल होना कोयला वालों के लिए संकट की घंटी है, और कोयला वालों का नाराज होना हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनुकूल नहीं है। भारत की संसदीय राजनीति में हाल में सबसे बड़ी हलचल कोयला खदानों के आबंटन को लेकर हुई। नीतिगत रूप से इन खदानों का आबंटन बिजली उत्पादन के लिए किया जाना था। अपनी बात स्पष्ट रूप से कह पाने के लिए अगर बिजली उत्पादन की प्रक्रिया का खुलासा किया जाए तो बेहतर होगा। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अगर किसी चुंबक को किसी विद्युत की सुचालक तार कुंडली के चारों ओर घुमाया जाए तो उस कुंडली में विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है। यह विद्युत धारा सामान्य भाषा में ए सी करंट, यानी आल्टरनेटिंग करंट कहलाती है क्योंकि कुंडली के चक्कर लगते हुए चुंबक के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव बारी-बारी से कुंडली से गुजरते हैं। सभी घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए यही विद्युत धारा काम में लाई जाती है। इसका मतलब है कि बिजली के उत्पादन का काम मुख्यत: चुंबक या कुंडली को घुमा कर किया जाता है।
देश में प्रचलित रूप से, चुंबक या कुंडली घुमाने का काम टरबाइन द्वारा होता है और भारी टरबाइन घुमाने के लिए किसी गैर-विद्युतीय ताकत की जरूरत होती है। उस ताकत के हमारे पास दो रास्ते हैं। एक तो यह कि पानी को उबाल कर भाप बनाई जाय और भाप की ताकत से टरबाइन घुमाया जाय। भाप की ताकत का हुनर संसार को जेम्स वाट ने सिखाया और उसका व्यापक उपयोग स्टीवेंसन ने भाप का इंजन बना कर किया। भाप के जरिए बिजली बनने का काम ‘थर्मल पॉवर सिस्टम’ से होता है, जिसमें ब्वायलर चला कर भाप बनाने के लिए कोयले का उपयोग होता है क्योंकि कोयला एक बहुत पुराना र्इंधन है। टरबाइन घुमाने का दूसरा तरीका है कि उसके ब्लेड्स के ऊपर बहुत ऊंचाई से पानी गिराया जाय जिसके आवेग से टरबाइन घूमे। इस तरीके को ‘हाइड्रो-इलेक्ट्रिक’ यानी ‘हाइडल सिस्टम’ कहा जाता है। इसके लिए बांध बनते हैं, जिनमें नदियों के पानी को नियंत्रित करके फाटकों के जरिए नीचे टरबाइन पर गिराया जाता है।
इस क्रम में कोयले और भाप से बनने वाली बिजली का संदर्भ सबसे पुराना है। देश की पहली रेलगाड़ी को भी भाप के इंजन से ही खींचा गया था और भाप का इंजन कई दशकों तक चलाया जाता रहा और अब वह केवल रेल संग्रहालय की शोभा रह गया है। इस तरह कोयले की मूल खपत का क्षेत्र ब्वायलर रहे, भले ही भाप-शक्ति की दक्षता बहुत कम आंकी गई, अर्थात बहुत ज्यादा भाप की ताप-शक्ति लग कर उसके अनुपात में बहुत कम बिजली पाई जाती रही। लेकिन कोई दूसरा विकल्प नहीं था। इस स्थिति ने देश में कोयला माफिया को जन्म दिया और आज की तारीख में देश में सबसे बड़े माफिया कोयला क्षेत्र में हैं। यह तथ्य जितना उजागर है उतना ही नेपथ्य में भी है।
अब जरा बिजली बनाने के लिए टरबाइन घुमाने के वैकल्पिक तंत्र, हाइडिल की ओर देखें। हमारे बांध इस तंत्र की रीढ़ हैं। पंडित नेहरू ने इन्हें आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था। लेकिन आज इनका विरोध बढ़ता जा रहा है और उसके पीछे मानवीयता से जुड़े कारण हैं। डूब से हुई तबाही के आंकड़े हैं। नवंबर 2003 में लातिन अमेरिकी और कैरेबियन क्षेत्र से संबंधित एक रिपोर्ट सामने आई, जिसका शीर्षक था ‘गुड डैम्स, बैड डैम्स’ यानी अच्छे और बुरे बांध। जॉर्ज लेडेक और जुआन डेविड क्विंटरो की इस रिपोर्ट ने बांधों के लिए क्षेत्र के चयन, बांधों की ऊंचाई और उनके प्रबंधन पर व्यापक विमर्श प्रस्तुत किया और विश्व भर के आंकड़े सामने रखे। यह रिपोर्ट बांध के कारण उत्पन्न हुई बाढ़ की स्थिति और जन-विस्थापन की विस्तार से चर्चा करती है और यह निष्कर्ष सामने रखती है कि सारे ही बांध निर्विवाद रूप से तबाही का कारण नहीं होते, लेकिन उन्हें खूब सोच-समझ कर और केवल निर्देशित ऊंचाई का बनाया जाना चाहिए।
बांध के निर्माण-प्रबंध और संचालन-प्रबंधन में भी कार्य-कुशलता अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रखती है। इस तरह, सूझबूझ से बनाए गए और ठीक से संचालित बांध त्रासदी का कोई आंकड़ा सामने नहीं लाते। लेकिन इनका विरोध व्यापक स्तर पर हो रहा है। इसके पीछे कोयला माफिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जंगल कट रहे हैं, जिसके कारण पहाड़ी नदियां अपना रास्ता बदल ले रही हैं और हमारे बांध अपनी निर्दिष्ट ऊंचाई पर वांछित बिजली नहीं बना पा रहे हैं। इसके कारण बांधों की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है और तबाही का सीधा संबंध ऊचाई से है। यहां प्रबंधन-दक्षता का प्रश्न उठाना भी प्रासंगिक है। आरक्षण की नीति ने सभी स्तरों पर कर्मचारियों की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाया है।
भारत के परिदृश्य में देखा जाय तो हम टरबाइन घुमाने की तकनीक पर ही ज्यादा भरोसा करना पसंद करते हैं, चाहे इसे भाप से घुमाएं या बांध से गिरते जल प्रपात से। आधुनिक तकनीक ने इस क्रम में एक और विकल्प विकसित किया है, वह है बायो डीजल। अमेरिका के वैज्ञानिकों की खोज के अनुसार, बायो डीजल एक ऐसा र्इंधन है जो पेट्रोलियम के मुकाबले पर्यावरण को कहीं कम नुकसान पहुंचाता है। इसके प्रयोग से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण पाया जा सकता है, और सबसे बड़ी बात यह कि जिस पौधे से तेल प्राप्त होता है वह भारत में बहुतायत से उपलब्ध है। जटरोफा कुरकस के बीज से प्राप्त बायो डीजल एक ऐसा र्इंधन है जो भाप और जल प्रपात के मुकाबले कहीं अधिक सुरक्षित ढंग से और अधिक दक्षता से टरबाइन घुमा सकता है।
दरअसल, इस र्इंधन की महत्ता पेट्रोल और पेट्रोलियम-जनित डीजल के सापेक्ष कहीं अधिक ठहरती है क्योंकि इसे परिवहन व्यवस्था के लिए भी बहुत उपयुक्त बताया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह जानकारी भारत के लिए नई है, या हमने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। जटरोफा से बायो डीजल बनाने की दिशा में विकास केंद्र, चुरू (राजस्थान) में वर्ष 2003 से काम हो रहा है और इसमें बहुत सफलता मिली है, लेकिन इसका उपयोग अब भी आम चलन में नहीं आ सका है। इसके कारण पर टिप्पणी करना कुछ तकलीफदेह है। बस यहां एक छोटा-सा दृष्टांत सामने रखा जा सकता है। सफेदे के पेड़ अपने तने की लकड़ी की वजह से माचिस उत्पादन और कागज उत्पादन के लिए बहुत उपयुक्त पाए गए, लेकिन इनको लगाने का एक भयंकर दुष्प्रभाव यह है कि यह अत्यधिक पानी खींचने वाला पेड़ है।
संबंधित उद्योगपतियों के प्रभाव में आकर सरकार ने किसानों को फुसला कर हजारों की संख्या में सफेदे के पेड़ लगवा डाले और नतीजा यह हुआ कि उनके खेतों के लिए धरती का जल-स्तर इतना नीचे चला गया कि उसे पाना मुश्किल हो गया। इस दांव में उद्योगपति जीत गए और किसान हार गए। धरती तो प्यासी ही हो गई। ऐसा नहीं है कि शासन में बैठे लोगों को सफेदे के पेड़ों के बारे में पता नहीं था, लेकिन उन पेड़ों से जिनको फायदा था वे व्यवस्था के ज्यादा करीब थे। खैर, अगर अब भी बायो डीजल पर सरकार की निगाह चली जाय तो टरबाइन घुमाने के ही तरीके से साफ -सुथरी बिजली, यानी बिना हाथ काले किए हुए, बनाई जा सकती है। लेकिन यह होगा कैसे?
बिजली उत्पादन का एक तीसरा तरीका है जिसमें परमाणु की नाभिकीय ऊर्जा को विद्युत-शक्ति के रूप में संचित और वितरित किया जाता है। इस तरीके में रेडियोएक्टिव पदार्थ रेडियम का उपयोग होता है। नाभिकीय ऊर्जा से बिजली बनाने के संयंत्र दुनिया भर में इस्तेमाल हो रहे हैं, और सब कहीं रेडियोधर्मी पदार्थ रेडियम प्रयोग में लाया जा रहा है। इसमें संदेह नहीं कि रेडियम के विकिरण के अपने खतरे हैं। इन खतरों को विश्व भर में प्रोन्नत तकनीकी के उपयोग से कम किया जा रहा है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक अब्दुल कलाम ने खुद जाकर इन संयंत्रों का निरीक्षण किया था और विशेषज्ञों के दल से बातचीत के आधार पर इन्हें निरापद बताया था। फिर भी विरोध जारी है। विरोध के केंद्र में रेडियम के विकिरण का खतरा सामने रखा जा रहा है।
जाहिर है, इस तकनीक से बिजली का उत्पादन होना, कोयला माफिया को रास नहीं आएगा। इस संदर्भ में एक विडंबनापूर्ण स्थिति सामने रखी जा सकती है। पूर्वी सिंहभूम का मरंग गोडा क्षेत्र रेडियम के खनन का क्षेत्र है। कोयला माफिया का एक छोटा संस्करण यहां सक्रिय है। आदिवासी क्षेत्र होने के कारण यहां रेडियम के विकिरण से होने वाली त्रासदी को दैवी प्रकोप कह कर न सिर्फ ढांप दिया जाता है बल्कि पीड़ित व्यक्ति को आदिवासी समुदाय दंडित भी करता है। इस नाते यहां रेडियम का विकिरण फल-फूल रहा है, जबकि यहां न कोई तकनीकी सुरक्षा का इंतजाम है न प्रशिक्षण का। विडंबना देखिए, विरोध केवल नाभिकीय ऊर्जा-तंत्र का हो रहा है, जिससे कोयला माफिया के हित बाधित होते हैं।
बिजली के मामले में पूरा विश्व अनेक वैकल्पिक तकनीकों का इस्तेमाल कर रहा है। भारत भी इस दिशा में पीछे नहीं है। बल्कि कुछ तरीके तो भारत में ही दशकों पहले ईजाद और विकसित किए गए। गोबरगैस से बिजली के उत्पादन को भले बहुत बड़े पैमाने पर न आजमाया गया हो, लेकिन इसका सफल प्रयोग विश्वसनीय ढंग से किया जा चुका है। सौर ऊर्जा एक दूसरा विकल्प है जो भारत के लिए दशकों पुराना जाना-पहचाना तरीका है। भारत ने सिलिकॉन सेमीकंडक्टर टेक्नोलॉजी को आधी सदी पहले से अपनाया हुआ है और कई संस्थानों ने स्वतंत्र रूप से सौर ऊर्जा के क्षेत्र में काम किया है। तेज हवाओं वाले इलाकों में पवनचक्कियां भी बिजली बनाने में मददगार सिद्ध हुई हैं। लेकिन प्रश्न यही है कि इनमें से किसी का भी सफल होना कोयला वालों के लिए संकट की घंटी है, और कोयला वालों का नाराज होना हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनुकूल नहीं है। इस तरह, देश के सामने बिजली की स्थिति को ‘संकटपूर्ण’ से बदल कर ‘आवश्यकता से अधिक’ कर देने में कोई कठिनाई नहीं है। बहुत-से विकल्प हैं जो भाप की बेहद कम दक्षता वाली तकनीक को वैसे ही परे कर सकते हैं जैसे उसने रेल के छुक-छुक इंजन को कर दिया है। लेकिन मुश्किल यही है कि उसके हाथ काले हैं और बंधे हुए भी।
अक्षय ऊर्जा भारत के लिए दशकों पुराना जाना-पहचाना तरीका है। भारत ने सिलिकॉन सेमीकंडक्टर टेक्नोलॉजी को आधी सदी पहले से अपनाया हुआ है और कई संस्थानों ने स्वतंत्र रूप से सौर ऊर्जा के क्षेत्र में काम किया है। तेज हवाओं वाले इलाकों में पवनचक्कियां भी बिजली बनाने में मददगार सिद्ध हुई हैं। लेकिन प्रश्न यही है कि इनमें से किसी का भी सफल होना कोयला वालों के लिए संकट की घंटी है, और कोयला वालों का नाराज होना हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनुकूल नहीं है। भारत की संसदीय राजनीति में हाल में सबसे बड़ी हलचल कोयला खदानों के आबंटन को लेकर हुई। नीतिगत रूप से इन खदानों का आबंटन बिजली उत्पादन के लिए किया जाना था। अपनी बात स्पष्ट रूप से कह पाने के लिए अगर बिजली उत्पादन की प्रक्रिया का खुलासा किया जाए तो बेहतर होगा। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अगर किसी चुंबक को किसी विद्युत की सुचालक तार कुंडली के चारों ओर घुमाया जाए तो उस कुंडली में विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है। यह विद्युत धारा सामान्य भाषा में ए सी करंट, यानी आल्टरनेटिंग करंट कहलाती है क्योंकि कुंडली के चक्कर लगते हुए चुंबक के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव बारी-बारी से कुंडली से गुजरते हैं। सभी घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए यही विद्युत धारा काम में लाई जाती है। इसका मतलब है कि बिजली के उत्पादन का काम मुख्यत: चुंबक या कुंडली को घुमा कर किया जाता है।
देश में प्रचलित रूप से, चुंबक या कुंडली घुमाने का काम टरबाइन द्वारा होता है और भारी टरबाइन घुमाने के लिए किसी गैर-विद्युतीय ताकत की जरूरत होती है। उस ताकत के हमारे पास दो रास्ते हैं। एक तो यह कि पानी को उबाल कर भाप बनाई जाय और भाप की ताकत से टरबाइन घुमाया जाय। भाप की ताकत का हुनर संसार को जेम्स वाट ने सिखाया और उसका व्यापक उपयोग स्टीवेंसन ने भाप का इंजन बना कर किया। भाप के जरिए बिजली बनने का काम ‘थर्मल पॉवर सिस्टम’ से होता है, जिसमें ब्वायलर चला कर भाप बनाने के लिए कोयले का उपयोग होता है क्योंकि कोयला एक बहुत पुराना र्इंधन है। टरबाइन घुमाने का दूसरा तरीका है कि उसके ब्लेड्स के ऊपर बहुत ऊंचाई से पानी गिराया जाय जिसके आवेग से टरबाइन घूमे। इस तरीके को ‘हाइड्रो-इलेक्ट्रिक’ यानी ‘हाइडल सिस्टम’ कहा जाता है। इसके लिए बांध बनते हैं, जिनमें नदियों के पानी को नियंत्रित करके फाटकों के जरिए नीचे टरबाइन पर गिराया जाता है।
इस क्रम में कोयले और भाप से बनने वाली बिजली का संदर्भ सबसे पुराना है। देश की पहली रेलगाड़ी को भी भाप के इंजन से ही खींचा गया था और भाप का इंजन कई दशकों तक चलाया जाता रहा और अब वह केवल रेल संग्रहालय की शोभा रह गया है। इस तरह कोयले की मूल खपत का क्षेत्र ब्वायलर रहे, भले ही भाप-शक्ति की दक्षता बहुत कम आंकी गई, अर्थात बहुत ज्यादा भाप की ताप-शक्ति लग कर उसके अनुपात में बहुत कम बिजली पाई जाती रही। लेकिन कोई दूसरा विकल्प नहीं था। इस स्थिति ने देश में कोयला माफिया को जन्म दिया और आज की तारीख में देश में सबसे बड़े माफिया कोयला क्षेत्र में हैं। यह तथ्य जितना उजागर है उतना ही नेपथ्य में भी है।
अब जरा बिजली बनाने के लिए टरबाइन घुमाने के वैकल्पिक तंत्र, हाइडिल की ओर देखें। हमारे बांध इस तंत्र की रीढ़ हैं। पंडित नेहरू ने इन्हें आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था। लेकिन आज इनका विरोध बढ़ता जा रहा है और उसके पीछे मानवीयता से जुड़े कारण हैं। डूब से हुई तबाही के आंकड़े हैं। नवंबर 2003 में लातिन अमेरिकी और कैरेबियन क्षेत्र से संबंधित एक रिपोर्ट सामने आई, जिसका शीर्षक था ‘गुड डैम्स, बैड डैम्स’ यानी अच्छे और बुरे बांध। जॉर्ज लेडेक और जुआन डेविड क्विंटरो की इस रिपोर्ट ने बांधों के लिए क्षेत्र के चयन, बांधों की ऊंचाई और उनके प्रबंधन पर व्यापक विमर्श प्रस्तुत किया और विश्व भर के आंकड़े सामने रखे। यह रिपोर्ट बांध के कारण उत्पन्न हुई बाढ़ की स्थिति और जन-विस्थापन की विस्तार से चर्चा करती है और यह निष्कर्ष सामने रखती है कि सारे ही बांध निर्विवाद रूप से तबाही का कारण नहीं होते, लेकिन उन्हें खूब सोच-समझ कर और केवल निर्देशित ऊंचाई का बनाया जाना चाहिए।
बांध के निर्माण-प्रबंध और संचालन-प्रबंधन में भी कार्य-कुशलता अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रखती है। इस तरह, सूझबूझ से बनाए गए और ठीक से संचालित बांध त्रासदी का कोई आंकड़ा सामने नहीं लाते। लेकिन इनका विरोध व्यापक स्तर पर हो रहा है। इसके पीछे कोयला माफिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जंगल कट रहे हैं, जिसके कारण पहाड़ी नदियां अपना रास्ता बदल ले रही हैं और हमारे बांध अपनी निर्दिष्ट ऊंचाई पर वांछित बिजली नहीं बना पा रहे हैं। इसके कारण बांधों की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है और तबाही का सीधा संबंध ऊचाई से है। यहां प्रबंधन-दक्षता का प्रश्न उठाना भी प्रासंगिक है। आरक्षण की नीति ने सभी स्तरों पर कर्मचारियों की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाया है।
भारत के परिदृश्य में देखा जाय तो हम टरबाइन घुमाने की तकनीक पर ही ज्यादा भरोसा करना पसंद करते हैं, चाहे इसे भाप से घुमाएं या बांध से गिरते जल प्रपात से। आधुनिक तकनीक ने इस क्रम में एक और विकल्प विकसित किया है, वह है बायो डीजल। अमेरिका के वैज्ञानिकों की खोज के अनुसार, बायो डीजल एक ऐसा र्इंधन है जो पेट्रोलियम के मुकाबले पर्यावरण को कहीं कम नुकसान पहुंचाता है। इसके प्रयोग से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण पाया जा सकता है, और सबसे बड़ी बात यह कि जिस पौधे से तेल प्राप्त होता है वह भारत में बहुतायत से उपलब्ध है। जटरोफा कुरकस के बीज से प्राप्त बायो डीजल एक ऐसा र्इंधन है जो भाप और जल प्रपात के मुकाबले कहीं अधिक सुरक्षित ढंग से और अधिक दक्षता से टरबाइन घुमा सकता है।
दरअसल, इस र्इंधन की महत्ता पेट्रोल और पेट्रोलियम-जनित डीजल के सापेक्ष कहीं अधिक ठहरती है क्योंकि इसे परिवहन व्यवस्था के लिए भी बहुत उपयुक्त बताया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह जानकारी भारत के लिए नई है, या हमने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। जटरोफा से बायो डीजल बनाने की दिशा में विकास केंद्र, चुरू (राजस्थान) में वर्ष 2003 से काम हो रहा है और इसमें बहुत सफलता मिली है, लेकिन इसका उपयोग अब भी आम चलन में नहीं आ सका है। इसके कारण पर टिप्पणी करना कुछ तकलीफदेह है। बस यहां एक छोटा-सा दृष्टांत सामने रखा जा सकता है। सफेदे के पेड़ अपने तने की लकड़ी की वजह से माचिस उत्पादन और कागज उत्पादन के लिए बहुत उपयुक्त पाए गए, लेकिन इनको लगाने का एक भयंकर दुष्प्रभाव यह है कि यह अत्यधिक पानी खींचने वाला पेड़ है।
संबंधित उद्योगपतियों के प्रभाव में आकर सरकार ने किसानों को फुसला कर हजारों की संख्या में सफेदे के पेड़ लगवा डाले और नतीजा यह हुआ कि उनके खेतों के लिए धरती का जल-स्तर इतना नीचे चला गया कि उसे पाना मुश्किल हो गया। इस दांव में उद्योगपति जीत गए और किसान हार गए। धरती तो प्यासी ही हो गई। ऐसा नहीं है कि शासन में बैठे लोगों को सफेदे के पेड़ों के बारे में पता नहीं था, लेकिन उन पेड़ों से जिनको फायदा था वे व्यवस्था के ज्यादा करीब थे। खैर, अगर अब भी बायो डीजल पर सरकार की निगाह चली जाय तो टरबाइन घुमाने के ही तरीके से साफ -सुथरी बिजली, यानी बिना हाथ काले किए हुए, बनाई जा सकती है। लेकिन यह होगा कैसे?
बिजली उत्पादन का एक तीसरा तरीका है जिसमें परमाणु की नाभिकीय ऊर्जा को विद्युत-शक्ति के रूप में संचित और वितरित किया जाता है। इस तरीके में रेडियोएक्टिव पदार्थ रेडियम का उपयोग होता है। नाभिकीय ऊर्जा से बिजली बनाने के संयंत्र दुनिया भर में इस्तेमाल हो रहे हैं, और सब कहीं रेडियोधर्मी पदार्थ रेडियम प्रयोग में लाया जा रहा है। इसमें संदेह नहीं कि रेडियम के विकिरण के अपने खतरे हैं। इन खतरों को विश्व भर में प्रोन्नत तकनीकी के उपयोग से कम किया जा रहा है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक अब्दुल कलाम ने खुद जाकर इन संयंत्रों का निरीक्षण किया था और विशेषज्ञों के दल से बातचीत के आधार पर इन्हें निरापद बताया था। फिर भी विरोध जारी है। विरोध के केंद्र में रेडियम के विकिरण का खतरा सामने रखा जा रहा है।
जाहिर है, इस तकनीक से बिजली का उत्पादन होना, कोयला माफिया को रास नहीं आएगा। इस संदर्भ में एक विडंबनापूर्ण स्थिति सामने रखी जा सकती है। पूर्वी सिंहभूम का मरंग गोडा क्षेत्र रेडियम के खनन का क्षेत्र है। कोयला माफिया का एक छोटा संस्करण यहां सक्रिय है। आदिवासी क्षेत्र होने के कारण यहां रेडियम के विकिरण से होने वाली त्रासदी को दैवी प्रकोप कह कर न सिर्फ ढांप दिया जाता है बल्कि पीड़ित व्यक्ति को आदिवासी समुदाय दंडित भी करता है। इस नाते यहां रेडियम का विकिरण फल-फूल रहा है, जबकि यहां न कोई तकनीकी सुरक्षा का इंतजाम है न प्रशिक्षण का। विडंबना देखिए, विरोध केवल नाभिकीय ऊर्जा-तंत्र का हो रहा है, जिससे कोयला माफिया के हित बाधित होते हैं।
बिजली के मामले में पूरा विश्व अनेक वैकल्पिक तकनीकों का इस्तेमाल कर रहा है। भारत भी इस दिशा में पीछे नहीं है। बल्कि कुछ तरीके तो भारत में ही दशकों पहले ईजाद और विकसित किए गए। गोबरगैस से बिजली के उत्पादन को भले बहुत बड़े पैमाने पर न आजमाया गया हो, लेकिन इसका सफल प्रयोग विश्वसनीय ढंग से किया जा चुका है। सौर ऊर्जा एक दूसरा विकल्प है जो भारत के लिए दशकों पुराना जाना-पहचाना तरीका है। भारत ने सिलिकॉन सेमीकंडक्टर टेक्नोलॉजी को आधी सदी पहले से अपनाया हुआ है और कई संस्थानों ने स्वतंत्र रूप से सौर ऊर्जा के क्षेत्र में काम किया है। तेज हवाओं वाले इलाकों में पवनचक्कियां भी बिजली बनाने में मददगार सिद्ध हुई हैं। लेकिन प्रश्न यही है कि इनमें से किसी का भी सफल होना कोयला वालों के लिए संकट की घंटी है, और कोयला वालों का नाराज होना हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनुकूल नहीं है। इस तरह, देश के सामने बिजली की स्थिति को ‘संकटपूर्ण’ से बदल कर ‘आवश्यकता से अधिक’ कर देने में कोई कठिनाई नहीं है। बहुत-से विकल्प हैं जो भाप की बेहद कम दक्षता वाली तकनीक को वैसे ही परे कर सकते हैं जैसे उसने रेल के छुक-छुक इंजन को कर दिया है। लेकिन मुश्किल यही है कि उसके हाथ काले हैं और बंधे हुए भी।
Path Alias
/articles/baijalai-utapaadana-kai-khaamaiyaan
Post By: Hindi