बिहार में बांध : आतंक बनाम आकर्षण

बिहार में छोटी-बड़ी कई-कई नदियों को बांधने का सिलसिला युद्धस्तर पर जारी है। कहीं लम्बे-ऊँचे तटबंध, कहीं बड़े-बड़े बांध और बराज। नदियों को बांधने की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं जैसे एक ‘महायुद्ध’ की विविध कड़ियां हैं। यह महायुद्ध प्रकृति के खिलाफ लड़ा जा रहा है। कहीं इसका लक्ष्य बाढ़ पर नियंत्रण है और कहीं सुखाड़ पर विजय। इन वृहत् परियोजनाओं की निरंतर बढ़ती संख्या और वर्षों से जारी सिलसिला जैसे इस मान्यता की पुष्टि है कि महायुद्ध ‘अनिवार्य’ है। इस पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता। किसी भी युद्ध के लिए यह मान्य है कि लोग कटते-मरते हैं, बस्तियां लुटती-उजड़ती हैं और अपहरण-बलात्कार होता है। इतिहास गवाह है कि इन परिणामों की सम्भावना और पूर्व अनुभव के बावजूद युद्ध नहीं टलता। अक्सर इन ‘सामान्य परिणामों’ की धुन्ध में युद्ध के ‘महान’ लक्ष्य खो जाते हैं। इसके बावजूद युद्ध रुकता नहीं है और इतिहास इस क्रूर तथ्य का भी साक्षी है कि वे सामान्य परिणाम युद्धोन्माद को बढ़ाते हैं।

बिहार में बड़ी परियोजनाओं के नाम पर जारी नदियों को बांधने का ‘महायुद्ध’ भी आज ऐसे ही मुकाम पर है। लाखों की आबादी विस्थापन की पीड़ा झेल रही है। अरबों रुपये पानी में जा रहे हैं। करोड़ों की लूट हो रही है। परिणाम के रूप में कही बाढ़ का विराट रूप प्रकट हो रहा है और सूखाड़ का भुक्तभोगी स्थानीय जनता की पीड़ा कहीं-कहीं आक्रोश में बदल रही है। इसके बावजूद परियोजनाओं के क्रियान्वयन की रफ्तार और नयी-नयी परियोजनाओं की मंजूरी इस बात का प्रमाण देती-सी लगती है कि प्रकृति के खिलाफ यह युद्ध ‘आकर्षक’ है।
 

बहस भी बेमानी


नदी बांधने की आकर्षक अनिवार्यता का परिणाम यह है कि आज यह सवाल भी गौण हो गया है कि युद्ध का वही एकांगी स्वरूप ‘आवश्यक’ क्यों है? वह भी तब जबकि आज भारत के इतिहास में इस युद्ध के 43 वर्षों के परिणाम और अनुभव दर्ज हैं। इस युद्ध की संचालक सरकार द्वारा पेश दावों एवं आंकड़ों के रूप में भी और भुक्तभोगी जनता की हंसी व आंसुओं के रूप में भी। उनसे इस निष्कर्ष पर पहुँचना भी कठिन नहीं कि ‘प्रकृति के खिलाफ महायुद्ध’ रूपी इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से कुल फायदा अधिक हुआ या कि नुकसान? कौन-सी परियोजना सफल रही और कौन-सी विफल? अगर कहीं फायदा हुआ तो वह किसकी झोली में गया और नुकसान हुआ तो किसके सिर का बोझ बना? ये परियोजनाएं जनता की आर्थिक-सामाजिक आवश्यकता का परिणाम हैं या राजनेताओं की आकांक्षा।

लेकिन आज बड़ी परियोजनाएं आधुनिक विकास के पैमाने बनकर जैसे किसी भी तरह की बहस के दायरे से बाहर हो चुकी हैं। उनको आज ‘सब मर्जों की एक दवा’ के रूप में पेश किया जा रहा है कि उन पर प्रश्न चिन्ह लगाना या बहस की मांग करना सिर्फ ‘मरीज का प्रलाप’ मानकर नकार दिया जा सके।

इन परियोजनाओं से जुड़े ‘वैज्ञानिक चिन्तन’ और ‘सत्ता-स्वार्थ’ की ताकत इस कदर बढ़ चुकी है कि अब उनके खिलाफ आशंका एवं आक्रोश जाहिर करने वालों को अवैज्ञानिक या तेज रफ्तार विकास के दुश्मन करार देना, विरोध करने वालों का मुंह मुआवजे से बंद करना अथवा विद्रोह को गोली-बंदूक के बल पर कुचलना किसी अन्य ‘विकल्प’ की तलाश की तुलना में ज्यादा आसान माना जाने लगा है।

नदी बांधने का उन्माद आज इस बुलंदी पर है कि समाज के संचालकों की स्मृति से उस महत्वपूर्ण और भावी पीढ़ी को दिशा-निर्देश देने वाली ‘बहस’ की याद भी लगभग मिट गयी है, जो गुलाम भारत में शुरू हुई। आजाद भारत में तो दामोदर घाटी परियोजना और कोसी परियोजना के शुरू होते ही ऐसी हर बहस बेमानी ठहरा दी गयी।
 

बाढ़ नियंत्रण कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण


53 वर्ष पूर्व 1937 में 10 से 12 नवंबर तक पटना स्थित सिन्हा लाइब्रेरी में एक सम्मेलन हुआ। डा. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर तत्कालीन गवर्नर श्री हैलेट द्वारा आयोजित उस सम्मेलन में बाढ़ प्रकोप के मूल-कारण और नियंत्रण के वैकल्पिक उपायों पर लम्बी और तीखी बहस हुई।

उस सम्मेलन में शामिल अधिकांश अभियंताओं, अंग्रेज प्रशासकों से लेकर भारतीय राजनेताओं तक की राय थी कि बाढ़ विभीषिका पर नियंत्रण के लिए नदियों को ‘बांधना’ नहीं बल्कि उनको ‘मुक्त’ करना अधिक कारगर विकल्प साबित होगा।

इस राय के मूल में यह अवधारणा निहित थी कि बिहार के कृषि क्षेत्र को बाढ़ की जरूरत है। असल सवाल ‘बाढ़ नियंत्रण’ का नहीं बल्कि ‘बाढ़ विभीषिका के नियंत्रण’ का है। नदियों के प्रवाह को मुक्त कर उसे जल्द से जल्द समुद्र में समाने के लिए प्रेरित करना ‘बाढ़’ से होने वाले फायदे को कायम रखते हुए ‘बाढ़ विभीषिका’ को कम करने का सही उपाय हो सकता है।
 

‘नदी बांधना’ भारतीय राजनेताओं के लिए तकनीकी दृष्टि से एकांगी समाधान था, समेकित नहीं। दूसरी ओर नदी बांधना ब्रिटिश शासकों के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनावश्यक था। उस समय ब्रिटिश हुकूमत भारत की स्थायी संपत्ति को अपनी प्रचलित नीतियों के तहत किसी मेहनत के बगैर लूट रही थी।

इसके लिए सम्मेलन में नदियों के प्रवाह को हर प्रकार के अवरोध से मुक्त करने के उपायों की वकालत करते हुए नदियों को तटबंधों से बांधने की तकनीक का पुरजोर तरीके से विरोध किया गया। उस वक्त तत्कालीन गवर्नर श्री हैलेट ने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए 78 वर्षों के तकनीकी रिकार्डों का उल्लेख किया और यह साबित करने का प्रयास किया कि बिहार-बंगाल के नदी घाटी क्षेत्रों में सिर्फ 50 वर्ष के अन्तराल में एक खतरनाक बाढ़ आती है। उसके लिए नदियों को तटबंधों से घेरना उचित नहीं हैं। श्री हैलेट ने तटबंधों के विरोध में यहां तक कहा-‘चीन की भी यही समस्या है। अमरीका में, जहां श्रेष्ठ तकनीकी जानकारी उपलब्ध है, वहां भी नदियों पर काबू पाने में तटबंध सफल नहीं हो पाये हैं। बाढ़ की समस्या के मामले में खुला दिमाग रखता हूं, लेकिन दिल से मैं यह स्वीकार करता हूं कि तटबंध लाभ के बजाय अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।’

बंगाल के तत्कालीन अभियंता कैप्टन हाल ने उस समय तक निर्मित तटबंधों को ध्वस्त करने की अपील की।

दूसरी ओर डा. राजेन्द्र प्रसाद सहित कतिपय अन्य भारतीय राजनेताओं ने यह रेखांकित किया कि बिहार में बाढ़ की विभीषिका साल दर साल नयी बुलंदियों को छू रही है। उन्होंने उस वक्त तक निर्मित तटबंधों की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए नये विकल्पों की तलाश का आह्वान किया। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि समस्या के लिए समेकित समाधान की आवश्यकता है।
 

दृष्टि एक - दृष्टिकोण अलग


1937 से 1945 तक वह बहस जिन्दा रही। 1937 की यह बहस इस मायने में ‘अधूरी’ रही कि उसमें क्रियान्वयन के स्तर पर कोई ठोस फैसला नहीं किया जा सका, लेकिन 1945 तक उस बहस में दी गयी चेतावनियां एवं सुझाव गुलाम भारत में किसी भी योजना की मंजूरी के लिए सर्वोच्च पैमाने बने रहे। भारत के आजाद होते ही वह बहस गुलाम भारत की पिछड़ी एवं पराजित मानसिकता का प्रतीक बन गयी।

इसके साथ ही पूरी तस्वीर बदल गयी। जहां ‘गुलाम भारत’ नदियों को मुक्त करने व रखने की हिमायत कर रहा था, वहीं आजाद भारत नदियों को बांधने की हिम्मत करने लगा। शीघ्र ही आजाद भारत ने वह बहस एवं उसकी चेतावनियां ही नहीं भुला दीं, वरन भविष्य के लिए उस तरह की किसी बहस की जरूरत को भी नामंजूर कर दिया।

1937 की बहस को नकारने के प्रथम परिणाम के रूप में दामोदर घाटी परियोजना और कोसी परियोजना प्रकट हुई और उस तरह किसी ‘बहस की जरूरत’ तक को नकारने के परिणाम हैं- बिहार में करीब 428 करोड़ रूपये के खर्च से अब तक निर्मित 3 हजार 454 किलोमीटर लम्बे तटबंध तथा 5600 करोड़ रूपये (1981 के मूल्यों के आधार पर) से निर्मित निर्माणाधीन और प्रस्तावित वृहत् एवं मध्यम परियोजनाएं।

तटबंधों एवं परियोजनाओं के वर्तमान महाजाल में उलझने के पूर्व उस‘रहस्य’ को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा, जो 1937 की बहस और चिन्तन को 1947 आते-आते पूरी तरह नकारने की ‘प्रक्रिया’ में छिपा है।

यह रहस्य संक्रमण काल की उस राजनीति के विश्लेषण से स्पष्ट होगा, जो 1945 के आस-पास शुरू हुई थी और उथल-पुथल एवं अनिश्चितता के दौर से गुजरते हुए 1947 आते-आते दामोदर घाटी एवं कोसी परियोजनाओं के रूप में ठोस आकार ग्रहण करने लगी।

1937 की बहस के रिकार्ड उपलब्ध हैं। उस बहस के अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है कि ब्रिटिश शासकों एवं भारतीय राजनेताओं की ‘दृष्टि’ एक जैसी थी, लेकिन ‘दृष्टिकोण’ में फर्क था। वैज्ञानिक एवं तकनीकी मानदण्डों के आधार पर बाढ़ के कारण एवं निदान के प्रति ब्रिटिश शासकों एवं भारतीय राजनेताओं (भारतीय अभियंता भी उसमें शामिल थे) की दृष्टि एक जैसी थी, लेकिन उसके राजनीतिक नफा-नुकसान और ‘इस्तेमाल’ के संदर्भ में दोनों पक्षों के दृष्टिकोण अलग-अलग थे। विश्लेषण के जरिये इस निष्कर्ष पर पहुँचना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि भारत की आजादी के लिए संघर्षरत भारतीय राजनेता तकनीकी दृष्टि से जिस उपाय को समस्या का सही और कम नुकसानदेह निदान मान रहे थे, उसी उपाय को ब्रिटिश शासक वर्षों से चले आ रहे अपने साम्राज्यवादी शोषण को अक्षुण्ण रखने के राजनीतिक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। इसीलिए दोनों पक्षों में नदी को मुक्त करने के बारे में एक जैसी दृष्टि थी। ‘नदी बांधना’ भारतीय राजनेताओं के लिए तकनीकी दृष्टि से एकांगी समाधान था, समेकित नहीं। दूसरी ओर नदी बांधना ब्रिटिश शासकों के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनावश्यक था। उस समय ब्रिटिश हुकूमत भारत की स्थायी संपत्ति को अपनी प्रचलित नीतियों के तहत किसी मेहनत के बगैर लूट रही थी। इस सीधी आय की तुलना में नदी बांधने में मेहनत और भारी पूँजी लगाना उसके लिए फिजूलखर्ची ही था।

1945 में अचानक स्थितियां बदलीं। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन विजयी होकर भी पस्त था। उसकी आर्थिक स्थिति क्षत-विक्षत थी। उसे उद्धार के लिए ब्रिटेन के शोषण के प्रचलित जरिये नाकाफी साबित हो रहे थे। उसे शोषण के तेज और वृहत् साधनों की खोज थी।

उसी वक्त ब्रितानी हुकूमत को यह कड़वा अहसास भी हो चुका था कि अब भारत पर अपना कब्जा बनाये रखना उसके बूते के बाहर है। यानी ब्रितानी हुकूमत को शोषण के तेज एवं वृहत् साधनों की ही नहीं बल्कि उसके नये सूत्रों की तलाश थी, जो बदली हुई स्थिति में भी अक्षुण्ण रहे। जाहिर है, इस लिहाज से ब्रितानी हुक्मरानों के राजनीतिक लक्ष्य बदलने लगे।

दूसरी ओर भारत में आजादी के आंदोलन के नेतृत्व को भी यह स्पष्ट नजर आने लगा था कि ब्रिटिश शासक चंद दिनों के मेहमान हैं। पाश्चात्य चिन्तन एवं विश्व में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के पारखी के रूप में राजनेताओं को ‘सत्ता’ कोई सपना नहीं बल्कि वास्तविकता के रूप में बिलकुल प्रत्यक्ष दिख रही थी। उनमें भारत को सेवा-संघर्ष नहीं बल्कि सत्ता की आंखों से देखने की ललक जगने लगी। इस ललक का पहला संकेत यह था कि महात्मा गांधी जैसे नेता ‘आंदोलन’ की प्रेरणा-भर रह गये और पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगी ‘आजादी’ के असली ‘प्रवक्ता’ बन गये। गांधी ‘भारत का अतीत’ हो गये जबकि नेहरू ‘भारत का भविष्य’, जो शीघ्र ही वर्तमान बनने वाला था। भारत के भावी शासकों के लिए यह जरूरी था कि वे नये और आजाद भारत को सत्ता की आंखों से देखना-पहचानना सीखें। इसलिए भारत के भावी शासकों के राजनीतिक पैमाने एवं लक्ष्य तेजी से बदलने लगे, क्योंकि उन्हें जल्द ही भारत छोड़कर जाने वाले अंग्रेजी हुक्मरानों का स्थान लेना था।
 

शोषण का साधन विकास का पैमाना बना


यही दौर था जब ब्रितानी हुकूमत ने अचानक बाढ़ नियंत्रण के नाम पर एक तरफ ‘दामोदर घाटी परियोजना’ शुरू करने का फैसला किया और दूसरी तरफ ‘कोसी परियोजना’ का प्रारूप तैयार किया। इसके दो वर्ष बाद ही 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ। कांग्रेसी नेतृत्व ने ब्रिटिश हुक्मरानों से देश का शासन-भार ग्रहण किया। इसके चंद महीने पूर्व अप्रैल, 1947 में ही भारत के भावी शासकों ने कोसी परियोजना को स्वीकृत करने की घोषणा की थी। 1948 में दामोदर घाटी परियोजना का कार्य शुरू हो गया।

इस प्रकार 1937 की जो बहस 1945 आते-आते ‘गुलाम भारत’ के ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए अप्रासंगिक हो गयी, वह 1947 आते-आते आजाद भारत के कांग्रेसी शासकों के लिए भी निरर्थक हो गयी।

इतना ही नहीं 1937 की बहस में व्यक्त दोनों पक्षों की एक जैसी ‘दृष्टि’ भी 1947 आते-आते एक सौ अस्सी डिग्री घूम गयी। लेकिन आश्चर्य चकित करने वाला तथ्य है कि यह परिवर्तित दृष्टि भी दोनों पक्षों की एक जैसी रही। यानी बाढ़ नियंत्रण के लिए कल तक दोनों पक्ष नदी को मुक्त करने की वकालत कर रहे थे और अब नदी बांधने की आवश्यकता पर बल देने लगे।

जाहिर है, इसके कारण दृष्टिकोण में भी बदलाव आ गया। आज भी कहने वालों की शायद कमी नहीं होगी कि 1937 की तरह 1947 में भी दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में फर्क कायम रहा। लेकिन इस फर्क को इसके सिवा और किसी तरह से परिभाषित नहीं किया जा सकता कि परियोजनाएं ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए साम्राज्यवादी शोषण को तेज एवं अबाध बनाने का ‘साधन’ थीं, वही भारतीय शासकों के लिए आधुनिक ‘विकास’ का पैमाना बन गयीं।
 

1987 की बाढ़ में 106 स्थानों पर तटबंध ध्वस्त हुए। सरकार कहती है कि 29 स्थानों पर तटबंध खुद-ब-खुद ध्वस्त हुए, लेकिन 77 स्थानों पर लोगों ने तटबंध काट दिये। सरकार तटबंध काटने के कारणों की तफसील में जाने से बेहतर यह समझती है कि तटबंध काटने वालों को असामाजिक तत्व करार दिया जाए। वह इस सवाल पर न आश्चर्य करती है और न चिन्ता की बाढ़ सुरक्षा के लिए बने तटबंधों को ठीक बाढ़ के वक्त असामाजिक तथ्यों द्वारा तोड़ते देख भुक्तभोगी जनता कैसे और क्यों चुप रहती है ?

दूसरे महायुद्ध के बाद 1945 में कोसी योजना का प्रारूप बना, जिसमें कोसी पर नेपाल से लेकर बिहार में गंगा के संगम तक दोनों किनारों पर करीब 10 मील लम्बे सीमान्त तटबंध बनाने का प्रस्ताव था। विशेषज्ञों ने कहा कि नदी को बांधने की यह योजना तभी लाभप्रद (इफेक्टिव) हो सकती है जब वाराह क्षेत्र (नेपाल) में एक बड़ा बांध (जलाशय) बने। 1945 में बाढ़ के वक्त भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने कोसी क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण किया और उक्त परियोजना की प्राथमिक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। इस रिपोर्ट के लिए उन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका के बांध विशेषज्ञ डा. जेएल सैवेज, श्री वाल्टर यंग और भूवैज्ञानिक डा. एफएच निकेल आदि की मदद ली।

यह महज संयोग नहीं था कि लार्ड वैवेल ने उसी दौरान अचानक दामोदर घाटी बहुउद्देशीय परियोजना के क्रियान्वयन का फैसला कर लिया। बाढ़ नियंत्रण के साथ-साथ सिंचाई सुविधा और जल विद्युत उत्पादन करने की भव्य एवं आकर्षक परियोजना। इसके लिए लार्ड वैवेल ने अमरीका की ‘टेनेन्सी वैली परियोजना’ को क्रियान्वित करने वाले यहां के विशेषज्ञों से तकनीक हासिल की। यहां तक कि टेनेन्सी वैली ऑथारिटी के अध्यक्ष ई मोर्गन को दामोदर घाटी परियोजना के लिए विशेष सलाहकार बनाया गया तथा टीवीए के प्रख्यात विशेषज्ञ इंजीनियर श्री डब्ल्यू एल वुडविन की सेवाएं प्राप्त की गयीं।

प्रख्यात अभियंता स्व. कपिल भट्टाचार्य ने इस परियोजना का क्रियान्वयन शुरू होने के वक्त ही इस ब्रिटिश राज के साम्राज्यवादी शोषण को अक्षुण्ण रखने की ‘देशी शासकों की साजिश’ कहा था। उन्होंने इसके प्रमाण में यह जानकारी भी दी कि 1948 में निर्माण कार्य शुरू होने के 6 वर्ष के भीतर भारत की देसी सरकार ने करीब 45 करोड़ रुपये खर्च किये, जिसमें 21 करोड़ रुपये ब्रिटेन एवं अमरीका से वांछित सामग्री खरीदने के लिए खर्च किया गया।

दूसरी ओर दामोदर घाटी परियोजना का प्रारूप तैयार करने वाले कार्यरत विशेषज्ञों की राय को ‘अंतिम सत्य’ मानकर उसी के अनुरूप ‘कोसी परियोजना’ को भी स्थापित करने की घोषणा की गयी।

यह घोषणा 6 अप्रैल, 1947 को ही निर्मली (तत्कालीन भागलपुर, वर्तमान सहरसा) में आयोजित कोसी पीड़ितों के सम्मेलन में की गयी। उस सम्मेलन में डा. राजेन्द्र प्रसाद और श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा भी उपस्थित थे। उसमें तत्कालीन अंतरिम केन्द्रीय सरकार के निर्माण मंत्री एवं महान वैज्ञानिक श्री सी एच भाभा ने करीब 60 हजार स्थानीय बाढ़ पीड़ित गरीब जनता के समक्ष कहा, मुझे पीड़ितों का सामना करने में लज्जा का अनुभव होता है। झिझक होती है। कोसी पीड़ितों के समक्ष हम अकर्मण्य थे। मुझे कोसी नियंत्रण की सारी बाते थोथी लगती थीं, क्योंकि हमने पीड़ितों के लिए कुछ नहीं किया। अब हमारे योजनाकार एवं इंजीनियर कोसी की उच्छृंखलता को नियंत्रित करने जा रहे हैं। नदी नियंत्रण का यह आधुनिक तरीका है। इसका विकास पश्चिम के विकसित देशों में भी पिछले 25 वर्षों में ही हुआ है। हमारे देश के नदी विशेषज्ञों ने भी इसे पिछले करीब 5 वर्षों से स्वीकार किया है।

हम वाराह क्षेत्र (चतरा घाटी) में 750 फीट ऊंचा कंक्रीट का बांध बनायेंगे। उसमें एक करोड़ 10 लाख एकड़ फुट जल का संचयन होगा। उससे नेपाल और बिहार मिलाकर 30 लाख एकड़ जमीन में सिंचाई होगी और 1800 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन होगा।

1937 की बहस की चर्चा करते हुए उन्होंने यह भी कहा, ‘तकनीकी जानकारी के अभाव में कोसी जैसी उच्छृंखल नदियों के नियंत्रण के पूर्व प्रयास असफल रहे हैं। समेकित समाधान के लिए वैज्ञानिक एवं विकसित तकनीक की जानकारी न होने के कारण ही हमारे इंजीनियर ‘तटबंध हां या तटबंध नहीं’ की बहस में उलझे रहे। इसके कारण, चाहते हुए भी, कोई काम नहीं किया जा सका। सौभाग्यवश, अब बड़े बांध के नये ज्ञान को हमारे तकनीकी विशेषज्ञ बड़ी फुर्ती से आत्मसात् कर रहे हैं।’

यह एक तथ्य है कि निर्मली सम्मेलन की घोषणा आज तक महज एक ‘सपना’ बनी हुई है। इससे दीगर तथ्य यह है कि उस घोषणा के आलोक में यानी श्री भाभा द्वारा घोषित भव्य परियोजना की छाया में वर्तमान कोसी परियोजना (1953) का क्रियान्वयन हुआ, जिसमें चतरा (नेपाल) में बांध तो नहीं बना, लेकिन भारत-नेपाल सीमा पर 3,770 फीट लम्बा बराज और कोसी की धारा को सीमाबद्ध करने के लिए सैकड़ों किलोमीटर लम्बे तटबंधों का निर्माण बिना किसी बहस के संभव हो गया।

 

अखिल भारतीय स्तर पर बाढ़ से हुई औसत वार्षिक क्षति और बिहार में 1987 बाढ़ से हुई क्षति

मद

बाढ़ से अखिल भारतीय औसत वार्षिक क्षति (1953-1986)

1987 की बाढ़ से बिहार में क्षति

प्रभावित क्षेत्र (लाख एकड़)  

188.33   

117.57

प्रभावित जनसंख्या (लाख)   

313.60

286.70

फसलों की क्षतिः  

क्षेत्रफल (लाख एकड़)          

85.58             

63.47

मूल्य (लाख रु.)                 

34465.15       

58200.00

घरों की क्षति: संख्या (लाख)      

11.56             

17.00

मूल्य (लाख रु.)                 

10226.87       

25800.00

बाढ़ से मृत जानवरों की संख्या   

100630               

5302

बाढ़ से मृत मनुष्यों की संख्या     

1428              

1283

सार्वजनिक सम्पत्ति की क्षति (लाख रु.)

20017.00       

37200.00

कुल क्षति (लाख रु.)          

71509.02       

121200.00

 


स्रोतः सिंचाई विभाग/बिहार सरकार

तटबंध: बेकार नहीं खतरनाक


उसके बाद जो कुछ हुआ वह वर्तमान है। आज बिहार में विभिन्न नदियों पर बने तटबंधों की लम्बाई 3 हजार 454 किलोमीटर है।

इन तटबंधों की उपयोगिता जगजाहिर है। 1987 की बाढ़ में 106 स्थानों पर तटबंध ध्वस्त हुए। सरकार कहती है कि 29 स्थानों पर तटबंध खुद-ब-खुद ध्वस्त हुए, लेकिन 77 स्थानों पर लोगों ने तटबंध काट दिये। सरकार तटबंध काटने के कारणों की तफसील में जाने से बेहतर यह समझती है कि तटबंध काटने वालों को असामाजिक तत्व करार दिया जाए। वह इस सवाल पर न आश्चर्य करती है और न चिन्ता की बाढ़ सुरक्षा के लिए बने तटबंधों को ठीक बाढ़ के वक्त असामाजिक तथ्यों द्वारा तोड़ते देख भुक्तभोगी जनता कैसे और क्यों चुप रहती है ?

सरकारी रिपोर्ट बताती है कि 1971 से 1978 के बीच हर साल बाढ़ आयी और 1971, 1975, 1976, 1984 और 1987 में आयी बाढ़ ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ते हुए तांडव का नया इतिहास रचा।

मार्च, 1988 तक बिहार में 428.40 करोड़ रुपये तटबंधों के निर्माण में खर्च हुए, लेकिन नतीजा यह निकला कि प्रदेश का बाढ़ प्रवण क्षेत्र, जो 1954 में 25 लाख हेक्टेयर था, 1971 में 45 लाख हेक्टेयर होते हुए 1988 में 64.61 लाख हेक्टेयर हो गया।

तटबंधों के निर्माण से जिस क्षेत्र को आंशिक सुरक्षा प्रदान करने का दावा किया गया, वह क्षेत्र बाढ़ विभीषिका के स्थायी आतंक से ग्रस्त हो गया और इसके कारण दूसरे क्षेत्र में बाढ़ विभीषिका का विस्तार हुआ। तटबंधों से बाढ़ सुरक्षा नहीं बल्कि बाढ़ विभीषिका के स्थानान्तरण का परिणाम सामने आया।

सरकार हर बाढ़-विनाश के आंकड़े तैयार करती है और रिपोर्ट बनाती है, लेकिन उसके निष्कर्षों, से आंख चुराती है। निष्कर्ष यह है कि जो तटबंध बाढ़ से सुरक्षा के लिए बनाये गये थे, वे अब निरर्थक नहीं बल्कि स्थायी और भीषण बाढ़ के कारण बन गये हैं। यानी तटबंध अब सिर्फ बेकार नहीं बल्कि खतरनाक बन गये हैं। इस निष्कर्ष के बावजूद सरकार तटबंधों की लम्बाई बढ़ाने में प्राणपण जुटी हुई है।

बाढ़ से सुरक्षा यानी तटबंधों की सुरक्षा


अब स्थिति यह है कि ‘बाढ़ से सुरक्षा’ तटबंधों की सुरक्षा का दूसरा नाम है, जिस पर करोड़ों रूपये प्रतिवर्ष खर्च करने पड़ते हैं, फिर भी इन सुरक्षा उपायों को टूटने से बचाया नहीं जा पा रहा है।

1985-86 में बाढ-प्रक्षेत्र की योजना के लिए 24 करोड़ रुपये की अधिसीमा निर्धारित की गयी। इसमें से सिर्फ 4.83 करोड़ रुपये ही नये तटबंधों के निर्माण के लिए रखे गये, शेष 19.17 करोड़ रुपये कटाव निरोधक, बैंक प्रोटेक्शन, गांव एवं शहर सुरक्षा, बांधों के उच्चीकरण एवं सुदृढ़ीकरण आदि के लिए रखे गये। यानी कुल बाढ़ नियंत्रण बजट का अब मात्र 20 प्रतिशत नये तटबंधों के निर्माण के लिए और बाकी 80 प्रतिशत पुराने तटबंधों के रख-रखाव और उनकी मरम्मत पर खर्च किया जाता है।

1990 के आंकड़ों के अनुसार, बाढ़ नियंत्रण प्रक्षेत्र के लिए कुल 40.50 करोड़ निर्धारित किये गये उसमें से 10 करोड़ नये तटबंधों के निर्माण के लिए और 9 करोड़ स्थापना में खर्च किये जायेंगे। बाकी 21.50 करोड़ रुपये पुराने तटबंधों की सुरक्षा में खर्च किये जायेंगे। यानी सिर्फ 6 वर्षों 1985 से 1990 तब बाढ़ नियंत्रण के नाम पर नये तटबंधों के निर्माण में 40 करोड़ से अधिक खर्च नहीं किये गये जबकि पुराने तटबंधों की मरम्मत एव रख-रखाव में 125 करोड़ रुपये खर्च किये गये।

मार्च, 1988 तक बिहार में 3,454 किलोमीटर लम्बे तटबंध बनाकर करीब 29.23 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने का दावा किया गया। अगर प्रदेश में बाढ़ से प्रभावित 65.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को स्थिर माना जाये तो अभी भी 35.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने का काम बाकी है।

पिछले 8 वर्षों में (1980 से 1988) करीब 2.63 लाख हेक्टेयर जमीन को सुरक्षा प्रदान की गयी यानी सुरक्षा प्रदान करने की औसत रफ्तार है 0.326 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष। इस रफ्तार से पूरे बाढ़ प्रवण क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करने में अभी और 109 वर्ष लगेंगे।

आंकड़ों में निहित ‘निरीहता’ इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि उक्त तटबंधों से क्षेत्र की ‘आंशिक’ सुरक्षा ही संभव है और यह सुरक्षा भी ‘तात्कालिक’ है ‘दीर्घकालीन’ नहीं।

विनाश के द्वार को बंद करने का जादू


1945 से 47 तक के घटनाक्रम एवं निर्मली सम्मेलन में श्री भाभा की भव्य स्पष्टोक्ति के बाद इस विरोधाभास में कोई रहस्य नहीं रह जाता है कि जो माध्यम निरंतर आतंक पैदा कर रहा है, उसी के प्रति आकर्षण कायम है और वह आकर्षण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

सत्ता हस्तान्तरण के दौर में ही राजनीतिक स्तर पर यह ‘आकर्षण’ अपना जादू चला चुका था। आजादी के बाद यह जादू पूरे देश में फैला। इसे भारतीय शासकों ने सूत्रबद्ध किया और जनता ने स्वीकार किया कि विनाश का द्वार वहीं बंद किया जा सकता है जहां से विकास का द्वार खुलता है। यानी विनाश के द्वार को विकास के कपाट से बंद करने का भव्य कार्यक्रम!

विभिन्न परियोजनाओ के जरिये नदियों को बांधने के महायुद्ध का मूल संदेश भी यही है कि बाढ़ विभीषिका से राहत एक नकारात्मक पहलू है। सकारात्मक पहलू है, बाढ़ नियंत्रण की वह आधुनिक तकनीक, जो सिंचाई और बिजली की सुविधा मुहैया करे।

इस संदेश के विस्तार में जाने पर यह समझ में आयेगा कि बांध और बराज के दीर्घकालीन उपाय के अंक के रूप में शामिल होकर ‘तटबंध निर्माण’ किस राजनीति के तहत और कैसे अल्पकालीन या तात्कालिक उपाय के रूप में मान्य हो गया और अन्ततः ‘आवश्यक’ होकर उसने अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया।

इस संदेश का एक और असर हुआ। एक तरफ उत्तर बिहार की बाढ़ विभीषिका पर पूर्ण नियंत्रण के लिए वहां की तमाम प्रमुख नदियों को बांधने की योजनाएं बनने लगीं। और, दूसरी तरफ दक्षिण बिहार में सुखाड़ नियंत्रण के लिए भी वहां की मुख्य नदियों को बाँधना ही अंतिम विकल्प मान लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ है कि उत्तर बिहार में कोसी के साथ गंडक, बूढी गंडक, बागमती, कमला, महानंदा सहित अधवारा समूह की नदियों को बांधने की योजनाएं बनने लगीं और दक्षिण बिहार में दामोदर के साथ स्वर्णरेखा, औरंगा, अजय एवं अन्य नदियों को बांधने की परियोजनाएं जोर-शोर से चलने लगीं।

जल नियंत्रण की राजनीति


भौगोलिक एवं तकनीकी आधारों पर यह अनुमान लगाया गया है कि बिहार में बड़ी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से सिर्फ 65 लाख हेक्टेयर में सिंचाई सुविधा का सृजन किया जा सकता है। बाकी 50 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन को लघु सिंचाई (कुंआ, तालाब, नलकूप आदि) के साधनों तथा वर्षा के पानी पर निर्भर रहना है।

यहां यह याद रखना चाहिए कि सिंचाई परियोजनाओं के रूप में नदी बांधने का यह ‘महायुद्ध’ अब ऐसा नहीं रहा कि इस पर नियंत्रण या इसमें ‘हार या जीत’ का फैसला करना भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश के हाथ में है। अब यह महायुद्ध विश्व की महाशक्तियों के हाथ में है। यह उन महाशक्तियों की ‘पानी पर कब्जे’ की राजनीति के विस्तार की एक कड़ी बन गया है। इसके तहत लड़ाई भारत जैसे देश में होती है, लेकिन उसका नियंत्रण अमरीका जैसी महाशक्तियां विश्व बैंक जैसा संस्था के जरिये कर रही हैं। उसमें ‘जीत या हार’ का फैसला भी वही पूंजीवादी देश करते रहे हैं।

विश्व में अब जमीन और जंगल के साथ-साथ ‘जल’ भी सत्ता की राजनीति का औजार बन गया है। समुद्री जल पर कब्जे के लिए तो कई देश संघर्षरत हैं। बड़ी परियोजनाएं अब नदियों का जल, भूगर्भ जल और वर्षा के जल पर कब्जे की होड़ का प्रतीक बन गयी हैं। यह तो सामान्य समझ की बात है कि नदी मुक्त रहे तो वह आम जनता की होती है, बंधती है तो उस पर ‘कुछ लोगों’ का कब्जा हो जाता है। उस कब्जे को आम जनता तबाही और कुछ लोगों के मुनाफे के रूप में देख रही है। जैसे, सुवर्णरेखा परियोजना का मुख्य उद्देश्य टाटा के औद्योगिक क्षेत्र को पानी उपलब्ध कराना है। टाटा के औद्योगिक विकास में विदेशी एवं मल्टीनेशनल की पूंजी लगी है। यह पूंजी मुनाफा में फले इसके लिए सुवर्णरेखा परियोजना चल रही है, जिसे भरपूर मदद कर रहा है, विश्व बैंक! यहां तक कि सिंचाई परियोजनाओं के लिए तकनीक भी विदेशों से आयातित हो रही है। अगर इतने से महाशक्तियों द्वारा भारत में उपनिवेश बनाने की साजिश का पूरी तरह खुलासा न होता हो, तो यह भी जोड़ लेना चाहिए कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं ने देश में एक विशेष प्रकार की ‘हरित क्रांति’ पैदा की है। उस क्रांति में शामिल भारतीय किसान को अधिक उपज के नाम पर विशेष किस्म के बीज, रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं के लिए विदेश का ‘गुलाम’ बना दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप भारत में भी अन्तरराज्यीय जल विवाद चल रहे हैं।

इस हरित क्रांति को जिंदा रखने के लिए विदेशी तकनीक और विदेशी कर्ज के बढ़ते बोझ का यह आलम है कि जल, जंगल और जमीन के बारे में राष्ट्रीय चिन्तन और राष्ट्रीय संवेदना में दरार पड़ती जा रही है। गजब है कि विदेशी कर्ज उस गरीब पर भी है, जो उस कर्ज से पोषित सिंचाई परियोजनाओं से तबाह है।

सिंचाई परियोजनाओं की निरीह भव्यता


अब तक की इन परियोजनाओं से कुल कितना विकास हुआ और कितना विनाश ? इस संदर्भ में चंद उदाहरणों से सवाल की गहराई स्पष्ट करने के पूर्व बिहार में निर्मित, निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित परियोजनाओं की भव्य निरीहता एवं भविष्य की तस्वीर की पहचान करना अप्रासंगिक न होगा।

बिहार में छठीं पंचवर्षीय योजना (1985) तक 172 बड़ी एवं मध्यम परियोजनाएं पूरी की जा चुकी हैं। उनमें करीब 25 बड़ी परियोजनाएं हैं। सातवीं योजना के काल (1985 से 90) में 18 बृहत एवं 41 मध्यम परियोजनाओं पर कार्य जारी रहा और आठवीं पंचवर्षीय योजना काल (1990 से 95) में सरकार 9 वृहत् एवं 30 मध्यम नयी सिंचाई परियोजनाओं का काम शुरू करने वाली है। हाल तक योजना में होने वाला खर्च उस योजना के वृहत् या मध्यम होने का आधार था, लेकिन अब जिस परियोजना से 2 से 10 हजार हेक्टेयर से अधिक की सिंचाई संभव है वह मध्यम और 10 हजार हेक्टेयर से अधिक की सिंचाई करने वाली वृहत् परियोजना कहलाती है। लेकिन नदी बांधने में बांध की ऊंचाई एक निर्णायक तत्व होती है। इस दृष्टि से मझोले और वृहत् में कहीं-कहीं तो 19-20 का भी फर्क नहीं है। जैसे गुमला की सीमा पर परास डैम है। उसकी ऊंचाई 80 फीट है। वह मझोली परियोजना है। मधुपुर (देवघर) में बुढ़ई डैम बन रहा है। यह एक वृहत् परियोजना है। इसमें डैम की ऊंचाई है सवा 83 फीट। सरकारी दावों को सही मानें तो 1995 तक बिहार में कुल 272 सिंचाई परियोजनाएं पूरी हो जाएंगी अथवा पूरी होने की स्थिति में होंगी। उनमें 50 से अधिक वृहत् परियोजनाएं होंगी।

परियोजनाओं की संख्या से अधिक चौंकाते हैं, इनमें संभावित सिंचाई क्षमता के सृजन के आंकड़े।

बिहार में कुल 173 लाख हेक्टेयर जमीन है, जिसमें 115 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य है।

भौगोलिक एवं तकनीकी आधारों पर यह अनुमान लगाया गया है कि बिहार में बड़ी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से सिर्फ 65 लाख हेक्टेयर में सिंचाई सुविधा का सृजन किया जा सकता है। बाकी 50 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन को लघु सिंचाई (कुंआ, तालाब, नलकूप आदि) के साधनों तथा वर्षा के पानी पर निर्भर रहना है।

फिलहाल यह आकलन नहीं किया जा सका है कि 65 लाख हेक्टेयर में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कुल कितनी बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं की जरूरत होगी ? यह सवाल भी अनुत्तरित है कि इस 65 लाख हेक्टेयर जमीन को सिंचाई सुविधा से लैस करने के लिए सिर्फ बड़ी एवं मध्यम परियोजनाएं ही क्यों उपयोगी हैं ?

लेकिन, सरकारी आंकड़ों से यह स्पष्ट हो चुका है कि बिहार में निर्मित, निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित 272 परियोजनाओं से अधिक 38 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई क्षमता का सृजन संभव है, यानी 65 लाख हेक्टेयर के आधे हिस्से में पानी पहुंचाते-पहुंचाते 272 परियोजनाएं चुक जायेंगी।

ये 272 परियोजनाएं कब तक पूरी होंगी? इसमें मौजूद सवाल यह होगा कि बिहार की सिर्फ 65 लाख हेक्टेयर जमीन में शत प्रतिशत सिंचाई क्षमता सृजन करने का सपना कब पूरा होगा।

प्रथम पंचवर्षीय योजना से लेकर अब तक बिहार में वृहत् एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के जरिये सिंचाई क्षमता के सृजन की रफ्तार (अगर आपका सरकारी आंकड़ों पर विश्वास हो तो) 0.60 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष है। उत्तर प्रदेश में यह रफ्तार करीब 1.1 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष है।

इस रफ्तार को पैमाना मानें तो 38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमता का सृजन करने का दावा करने वाली 272 परियोजनाएं सन् 2000 तक पूरी हो जायेंगी। बाकी 27 लाख हेक्टेयर में सिंचाई क्षमता का सृजन करने में करीब 39 वर्ष लगेंगे। हालांकि यहां यह याद रखना होगा कि बिहार की कई परियोजनाएं करोड़ों रुपये पचाकर भी 15-20 वर्षों से अधूरी पड़ी हैं।

सिंचाई की सृजित क्षमता और उपयोग का वर्तमान अनुपात (बिहार में 75.58 प्रतिशत) और राष्ट्रीय औसत 83.02 प्रतिशत को ध्यान में रखा जाए तो सन् 2050 के पूर्व बिहार में 65 लाख हेक्टेयर जमीन में शत प्रतिशत सिंचाई सिर्फ एक कपोल कल्पना मात्र होगी।

परियोजनाओं की लागत का उल्लेख किये बिना बात अधूरी होगी। सरकारी आंकड़ों की गवाही यह है कि 1981 के मूल्यों के आधार पर 272 परियोजनाओं को पूरा करने में कुल 55 अरब 61 करोड़ रुपये खर्च होंगे। 1990 तक करीब 27 अरब 62 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं जबकि 45 परियोजनाएं अधूरी हैं और 39 योजनाएं प्रस्तावित हैं। 1995 तक और करीब 28 अरब रुपये खर्च किये जायेंगे।

लेकिन सरकार भी यह मानने से इन्कार करती है कि कीमतों में वृद्धि के मद्देनजर लागत का यह अनुमान गलत साबित होगा। क्योंकि प्रत्येक पंचवर्षीय योजना के दौरान बड़ी एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से प्रति हेक्टेयर में सिंचाई क्षमता के सृजन के लिए लागत में निरंतर वृद्धि हो रही है।

इससे यह अनुमान करना कठिन नहीं है कि बिहार की 65 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने के लिए बड़ी एवं मध्यम परियोजनाओं पर कुल मिलाकर सवा सौ से डेढ़ सौ अरब रुपये की लागत आयेगी। उपरोक्त तथ्यों के बावजूद विडंबना यह है कि सरकार बड़ी परियोजनाओं के प्रति मोहग्रस्त है।

भव्य परियोजनाओं के भयानक परिणाम


लगभग 1953 में शुरू हुई उत्तर बिहार में कोसी परियोजना का लक्ष्य था, उत्तर बिहार में 9 लाख घन क्यूसेक प्रवाह पर 5.28 लाख एकड़ भूमि को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करना, हुआ क्या? इस परियोजना से आज की तारीख तक दोनों तटबंधों के बीच 2.7 लाख एकड़ जमीन जल जमाव की समस्या से ग्रस्त है। तटबंधों के बनाने के समय, उनके बीच 304 गांवों में बसने वाली जनसंख्या 1.92 लाख थी। उनका जीवन स्थायी तौर पर नारकीय होगा। आज उनकी संख्या 9.5 लाख है।

यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि पूर्वी कोसी नहर प्रणाली से 17.59 लाख एकड़ (7.11 लाख हेक्टेयर) जमीन की सिंचाई का वादा किया गया था और 1985-86 तक मात्र 3.195 लाख एकड़ क्षेत्र की सिंचाई हो सकी।

दक्षिण बिहार के ‘सुखाड़ क्षेत्र’ में सिंचाई सुविधा के नाम पर चल रही है स्वर्णरेखा परियोजना। सिंहभूम जिले में चल रही दो बड़े डैम, दो बैराज एवं सात नहरों वाली इस परियोजना में विश्व बैंक आर्थिक मदद कर रहा है। 1977 में इसकी लागत 179 करोड़ थी। आज उसकी लागत बढ़कर करीब 1285 करोड़ रुपये हो गयी है।

इस परियोजना की बाबत सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों एवं गैर सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इससे चांडिल और ईचा के इलाके में करीब 182 गांव डूब जायेंगे। इनमें 44 गांव पूर्णतः डूब जायेंगे। कुल मिलाकर एक लाख लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी हैं, विस्थापित हो जायेंगे।

इससे दक्षिण बिहार (सिंहभूम) में कुल 4 लाख एकड़ जमीन को सिंचाई सुविधा प्रदान करने का लक्ष्य है, जिसके लिए करीब 1 लाख 60 हजार एकड़ जमीन आदिवासियों से छीनी जा रही है। यह आंकड़ा अभी और विस्तार पायेगा, क्योंकि अभी दो बराज एवं 5 नहरों के लिए अधिगृहीत की जाने वाली जमीन की नाप-जोख नहीं की गई है। इस परियोजना से करीब 10 हजार एकड़ क्षेत्र में फैला जंगल नष्ट हो जायेगा।

राष्ट्रीय हित बनाम क्षेत्रीय हित


इस तरह के और भी कई उदाहरण मौजूद हैं। विनाश के आतंक को विकास के आकर्षण से खत्म करने के सपने दिखाने वाली ऐसी तमाम परियोजनाओं के साथ एक तथ्य यह भी जुड़ा है कि ज्यादातर बड़े बांध ऐसे इलाकों में बनाये जा रहे हैं, जहां आधुनिक विकास का स्पर्श तक नहीं हुआ है। उन इलाकों के अनेक लोग इन परियोजनाओं को भविष्य की आशा का प्रतीक मान लेते हैं। वे इस क्रूर तर्क को बिना किसी विरोध के स्वीकार भी कर लेते हैं कि वृहत्तर समाज की भलाई के लिए किसी न किसी को कीमत अदा करनी पड़ती है। यानी देश के हित के लिए स्थानीय हित को गौण करना पड़ता है। इसके कारण कई डूब क्षेत्र के निवासी भी बड़े बांधों का पूरी ताकत से विरोध नहीं कर पाते। ऐसे लोग अन्ततः विस्थापन को अपनी नियति मानकर अपने विरोध को मुआवजा और आजीविका तक सीमित कर लेते हैं। कोयलकारो एवं स्वर्णरेखा (चांडिल डैम) की तरह अधिकतर मामलों में लोग पुनर्वास की अच्छी सुविधाओं के लिए लड़ रहे हैं। स्वर्णरेखा से जुड़े ईचा डैम जैसे मामले बहुत कम हैं, जहां लोग अपने सांस्कृतिक-सामाजिक विस्थापन को रोकने के लिए बड़े बांध का विरोध कर रहे हैं। ऐसे में, नदी को बांधने की मूल अवधारणा को चुनौती देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।

नदी बांधना आधुनिक विकास की पहचान है


यहां यह सवाल उठता है कि विकल्प के रूप में नदी को मुक्त करने की तकनीक क्यों विकसित नहीं की जाती? इस सवाल के उत्तर में पहले यह दोहराना उचित होगा कि नदी बांधने की तकनीक सिर्फ एक समस्या का समाधान नहीं, वह आधुनिक विकास की अवधारणा का अंग है। यह केन्द्रिय सत्ता का आधार है। यह वर्तमान विकसित उपभोक्तावादी सभ्यता-संस्कृति की पहचान है। इस संस्कृति के विकास की मूल अवधारणा ही यह है कि मानव प्रकृति का जेता है। नदी बांधना उसकी इसी अवधारणा की अभिव्यक्ति है।

ऐसे में नदी को मुक्त करने की तकनीक कैसे विकसित हो सकती है? इसके लिए वर्तमान संस्कृति की मूल अवधारणा पर ही प्रहार होने का खतरा आ जायेगा।

नदी को मुक्त करने के मुद्दे पर विशेषज्ञों में अक्सर होने वाली बहसें इसी बिन्दु पर आकर स्थगित भी होती हैं। जो विशेषज्ञ नदी बांधने के खतरों और तबाही से अच्छी तरह परिचित हैं, वे भी बचाव में यही कहते नजर आते हैं कि माना, मानव प्रकृति का जेता नहीं हो सकता या उसे जेता होने की प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए, लेकिन यहां यह भी याद रखना चाहिए कि मानव प्रकृति का गुलाम नहीं हो सकता और न रहना चाहिए।

बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए नदी को मुक्त करने का चिन्तन प्रकारांतर से यह भी कहता है कि मानव को बाढ़ के साथ जीने का तरीका ढूंढना चाहिए। यानी नदी किनारे सीमेंट-कंक्रीट का मकान तबाही को बढ़ायेगा। नदी क्षेत्र में सड़कें एवं रेल पथ, जो आधुनिक विकास के प्रतिमान हैं, बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाते हैं। उनका भी विकल्प खोजना होगा। इस चिन्तन को स्वीकार करने वाले यह भी कहते हैं मानव नदी के पास गया, नदी मानव के पास नहीं गयी। इसलिए मानव को नदी की प्रकृति का सम्मान करना चाहिए। इस चिन्तन को आधुनिक मानव कैसे स्वीकार करेगा? यह तो उसके अब तक अर्जित ज्ञान-विज्ञान एवं प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह लगा देगा।

अतिवादी चिन्तन से मुक्ति विकल्प का द्वार खोलेगी


तो क्या नदी बांधने का महायुद्ध इसलिए जारी रहेगा कि यह अब ऐसे मोड़ पर पहुंच चुका है, जहां से योद्धा वापस नहीं आ सकता? क्या बड़े बांध, बड़ी परियोजनाएं विकल्पहीन ‘विकल्प’ हैं ?

इसके जवाब में यह सवाल उठे कि क्या नदी बांधने को महायुद्ध की संज्ञा देकर हर बड़ी परियोजना को नकार देना अतिवादी एवं पुरानी पराजित मानसिकता का परिचायक नहीं हैं ?

आज बिहार में बड़े बांध विरोधी कई लोग हैं, जो अतिवादिता के इस आक्षेप का सामना कर रहे हैं। वे बताना चाहते हैं कि ‘हर नदी को बांधने का जारी सिलसिला’ स्वयं अतिवादी चिन्तन का परिणाम है। इसके कारण किसी नदी को बांधने के पूर्व आवश्यकता-उद्देश्य अथवा अन्य विकल्पों के बारे में विचार-विमर्श को ही निरर्थक मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में आज तात्कालिक जीत या सफलता के लिए शार्टकट रास्ता पकड़ने वाले सत्ताधीशों के हाथ में पड़कर नदी बांधने की हर बड़ी योजना ऐसे महायुद्ध का रूप ले रही है, जिसमें हार निश्चित होते हुए भी लड़ते जाने की ‘आत्मघाती प्रवृत्ति’ निहित है।

बड़े बांधों के विरोधी कहते हैं कि नदियों को मुक्त करने व रखने का उनका अतिवादी चिन्तन नदी बांधने के आत्मघाती चिन्तन जैसा घातक नहीं है। उसमें अन्य विकल्पों के लिए अवसर है।

इस बहस के अन्य आयामों से साक्षात्कार करने के लिए यहां सिर्फ इतना कहना प्रासंगिक होगा कि अतिवादी चिन्तन से ‘मुक्ति’ समेकित समाधान के विकल्पों की तलाश की पहली शर्त है।

‘जब नदी बंधी’ से साभार

Path Alias

/articles/baihaara-maen-baandha-atanka-banaama-akarasana

Post By: Hindi
×