उत्तर बिहार में लगभग हर साल बाढ़ का कहर ढाने वाली कोसी नदी के जल का उपयोग करके सिंचाई संरचना विकसित करने का उद्देश्य तय किया गया था। लेकिन साठ के दशक से निर्माणाधीन पश्चिमी कोसी नहर का निर्माण 49 सालों में भी पूरा नहीं हो पाया है। सन 1961 में शुरू होने वाली इस परियोजना के लिए योजना आयोग द्वारा 13.49 करोड़ रुपये लागत का अनुमान लगाया गया था। जबकि जल संसाधन मंत्रालय की तकनीकी सलाहकार समिति द्वारा सन 2009 में किये गए अनुमान के अनुसार परियोजना लागत बढ़कर 1307.21 करोड़ रुपये हो गई है। केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार पश्चिमी कोसी नहर की कुल अभिकल्पित सिंचाई क्षमता 2,34,800 हेक्टेअर है। इस परियोजना के पूर्ण हो जाने पर राज्य के दरभंगा, मधुबनी एवं समस्तीपुर जिलों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होगी।
पश्चिमी कोसी नहर कोसी नदी में निर्मित बैराज के पश्चिमी छोर से निकलती है, जिसका निर्माण सन 1959 से 1963 के बीच पूरा हुआ है। भारत और नेपाल की सीमा में स्थित इस बहुउद्देशीय बैराज से बाढ़ नियंत्रण, पनबिजली उत्पादन एवं सिंचाई के लिए पूर्वी और पश्चिमी नहर निर्माण की योजना तय की गई थी। बैराज स्थल पर नदी की कुल जलग्रहण क्षमता 61,788 वर्ग किमी है। आगे हम सिर्फ पश्चिमी कोसी नहर की ही बात कर रहे हैं। इस नहर को 210 क्यूेमक (घन मीटर प्रति सेकंड) की डिस्चार्ज क्षमता के लिए डिजाइन किया गया है, जिससे 3,566 वर्ग किमी क्षेत्र की सिंचाई का लक्ष्य तय किया है। जबकि यह नहर नेपाल में भी 250 वर्ग किमी क्षेत्र में सिंचाई करती है।
लम्बे समय से अधूरी पड़ी इस परियोजना को गति देने के उद्देश्य से इस परियोजना को भारत सरकार के त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम के अंतर्गत लाया गया। भारत में त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी) सन 1996-97 में भारत सरकार द्वारा निर्माणाधीन बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के तहत राज्य की अधूरी सिंचाई परियोजनाओं को केन्द्रीय ऋण सहायता के रूप में दो तिहाई हिस्सा उपलब्ध कराने का उद्देश्य तय किया गया, जिसके लिए राज्य द्वारा एक तिहाई लागत उपलब्ध कराने की शर्त तय की गई। एआईबीपी के माध्यम से उन परियोजनाओं को केन्द्रीय सहायता उपलब्ध कराने का उद्देश्य तय किया गया था जो कि राज्य की संसाधन क्षमता से परे थी और जो काफी उन्नत चरण में पहुंच चुकी थी। एआईबीपी के माध्यम से यह उम्मीद जतायी गई कि इन परियोजनाओं को सहायता उपलब्ध कराकर अगले चार कृषि मौसम के अंदर पूरा किया जा सकता है। एआईबीपी के अंतर्गत उन परियोजनाओं को शामिल नहीं किया गया जिन्हें कि किसी भी अन्य स्रोत से संसाधन उपलब्ध हो रहे थे। बिहार का कुल भौगोलिक क्षेत्र 93.6 लाख हेक्टेअर है, जिसमें 59.36 फीसदी भूमि खेती योग्य है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत बिहार में कुल पांच सिंचाई परियोजनाओं को एआईबीपी कार्यक्रम के अंतर्गत शामिल किया गया। उन पांच परियोजनाओं में से एक पश्चिमी कोसी नहर परियोजना थी।
बिहार में इस कार्यक्रम की प्रभाविता को आंकने के लिए सन 2003 से 2008 की अवधि में किए गए क्रियान्वयन का आकलन किया गया। परियोजना को एआईबीपी के अंतर्गत ऋण सहायता उपलब्ध कराये जाने के बाद भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने मार्च 2008 तक की अवधि में समाप्त हुए वित्तीय वर्ष के लिए इस परियोजनाओं का लेखा परीक्षण किया। लेखा परीक्षण के बाद यह बात उजागर हुई कि केन्द्रीय सहायता उपलब्ध कराने के बावजूद भी परियोजना के लागत व समय दोनों में वृद्धि हो रही है। इसके अलावा भी कई अनियमितताएं सामने आयी हैं जिससे इस परियोजना के निर्माण में विलंब होने की वजहें सामने आती है। 31 मार्च 2008 को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष के लिए सीएजी द्वारा किए गए लेखा परीक्षण की इस नवीनतम रिपोर्ट को अभी हाल ही में राज्य के विधानसभा में प्रस्तुत किया गया है।
चूंकि परियोजना का बांध और हेडवर्क तो पहले ही पूरा हो चुका है लेकिन सहायक ढांचे तैयार न होने की वजह से परियोजना की पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं हो पा रहा है। परियोजना के मुख्य नहर का काम तो करीब 90 फीसदी पूरा हो चुका है लेकिन वितरिकाओं का कार्य करीब 70 फीसदी ही पूरा हो पाया है। इसके अलावा परियोजना से जुड़ी जलमार्गों के निर्माण का कार्य मात्र 32 फीसदी ही पूर हो पाया है। परियोजना के निर्माण में हो रही देरी की मुख्य वजह यह है कि परियोजना के लिए आवश्यक भूमि का अधिग्रहण का कार्य बहुत ही सुस्त गति से चल रहा है। एआईबीपी के दिशानिर्देश के अनुसार किसी भी परियोजना का निर्माण कार्य उसके लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही शुरू होनी चाहिए। लेकिन इस मामले में इस दिशानिर्देश का खुला उल्ल्लंघन हुआ है। इस परियोजना के लिए कुल 4195.37 एकड़ जमीन की आवश्यकता निर्धारित की गई थी, जबकि 31 मार्च 2008 तक उसमें से केवल 883.13 एकड़ जमीन ही अधिग्रहित की जा सकी है।
जहां तक परियोजना के लागत की बात है तो सन 1961 में इसकी अनुमानित लागत 13.49 करोड़ रुपये तय की गई थी। इस लागत को अब तक तीन बार संशोधित किया जा चुका है। परियोजना की लागत को दूसरी बार सन 1996-97 में संशोधित करके 326.61 करोड़ रुपये किया गया और पूर्ण होने का वर्ष 2001 तय किया गया। इस अवधि में भी परियोजना पूरी नहीं हो सकी। इसके बाद परियोजना की लागत को तीसरी बार संशोधित करके 830.69 करोड़ रुपये किया गया और पूर्ण होने का वर्ष 2009 निर्धारित किया गया। इसके बावजूद भी परियोजना पूर्ण नहीं हो पायी है। इस तरह परियोजना के लागत को तीन बार संशोधित किया जा चुका है। लेकिन यह परियोजना आज तक पूरी नहीं हुई है। जबकि जल संसाधन मंत्रालय की तकनीकी सलाहकार समिति द्वारा सन 2009 में किये गए अनुमान के अनुसार परियोजना लागत बढ़कर 1307.21 करोड़ रुपये हो गई है। इस तरह प्रारम्भिक लागत के मुकाबले परियोजना की लागत करीब 100 गुना बढ़ चुकी है। चूकि परियोजनाओं के वितरिकाओं का निर्माण पूरा नहीं हो सका है इसलिए सन 2003-2008 की अवधि के दौरान तैयार सिंचाई क्षमता (503540 हेक्टेअर) में से सिर्फ 20 फीसदी (101268 हेक्टेअर) का ही इस्तेमाल हो सका।
इस तरह सीएजी ने अपने निष्कर्ष में कहा है कि एआईबीपी के तहत सहायता प्रदान किये जाने वाली राज्य की जिन पांच परियोजनाओं को को चार साल में तैयार करने का लक्ष्य रखा गया था, उनमें से कोई भी परियोजना शुरूआत होने के बाद 10 से 12 सालों में भी पूरा नहीं हो सकी है। इस तरह उत्तर बिहार के लोग एक तरफ तो बाढ़ की आपदा झेलने को मजबूर हैं तो दूसरी ओर पिछले 50 सालों से पश्चिमी कोसी नहर से सिंचाई का सपना भी अधूरा है।
Keywords: CAG of India, Western Kosi Canal, North Bihar, WKC, cost over run, time over run, revised cost, cost estimate, AIBP, Irrigation, under construction, 2003-2008, central assistance, land acquisition, guideline
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