बिहार पिछड़ा क्यों

भारत का पूर्वी राज्य बिहार इतिहास के पन्नों में भले ही एक गौरवशाली और सम्पन्न राज्य दिखाई देता हो, उसका वर्तमान स्वरूप लोगों के मन में आशा और उल्लास नहीं जगाता। उपजाऊ भूमि, नदियों के जाल और खनिजों के अपार भंडारों के बावजूद बिहार की गिनती देश के सबसे पिछड़े राज्यों में होती है। लेखक ने बिहार की मौजूदा स्थिति का बेबाक विश्लेषण करते हुए विस्तृत आँकड़ों की मदद से राज्य के पिछड़ेपन का चित्र खींचा है और यह मत व्यक्त किया है कि इस राज्य को पिछड़ेपन के कूप से निकालने के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों को विशेष प्रयास करने होंगे।प्राचीन काल से ही बिहार ने लोकतंत्र, शिक्षा, राजनीति, धर्म एवं ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में देश को ही नहीं बल्कि दुनिया को मार्गदर्शन देने का कार्य किया है। लोकतंत्र के क्षेत्र में प्रसिद्ध लिच्छवी गणतंत्र और शिक्षा जगत में नालन्दा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के भग्नावशेष आज भी शिक्षा एवं ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अपने स्वरूप की कहानी कहते हैं। राजनीति के क्षेत्र में अशोक, शेरशाह, चाणक्य, 1857 के सिपाही विद्रोह के हीरो बाबू कुंवर सिंह, डा. राजेन्द्र प्रसाद, श्रीकृष्ण सिंह आदि का अपना एक अनूठा इतिहास रहा है। राष्ट्रपिता गाँधी ने भी बिहार के पश्चिमी चम्पारण को अपनी कर्मभूमि बनाया था तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने भी इसी धरती से विदेशियों को ललकारा था। धर्म के क्षेत्र में भी भगवान महावीर तथा भगवान बुद्ध के ज्ञान की मशाल से देश ही नहीं, विश्व का कोना-कोना रोशन हो रहा है।

प्रकृति ने भी बिहार के प्रति काफी उदारता दिखाई है। इसके गर्भ में पर्याप्त खनिज विद्यमान हैं। इतना ही नहीं, साल भर पानी संजोकर रखने वाली तथा अपने साथ उर्वरा मिट्टी लेकर आने वाली गंगा, गंडक, बागमती, कमला, कोशी तथा अधबारा आदि सैकड़ों नदियाँ राज्य को हरा-भरा बनाने में योगदान देती हैं।

जनसंख्या


1991 की जनगणना के अनुसार इस प्रांत की जनसंख्या 8 करोड़ 63 लाख थी जो प्रतिवर्ष करीब 20 लाख की दर से बढ़कर अब लगभग 10 करोड़ हो चुकी होगी। वर्ष 1981 की जनगणना में यह संख्या 6 करोड़ 98 लाख थी। इसके अलावा सूबे की आबादी में जन्म दर प्रति हजार 30.5 के विरुद्ध मृत्यु दर मात्र 9.4 है। जनसंख्या विस्फोट की यह स्थिति राज्य के पिछड़ेपन तथा दरिद्रता का बहुत बड़ा कारण है और इस पर नियन्त्रण नहीं किया गया तो स्थिति उत्तरोत्तर बदतर होती जाएगी।

जनसंख्या की बेलगाम वृद्धि का सीधा ताल्लुक शिक्षा तथा आर्थिक विकास से है। शिक्षा का हाल यह है कि कुल राष्ट्रीय साक्षरता 52.21 प्रतिशत में 64 प्रतिशत पुरुष तथा 39 प्रतिशत नारी साक्षरता के परिप्रेक्ष्य में बिहार में कुल 38.54 प्रतिशत साक्षरता में पुरुष साक्षरता 52 प्रतिशत तथा स्त्री साक्षरता 23 प्रतिशत है। आज भी गाँव-गवई, खासकर दलित समाज से शिक्षा कोसों दूर है। गरीब अपने बच्चों को स्कूल भेजने से अधिक उसे रोजी-रोटी से जोड़ना उपयोगी समझते हैं। दोपहर के भोजन के नाम पर गाँवों में बच्चों का विद्यालयों में नामांकन अवश्य करा दिया गया है परन्तु बच्चे स्कूलों में पढ़ने के बजाए महज खाद्यान वितरण के दिन जाते हैं स्त्री शिक्षा की स्थिति यह है कि दलित समाज में साक्षरता शब्द की भी जानकारी स्त्रियों में नहीं है। एक अन्य अध्ययन के अनुसार राज्य में अनुसूचित जातियों में 19.4 प्रतिशत तथा जनजातियों में 26.4 प्रतिशत साक्षरता है। यह विडम्बना नहीं तो क्या है कि कभी विश्व को मार्गदर्शन देने वाला बिहार निरक्षरों की अग्रिम पंक्ति में है।

कृषि


जहाँ तक आर्थिक विकास का सम्बन्ध है, देश के कृषि-प्रधान इस राज्य की 80 प्रतिशत आबादी की रोजी-रोटी का आधार खेती है परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि यहाँ के किसानों को व्यापारियों तथा उद्योगपतियों की मर्जी से जीना पड़ता है। ठीक खेती के समय बाजार से खाद, बीज, कीटनाशक, डीजल आदि गायब हो जाते हैं और किसानों को महंगी कीमत पर काले बाजार से उन्हें खरीदना पड़ता है। इतना ही नहीं खाद, बीज, कीटनाशक आदि की नकली आपूर्ति की जाती है तथा डीजल में मिलावट की जाती है। दूसरी ओर विद्युत का हाल बेहाल रहता है जिसके भरोसे खेती नहीं की जा सकती। इसका सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन तथा कृषि यन्त्रों की बर्बादी के रूप में होता है।

राज्य में कुल 173 लाख हेक्टेयर भूमि में से 77.15 लाख हेक्टेयर भूमि में कृषि होती है। इसमें से मात्र 31.5 प्रतिशत क्षेत्रों में दो फसलें उपजाई जाती हैं जबकि कुल भूमि की 15.69 प्रतिशत यानी 27.20 लाख हेक्टेयर परती तथा बंजर भूमि है। पूरे देश में जहाँ बंजर भूमि घट रही है, बिहार में वह बढ़ रही है। बिहार खासकर उत्तर बिहार की उपजाऊ मिट्टी के सम्बन्ध में विभिन्न रिपार्टों में कहा गया है कि यहाँ की मिट्टी विश्व की सबसे अच्छी मिट्टी है। जोत के आकार का छोटा होना तथा विषम वितरण भी कृषि उपज में कमी का बहुत बड़ा कारण है। देश में जोत का औसत आकार साढ़े सात एकड़ है जबकि बिहार में यह चार एकड़ है। राज्य में 80 प्रतिशत जोतें 5 एकड़ से कम की हैं। इसके अलावा कुल बोए गए क्षेत्र में करीब 21 प्रतिशत जोतें ऐसे किसानों के हाथों में हैं जिनकी जोतें 25 एकड़ से ज्यादा हैं यानी राज्य में लघु तथा सीमांत किसानों की संख्या ज्यादा है। राज्य में शुरू किया गया चकबन्दी कार्यक्रम ठप्प है। चकबंदी कार्यक्रम की सफलता से कृषि उत्पाद में वृद्धि के साथ कृषि क्षेत्र में भी वृद्धि हो सकेगी। खेती के महंगे तथा अलाभकर होने के चलते ही खेतिहर मजदूरों तथा सीमांत किसानों का रोजी-रोटी के लिए राज्य से बाहर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा तथा अन्य बड़े शहरों में लाखों की संख्या में प्रतिवर्ष पलायन होता है। हालत यह है कि विश्व की सर्वाधिक उपजाऊ भूमि रखने वाला राज्य होने के बावजूद प्रतिवर्ष लाखों टन अनाज के लिए राज्य को केन्द्र का मोहताज रहना पड़ता है।

आजादी के 50 वर्षों के बाद भी बाढ़ तथा सूखा बिहार की नियति बने हुए हैं और प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये व्यय करने पर भी यह कोढ़ बढ़ता जा रहा है। इन परिस्थितियों में प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन घटेगा और आँकड़े बताते हैं कि प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन भारतीय औसत 1025 किलोग्राम की तुलना में बिहार में 981 किलोग्राम है। यही कारण है कि कृषि आय की वृद्धि में भी बिहार अन्य राज्यों तथा राष्ट्रीय औसत से पीछे है। देश में हरित क्रांति की शुरुआत से कई प्रांत हरे हुए परन्तु बिहार के कुछ ही क्षेत्रों पर उसका प्रभाव पड़ा। शेष कृषि क्षेत्र आज भी पुरातन हलबैल के युग से गुजर रहा है। इस प्रकार सर्वाधिक आबादी के जीवनयापन का जरिया ‘खेती’ बदहाल है।

खेती के लिए सिंचाई का विशेष महत्व है परन्तु बिहार का हाल है कि आज भी वहाँ मात्र 28 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। सभी नलकूप बंद पड़े हैं। जो चालू हैं वे भी विद्युत के अभाव में सिंचाई नहीं दे पा रहे हैं। अधिकांश लिफ्ट सिंचाई योजनाएँ खराब हैं। नदियों का जाल होने के बावजूद नदियों का सिंचाई के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है। बागमती, अधबारा, कोसी सहित कई योजनाएँ सिंचाई के बजाय विनाश का ताण्डव कर रही हैं। इन पर अरबों रुपये व्यय किए जाने के बावजूद उन पर ‘डैम’ बनाकर उन्हें यूँ ही छोड़ दिया गया है।

खेतिहर किसानों को कृषि कार्य के लिए ऋण देने हेतु प्रतिवर्ष वाणिज्यिक बैंकों, सहकारिता बैंकों, भूमि विकास बैंकों सहित क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को महत्वाकांक्षी लक्ष्य दिए जाते हैं परन्तु ये संस्थाएं कृषि ऋण देने के प्रति उदासीन रहती हैं। प्रतिवर्ष आधे लक्ष्य भी पूरे नहीं होते जबकि ऋण वसूली के नाम पर बेरहमी से किसानों की कुर्की-जब्ती तथा गिरफ्तारी तक की जाती है।

खनिज एवं उद्योग


औद्योगिक इकाइयों की स्थापना तथा विदेशी विनियोग का रुख बिहार की ओर मोड़ा जाए जिससे प्रतिव्यक्ति आय बढ़ने के साथ पूँजी संचय एवं पूँजी निर्माण बढ़े तथा पिछड़ा एवं उपेक्षित बिहार भी खुशहाल बनकर राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सके।खनिज के क्षेत्र में धनी बिहार के पास देश के कुल कोयले, बॉक्साइट तथा लोहे का 50 प्रतिशत, ताम्बा 100 प्रतिशत और अभ्रक 80 प्रतिशत पाया जाता है। देश की आधी खनिज सम्पत्ति इसी प्रांत में है परन्तु उसका लाभ दूसरे प्रांतों को मिल रहा है। खनिजों के सभी मुख्यालय राज्य से बाहर हैं और उसका बिक्री कर उन्हीं राज्यों को प्राप्त होता है। कोयले की बिक्री पर वजन के आधार पर रॉयल्टी दी जाती है जबकि मूल्य आधारित रॉयल्टी तय नहीं किए जाने से राज्य को प्रतिवर्ष 200 करोड़ रुपये से अधिक की राशि से वंचित होना पड़ रहा है। स्वाभाविक है कि इतनी बड़ी राशि प्राप्त होने पर राज्य के पिछड़ेपन को दूर करने में भारी मदद होती है।

जहाँ तक उद्योग-धंधों का सम्बन्ध है, राज्य के मात्र 3.58 लाख लोग ही उद्योग-धंधों से जुड़े हुए हैं। देश के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले इस प्रांत में आँकड़े बताते हैं कि यहाँ 43,015 उद्योग-धंधे हैं जिनमें 6,938 करोड़ की स्थाई पूँजी लगी हुई है। राष्ट्रीय अनुपात में बिहार में सवा तीन प्रतिशत औद्योगिक इकाइयाँ हैं तथा उत्पादन महज 5.4 प्रतिशत है जबकि महाराष्ट्र में उत्पादन 21.2 प्रतिशत तथा तमिलनाडु और गुजरात में 11 प्रतिशत है। इतना ही नहीं, यहाँ टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी बोकारो स्टील कारखाना, बरौनी तेलशोधक कारखाना और सिंदरी, बरौनी तथा अमझौर खाद कारखाने, बंजारी, जमशेदपुर, सिंदरी तथा चाईबासा के सीमेंट कारखाने, निजी क्षेत्र में 13 चीनी मिलें तथा सार्वजनिक क्षेत्र की 15 चीनी मिलें, सहकारिता क्षेत्र में बनमनखी में सहकारी क्षेत्र की चीनी मिलें, कटिहार जूटमिल, समस्तीपुर तथा दरभंगा में पेपर मिलें, मुजफ्फरपुर, मोकामा में बोकारो स्टील प्लांट आदि मिलों की स्थापना का शुभारंभ तृतीय पंचवर्षीय योजना के तहत किया गया था। उसके बाद से उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर में आई डी पी.एल को छोड़कर किसी बड़ी औद्योगिक इकाई की स्थापना नहीं की जा सकी है। बल्कि पूर्व स्थापित इकाइयों में आधी से अधिक चीनी मिलें बंद हैं, डालमिया नगर उद्योग समूह, बरौनी खाद कारखाना, आईडीपीएल; मुजफ्फरपुर, हटिया का भारी अभियन्त्रण कॉर्पोरेशन, अशोक पेपर मिल, दरभंगा, ठाकुर पेपर मिल, समस्तीपुर सहित अन्य कई कारखाने बंद पड़े हुए हैं।

बुनियादी सुविधाएँ


उदारीकरण के दौर में बिहार में विदेशी निवेश के भी प्रयास किए गए। हाल के वर्षों में महाराष्ट्र में 5,431 करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल में 2,926 करोड़ रुपये, दिल्ली में 2,426 करोड़ रुपये और गुजरात में 1,474 करोड़ रुपये का निवेश हुआ परन्तु बिहार में मात्र 71 करोड़ रुपये का निवेश हुआ। विकास के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग बिजली की स्थिति यह है कि आजादी के पाँचवें दशक में भी बिहारवासी लालटेन युग में जीने को विवश हैं। स्थिति इतनी दयनीय है कि जिला मुख्यालयों में भी लोग बिजली के लिए तरसते हैं। प्रतिव्यक्ति विद्युत का उपभोग औद्योगीकरण का महत्त्वपूर्ण सूचकांक है। इस परिप्रेक्ष्य में बिहार में जहाँ प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति 61 किलोवाट आवर विद्युत का उपयोग किया जाता है वहाँ पंजाब में 863 किलोवाट आवर यानी 14 गुना अधिक विद्युत का उपयोग होता है और राष्ट्रीय औसत 330 किलोवाट आवर है। यातायात के क्षेत्र में प्रति एक लाख व्यक्ति पर 120 कि.मी. पक्की सड़कें हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 22.23 कि.मी. का है। बेरोजगारी का आलम यह है कि प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में खेतिहर श्रमिक दूसरे प्रांतों में रोजगार की खोज में जाते हैं। रोजगार कार्यालयों में दर्ज बेरोजगारों की संख्या 35 लाख है। ग्रामीण स्तर पर बेरोजगारी दूर करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित जवाहर रोजगार योजना तथा सुनिश्चित रोजगार योजना पर जन प्रतिनिधियों का सीधा कब्जा है। योजना के उद्देश्यों से दूर प्रखण्ड विकास पदाधिकारी रोजगार के उद्देश्य से विकास कार्य का चयन नहीं करते अपितु जन-प्रतिनिधियों की इच्छानुसार उनके चहेते ठेकेदारों के द्वारा कार्य कराते हैं और रोजगार सृजन के फर्जी आँकड़े तैयार किए जाते हैं।

गरीबी


दरिद्रता का आलम यह है कि आजादी के लंबे अरसे के बाद भी गरीबी-रेखा से नीचे बसर करने वालों की संख्या भारत में 1991 की जनगणना के अनुसार 48 प्रतिशत है। बिहार में 57.2 प्रतिशत लोग गरीबी-रेखा से नीचे हैं। अकेला मध्य प्रदेश प्रांत गरीबी के मामले में बिहार के बराबर है। उड़ीसा एवं त्रिपुरा में गरीबी ज्यादा है। शेष राज्यों में बिहार के मुकाबले कम लोग ही गरीबी-रेखा से नीचे गुजर करते हैं। इस परिस्थितियों में प्रति व्यक्ति आय भी काफी कम है। 1980-81 की कीमतों पर प्रति व्यक्ति औसत आय 91-92 में 1091 रुपये आँकी गई, जबकि उसी अवधि में पंजाब की औसत आय 3,869 रुपये और राष्ट्रीय आय 2,229 रुपये प्रति व्यक्ति थी। इन परिस्थितियों में लोगों का जीवन-स्तर निम्न होना स्वाभाविक है। एक अध्ययन के मुताबिक 72 प्रतिशत लोग कच्चे मकानों में गुजर कर रहे हैं। राजीव गाँधी पेयजल मिशन के एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य के कुल 67,546 गाँवों में से 21,42 में आंशिक पेयजल सुविधा उपलब्ध है। हमारी दरिद्रता की इससे बदसूरत स्थिति क्या हो सकती है कि आजादी के 50 वर्ष बाद भी हम लोगों को पीने का पानी नहीं दे सके हैं।

दसवें वित्त आयोग को सौंपी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य में आमदनी के अनुपात में खर्च में साढे तीन गुना वृद्धि होने की वजह से सन 2000 तक कर्ज का बोझ इस कदम बढ़ जाएगा कि प्रत्येक नवजात शिशु जन्म के साथ ही करीब 2161 रुपये का कर्जदार होगा।

उपेक्षा


आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर यह सवाल चुनौती बनकर खड़ा है कि बिहार की बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन है? निःसंदेह यह स्थिति चंद वर्षों में नहीं बनी है परन्तु इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आजादी के शुरुआती वर्षों को छोड़ शेष अवधि में बिहार में कृषि, सिंचाई, विद्युत तथा औद्योगिक विकास के लिए कुछ नहीं किया गया। न उत्पादन बढ़ा, न पूँजी संचय तथा पूँजी निर्माण हुआ और न ही प्रतिव्यक्ति आय बढी। एक ओर राजस्व तथा राज्य की आय घटी, दूसरी ओर राजकाज तथा अफसरों पर खर्च बढ़ा। स्वाभाविक है कि राज्य दरिद्र होता गया। कर्ज लेकर राज्य की व्यवस्था चलती रही जिससे आम नागरिक की रीढ़ कमजोर हुई।

बिहार की केन्द्र सरकार द्वारा भी उपेक्षा होती रही है। राज्य में औद्योगिक विकास के लिए आधारभूत संरचना की स्थापना, कृषि के विकास हेतु सिंचाई तथा ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए गए। इसका ज्वलंत प्रमाण प्रति व्यक्ति योजना व्यय तथा केन्द्रीय सहायता मद में आवंटित राशि ही है। पहली योजना में पूँजी निवेश का केन्द्रीय औसत 38 रुपये तथा राज्य का 25 रुपये था। इसी प्रकार दूसरी योजना में यह 51 रुपये तथा 40 रुपये, तृतीय में 91 रुपये तथा 57 रुपये चौथी में 142 रुपये तथा 85 रुपये तथा पाँचवीं योजना में 365 तथा 211 रुपये, छठी योजना में 892 तथा 592 रुपये तथा सातवीं योजना में 1580 के विरुद्ध 731 रुपये था। इसी प्रकार प्रति व्यक्ति केन्द्रीय सहायता का प्रथम पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय औसत 24 रुपये तथा बिहार में 14 रुपये, द्वितीय योजना में 26 रुपये तथा 19 रुपये, तृतीय योजना में 55 रुपये तथा 44 रुपये, चतुर्थ योजना में 65 रुपये तथा 58 रुपये, पाँचवीं योजना में 145 रुपये तथा 114 रुपये, छठी योजना में 258 तथा 224 रुपये तथा सातवीं योजना में 358 के विरुद्ध 304 रुपये था। निवेश तथा सहायता के इस पक्षपातपूर्ण बँटवारे के कारण भी बिहार पिछड़ेपन का शिकार रहा।

पूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने 1985-86 में तथा पूर्व प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा ने 1996-97 में दो-दो बार विकास के लिए ‘बिहार पैकेज’ की घोषणा की परन्तु बिहार को उस पैकेज का कोई लाभ नहीं मिला। बिहार की आर्थिक स्थिति तभी सुधर सकती है जब राजनीतिक दलों के नेता संकल्प के साथ भ्रष्टाचार पर हमला बोलने को आगे बढ़ें, राजकाज, मन्त्रालयों तथा अफसरों के खर्चों में व्यापक कटौती की जाए और सिंचाई, विद्युत तथा यातायात का प्रमुखता के साथ विकास किया जाए। इसके अलावा पहली तथा दूसरी पंचवर्षीय योजना से ही प्रारम्भ की गई भू-सुधार और चकबन्दी की योजनाओं को अमली जामा पहनाया जाए, बेरोजगारी निवारण हेतु लघु तथा कुटीर उद्योगों का जाल बिछाया जाए, जनसंख्या नियन्त्रण को प्रमुखता दी जाए, नदी जल उपयोग का समयबद्ध कार्यक्रम तैयार किया जाए तथा अशिक्षा उन्मूलन के साथ आम नागरिकों को शांति एवं सुरक्षा प्रदान की जाए।

राज्य सरकार मजबूती से केन्द्र से अपना हक प्राप्त करे। दूसरी ओर, केन्द्र सरकार भी संसाधन वितरण के लक्ष्य में जनसंख्या तथा पिछड़ेपन को संसाधन आवंटन का आधार बनाए। बिहार को मूल्य-आधारित खनिज की रॉयल्टी देने के साथ-साथ दूसरे राज्यों में स्थित कार्यालयों को बिहार वापिस लाया जाए। पिछड़े राज्य बिहार के आंतरिक संसाधनों को गतिमान करने के लिए आधारभूत संरचना, विद्युत, सिंचाई, परिवहन, यातायात की जिम्मेदारी केन्द्र स्वयं लेकर राज्य को अगली पंक्ति में लाने की व्यवस्था करे। औद्योगिक इकाइयों की स्थापना तथा विदेशी विनियोग का रुख बिहार की ओर मोड़ा जाए जिससे प्रतिव्यक्ति आय बढ़ने के साथ पूँजी संचय एवं पूँजी निर्माण बढ़े तथा पिछड़ा एवं उपेक्षित बिहार भी खुशहाल बनकर राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सके।

(लेखक भागलपुर विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हैं।)

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