बिजली न डीजल, फिर भी सिंचाई

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प्रकृति, वन्य जीव और जंगल का संरक्षण करते हुए कृषि के लिए पानी की व्यवस्था करना सम्भव हुआ। इससे यह भी जाहिर होता है कि घने जंगलों में रहने वाले ग्रामवासियों के विकास और पर्यावरण संरक्षण में कोई टकराव होना जरूरी नहींं है। वन संरक्षण और वन्य प्राणी संरक्षण के लिए उन्हें हटाना जरूरी नहींं है। ऐसे तरीके खोजे जा सकते हैं, जिनसे दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें। लेकिन विडम्बना यह है कि बावजूद इसके सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के अधिकारी इन्हें विस्थापित करने पर तुले हैं।

आमतौर पर बिना बिजली, डीजल इंजन या पशुधन की ऊर्जा के खेतों की सिंचाई करना मुश्किल है लेकिन सतपुड़ा के घने जंगलों में स्थित दो गाँव के लोगों ने यह कर दिखाया है। अपनी कड़ी मेहनत, कौशल और सूझबूझ से वे पहाड़-जंगल के नदी-नालों से अपने खेतों तक पानी लाने में कामयाब हुए और अनाज पैदा करने लगे हैं। जंगल पर आधारित जीवन से खेती की ओर मुडे़ आदिवासी भरपेट भोजन करने लगे हैं। लेकिन उनकी मुसीबतों का दौर थमा नहींं। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के कोर एरिया की अधिसूचना जारी हो गई है।

विस्थापन की तलवार इन दोनों गाँवों समेत 75 गाँवों पर लटकी है जिससे गाँववालों में अपने भविष्य को लेकर असमंजस और अनिश्चय बना हुआ है। होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखण्ड में सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच बसे वनग्राम राईखेड़ा में प्यासे खेतों को पानी पिलाने की पहल करीब 20 पहले शुरू हुई, जब गाँव के 16 लोगों ने गांजाकुम्वर नामक नदी से पानी लाने का बीड़ा उठाया। यह काम आसान नहींं था। खेतों से नदी की दूरी लगभग 5 किलोमीटर थी, जिसके बीच नाली का निर्माण कार्य करना आवश्यक था। लेकिन इन संकल्पवान लोगों की माली हालत अच्छी नहींं थी।

वे खुद मजदूरी कर गुजारा करते थे। इस सामुदायिक स्वैच्छिक काम में ज्यादा समय लगने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो रहा था क्योंकि इससे उन्हें आर्थिक मदद नहींं मिलती थी, उल्टे अपने संसाधन इसमें लगाने पड़ रहे थे। इसके लिए कुछ कर्ज भी लिया गया। शुरुआत में गाँव के लोगों ने इस सार्थक पहल का मजाक उड़ाया। कुछ ने कहा कि यह ऊँट के पीछे नशेनी (सीढ़ी) लगाने का काम है, जो असम्भव है। यानी पहाड़ से खेतों तक पानी लाना टेढ़ी खीर है। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहींं हारी और यह काम जारी रखा।

इस जनोपयोगी पहल से सक्रिय रूप से जुड़े लालजी कहते हैं कि हमने इस काम की प्रेरणा गाँव के ही एक बुजुर्ग से ली थी जिन्होंने एक अन्य नदी से अपने खेत तक पानी लाने का काम किया था। यह बात करीब 40-45 साल पुरानी है। फिर हम 16 लोगों ने इस काम को करने की ठानी जिसे हमने एक साल में पूरा कर लिया।

जिन लोगों को शुरू में हम पर इस काम को करने का विश्वास नहींं हो रहा था, बाद में वे भी हमारे साथ हो गए। इस इलाके की दो भौगोलिक विशिष्टताओं ने इसमें मदद की। एक तो पहाड़ी ढलान होने के कारण गांजाकुम्वर नदी में थोड़ा ऊपर जाने पर ऐसी जगह मिल गई, जो गाँव के खेतों से ऊँची थी। वहाँ पत्थर का छोटा-सा बाँध बनाने पर पानी को नालियों में मोड़कर गुरुत्वाकर्षण बल से ही खेतों में पहुँचाया जा सकता था।

दूसरे, इस नदी में साल में आठ-नौ महीने पानी बहता रहता था। जंगलों के बीच होने के कारण पानी की धारा बहती रहती थी। जंगल और पहाड़ के बीच स्थित गांजाकुम्वर नदी से पानी लाने के लिए खेतों तक नाली बनाने का बड़ा और कठिन काम शुरू किया गया। ऊँची-नीची पथरीली जमीन में नाली निर्माण होने लगा। कहीं पर कई फुट गहरी खुदाई की गई तो कहीं पर बड़ी-बड़ी चट्टानों और पत्थरों को फोड़ा गया। कहीं पर पेड़ों के खोल से छोटा पुल बनाया गया तो कहीं नाली पर भूसे और मिट्टी का लेप चढ़ाया गया।

पत्थरों की पिचिंग की गई, जिससे पानी का रिसाव न हो। और इस प्रकार, अन्ततः ग्रामवासियों को 5 किलोमीटर दूर से अपने खेतों तक पानी लाने में सफलता मिली। इस काम में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। पहाड़ से उतरे पानी से सूखे खेत तर हो गए। गेहूं और चने की हरी-भरी फसलें लहलहा उठीं। भुखमरी और कंगाली के दौर से गुजररहे कोरकू आदिवासियों के पेट की आग शान्त हो गई। लोगों के हाथों में पैसा आ गया। वे धान-धान्य से परिपूर्ण हो गए।

यहाँ सभी ग्रामवासियों को निःशुल्क पानी उपलब्ध है। पानी के वितरण में प्रायः किसी प्रकार के झगड़े नहींं होते हैं। अगर कोई छोटा-मोटा विवाद होता भी है तो उसे शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाता है। इस सम्बन्ध में लालजी का कहना है कि यहाँ सबके खेतों को पानी मिलेगा, यह तय है। यह हो सकता है कि किसी को पहले मिले और किसी को बाद में, पर मिलेगा सबको। फिर विवाद बेमतलब है।

इसके अलावा, नाली मरम्मत का कार्य भी मिल-जुलकर किया जाता है। आज गाँव में दो नालियाँ गांजाकुम्वर नदी से और तीन नालियाँ कुम्भाझिरी नदी से आती हैं। कुल मिलाकर, पूरे गाँव के खेतों में सिंचाई की व्यवस्था हो गई है।

राईखेड़ा की तरह वनग्राम आंजनढाना में भी इसी तरह की सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था है। बल्कि आंजनढाना में यह व्यवस्था राईखेड़ा से पहले की है। राईखेड़ा और आंजनढाना के बीच में भी कुछ मील का फासला है। गाँव वासियों का कहना है कि यहाँ के पल्टू दादा ने बहुत समय पहले इसकी शुरुआत की थी। वे ढोर चराने का काम करते थे। और जब वे सतधारा नाले में ढोरों को पानी पिलाने ले जाते थे तब वे वहीं पड़े-पड़े घंटों सोचा करते थे कि काश! मेरे खेत में इस नाले का पानी पहुँच जाता, तो मेरे परिवार के दिन फिर जाते।

इसके लिए उन्होंने सतत् प्रयास किए। शुरुआत में नदी पर दो बाँध बाँधने की कोशिश की पर वे कामयाब नहींं हुए। वे अपने काम में जुटे रहे और अन्ततः उन्होंने अपने बाड़े में पानी लाकर ही दम लिया। शुरुआत में उन्होंने सब्जियाँलगाईं- प्याज, भटा, टमाटर, आलू, मूली वगैरह। फिर गेहूँ बोने लगे। पल्टू दादा के बेटे बदन सिंह ने बताया कि आज हम उनकी वजह से भूखे नहींं हैं, गाँव भी समृद्ध है। पहले हम सिर्फ बारिश में कोदो, मक्का बोते थे। अब गेहूँ-चना की फसल ले रहे हैं। गाँव के लोगों को भी पानी मिल रहा है।

इस बहुमूल्य व सार्थक पहल में राईखेड़ा, आंजनढाना के बाद कोसमढोड़ा, तेंदूखेड़ा और नयाखेड़ा जैसे कुछेक गाँव के नाम और जुड़ गए हैं। इस तरह प्यासे खेतों में पानी देकर अन्न उपजाने की यह पहल क्षेत्र में फैलती जा रही है। हालांकि आंजनढाना में पक्की नाली का निर्माण वन विभाग के द्वारा करवाया गया है लेकिन राईखेड़ा में यह काम अब तक नहींं हो पाया है। गाँववालों का कहना है इसके लिए स्वीकृति मिल चुकी है फिर भी इसे लटकायाजा रहा है।

कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से कुछ बातें साफतौर पर दिखाई देती हैं। एक तो यह पूरा काम प्रकृति और पर्यावरण से सामंजस्य बनाकर किया गया क्योंकि आदिवासियों का प्रकृति से गहरा रिश्ता है। वे जंगल और वन्य जीवों के सबसे करीब रहते आए हैं। उन्हें इसकी जानकारी है। इस पूरे काम में न तो परिवेश को नुकसान पहुँचा, न जंगल को औरन ही किसी वन्य जीव को। इसमें सिंचाई के लिए पानी लाने में किसी बिजली की जरूरत भी नहींं पड़ी। लिहाजा बिजली के तार भी नहींं खींचे गए। और न ही डीजल इंजन की आवश्यकता पड़ी। कोई ध्वनि प्रदूषण भी नहींं हुआ।

इस प्रकार प्रकृति, वन्य जीव और जंगल का संरक्षण करते हुए कृषि के लिए पानी की व्यवस्था करना सम्भव हुआ।इससे यह भी जाहिर होता है कि घने जंगलों में रहने वाले ग्रामवासियों के विकास और पर्यावरण संरक्षण में कोई टकराव होना जरूरी नहींं है। वन संरक्षण और वन्य प्राणी संरक्षण के लिए उन्हें हटाना जरूरी नहींं है।

ऐसे तरीके खोजे जा सकते हैं, जिनसे दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें। लेकिन विडम्बना यह है कि बावजूद इसके सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के अधिकारी इन्हें विस्थापित करने पर तुले हैं।

दूसरी बात यह है कि अगर मौका मिले तो बिना पढे़-लिखे लोग भी अपने परम्परागत ज्ञान, अनुभव और लगन से जल प्रबन्धन जैसे तकनीकी काम को बेहतर ढंग से कर सकते हैं, यह राईखेड़ा और आंजनढाना के काम से साबित होता है। कहाँ से और किस तरह से नाली के द्वारा पहाड़ के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से पानी उनके खेतों तक पहुँचेगा, इसका पूरा अनुमान उन्होंने लगाया और इसमें वे कामयाब हुए। न तो उन्होंने इंजीनियर की तरह नाप-जोख की और न ही इस विषय पर किसी से तकनीकी जानकारी ली। अपने अनुभव से ही उन्होंने पूरा अनुमान लगाया, जो सही निकला।

तीसरी बात यह है कि सिंचाई व्यवस्था गाँव की सामूहिक पहल और प्रयास का परिणाम है। सरकारी योजनाओं एवं सरकारी धन से यह काम नहींं हुआ। सबसे बड़ी बात ग्रामीणों की कभी न हारने वाली हिम्मत और जिद थी जिसके कारण आज उनकी और उनके बच्चों की जिन्दगी में आमूलचूल बदलाव आ गया है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि ऐसे गाँवों को विस्थापित करना बिल्कुल भी उचित नहींं है। बल्कि इस तरह के और प्रयास करने की जरूरत है। बहरहाल, यह पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं।
ई-मेलः babamayaram@gmail.co.in

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