बिगड़ती आदतों का परिणाम है जल संकट

भारत में भयावह होता जल संकट।
भारत में भयावह होता जल संकट।

जल से ही जीवन का उद्भव हुआ है। चार्ल्स डार्विन के विकासवादी सिद्धांत में जल ही सृष्टि का उद्गम है। प्राचीन यूनानी दर्शन के पितामह थेल्स जल को ही सृष्टि का आदि तत्व मानते थे। इसके हजारों वर्ष पूर्व ऋग्वेद में जल को संपूर्ण विश्व को जन्म देने वाली मां कहा गया है - मातृमा विश्वस्य स्थानुर्जगतो जनित्री। भारत दुनिया का एक जल समृद्ध देश है, लेकिन देश के अनेक राज्यों में आज पेयजल संकट है। इसके लिए आंदोलन और संघर्ष देखने को मिल रहे हैं। लगभग 70 प्रतिशत घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। 6 करोड़ से ज्यादा लोग फ्लोराइडयुक्त पानी पीने को विवश हैं। लगभग 4 करोड लोग हर वर्ष दूषित पेयजल से बीमार होते हैं। उनमें से एक लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं। देश के 18-19 हजार गांवों में पेयजल की व्यवस्था नहीं है। देश में वर्षा से लगभग 4000 अरब घन मीटर जल धरती पर आता है। इसका 10 प्रतिशत से 15 प्रतिशत  ही उपयोग हो पाता है। 75 से 90 प्रतिशत वर्षा जल नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘‘मन की बात’’ में राष्ट्र का ध्यान जल संकट की ओर आकर्षित किया है। उन्होंने मीडिया एवं सामाजिक-सांस्कृतिक के क्षेत्र के महानुभावों से स्वच्छता अभियान की ही तर्ज पर जल संरक्षण आंदोलन का आह्वान किया है।

जल संरक्षण के काम में पहले ही काफी देर हो चुकी है। संप्रति देश की तमाम नदियां औद्योगिक प्रदूषण के कारण कचराग्रस्त हो चुकी हैं। राष्ट्रीय राजधानी में यमुना काली हो गई है। एक आकलन के अनुसार 325 नदियों का जल विषाक्त है। लगभग 150 नदियां सूख गई हैं। बिहार और महाराष्ट्र आदि के अधिकांश नदियां विलुप्त हो रही हैं। उत्तर प्रदेश की भी 15 से ज्यादा नदी सूख चुकी हैं। नदियों को पुनर्जीवित करने की योजना पर युद्ध स्तरीय प्रयासों की जरूरत है। प्रधानमंत्री का ध्यान समूचे जल प्रबंधन की ओर है, उन्होंने पेयजल, स्वच्छ जल स्रोत और गंगा योजना के विभागों को मिलाकर नया जलशक्ति मंत्रालय बनाया है। जल शक्ति से संबंधित मद में 28261.59 करोड रुपये का ताजा बजट आवंटन स्वागत योग्य है। पेयजल और स्वच्छता के लिए 2016.34 करोड रुपये और राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन के लिए 7750 करोड़ रूपये की राशि आवंटित की गई है। ‘‘हर घर जल, हर घर नल’’ की सरकारी महत्वकांशा से उम्मीदें बढ़ी हैं, लेकिन जल संकट में निदान के सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं होंगे। इसके लिए जल संचयन और जल सदुपयोग की स्वस्थ आदतों का विकास बहुत जरूरी है।

प्राचीन संस्कृति में वर्षा वन और अन्य उपास्य थे। लेकिन आयातित आधुनिक सभ्यता ने जीवन के प्रांजल के प्रति उपभोक्ता वस्तु जैसा कर दिया है। हम उसे कंपनी में नहीं बना सकते। कंपनियां बेशक पानी को बोतल बंद करती है। वे बेहिसाब भूजल निकालती हैं। ब्रांड बनाती हैं और मुनाफा कमाती हैं। उसका 20 प्रतिशत पानी बर्बाद करती हैं। ऐसे में जल संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य है और इस कर्तव्य का कोई विकल्प नहीं है। यह कर्तव्य प्रत्येक परिस्थिति में करणीय है और अनुकरणीय है।

जल की बर्बादी एवं प्रदूषण के लिए हमारी आदतें जिम्मेदार हैं। उपयोग किए गए पानी का फिर से उपयोग किया जाना चाहिए। हम स्नान में भारी मात्रा में पानी बर्बाद करते हैं। ऐसे ही वाटर पार्क से लेकर गाड़ियों की धुलाई और वाशिंग मशीन में अक्सर पानी का दुरुपयोग करते हैं। दुनिया के कुछ देशों में वॉश बेसिन से निकले पानी को पाइप से जोड़कर शौचालय की सफाई में इस्तेमाल किया जाता है। कार या कपड़े धोने अथवा एयर कंडीशनर से निकले पानी को फिर से इस्तेमाल करने की तकनीक का विकास तात्कालिक आवश्यकता है। वर्षा जल संचयन जरूरी है। प्रत्येक छत पर वर्षा जल संचयन, इस पानी का सदुपयोग और शेष पानी को पाइप द्वारा जमीन के भीतर तक ले जाने से भूगर्भ जल में बढ़ोतरी होगी। झील, तालाब, पोखर समाप्त हो गए हैं। एक अनुमान के अनुसार 1947 में लगभग 25 लाख झील पोखर थे। उन्हें पाटकर घर और बाजार बनाए गए। जिससे जलाशय घटे और वर्षा जल भूगर्भ तक नहीं पहुंचता। भांरत की जलापूर्ति का मुख्य स्रोत भूगर्भ जल है। भूगर्भ जल पर जल प्रतिवर्ष 0.3 मीटर की दर से घट रहा है। केंद्र ने देश के 256 जिलों के 1592 ब्लॉकों में जल संरक्षण की योजना घोषित की है। इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक जागरूकता भी जरूरी है। प्राचीन भारत में जीवनरस परिपूर्ण जल संस्कृति थी। झील, पोखर, कुआ, बावड़ी की पूजा होती थी। नदियां माताएं थीं। वैदिक काल में देवों से वर्षा की स्तुति की हाती थी। ऋग्वेद में वर्षा के मुख्य देवता पर्जन्य से प्रार्थना है कि वर्षा में वृद्धि हो। देवता प्रकृति की ही शक्तियां हैं। पर्जन्य देव प्रकृति का पर्यावरण चक्र और इकोलॉजिकल साइकिल हैं। इसी से वर्षा है। वर्षा से अन्न है। अन्न पोषण है, लेकिन वर्षा घट रही है। प्रकृति का इकोलॉजिकल साइकिल गड़बड़ा गया है। जल संकट है। जल का एक मुख्य स्रोत नदिया हैं। नदियां जन गण मन का प्राण प्रवाह है। ऋग्वेद में एक पुरुष सूक्त नदियों का स्तुति गान है। सिंधु नदी अन्न देती है। मधुगंधा फूल देती है। ऋग्वेद की सिंधु ईरानी आस्था ग्रंथ अवेस्ता वह हिंदू है। नदिया मनुष्य जैसी हैं। ऋग्वेद में उनसे प्रार्थना है - ‘हे गंगा यमुना, शुतुद्री, वितस्ता, सुसोमा, अस्किनी आर्जकीय हमारी स्तुतियां सुनो, सुख दो।’ एक उच्च न्यायालय ने भी गंगा को मनुष्य जैसे मानने का निर्णय सुनाया था, लेकिन हम भारतीय नदियों में पूरा कचरा, मल और शव डालते हैं। मौजूदा जल संकट अपनी संस्कृति से अलग हो जाने का परिणाम है।

वन पर्यावरण चक्र के मुख्य घटक हैं। देश का वन क्षेत्र घट रहा है। वन विभाग द्वारा सरकारी अभियानों में हर साल वृक्षारोपण होते हैं। अभियान के बाद अधिकांश वृक्ष नष्ट हो जाते हैं, लेकिन वे अभिलेखों में बने रहते हैं। इसलिए वन आच्छादित क्षेत्रफल चिंता का विषय नहीं बनते। जहां पौध नहीं वहां मेंघ क्यों बरसे ? जहां मेघ नहीं बरसते वहां पर पेड़ नहीं उगते। वनस्पति और वर्षा में परस्परावलंबन है। प्राचीन संस्कृति में वर्षा वन और अन्य उपास्य थे। लेकिन आयातित आधुनिक सभ्यता ने जीवन के प्रांजल के प्रति उपभोक्ता वस्तु जैसा कर दिया है। हम उसे कंपनी में नहीं बना सकते। कंपनियां बेशक पानी को बोतल बंद करती है। वे बेहिसाब भूजल निकालती हैं। ब्रांड बनाती हैं और मुनाफा कमाती हैं। उसका 20 प्रतिशत पानी बर्बाद करती हैं। ऐसे में जल संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य है और इस कर्तव्य का कोई विकल्प नहीं है। यह कर्तव्य प्रत्येक परिस्थिति में करणीय है और अनुकरणीय है।

पानी घट रहा है पानी की मांग बढ़ रही है। प्रधानमंत्री की पहल पर लाखों शौचालय बने हैं। नगरीय क्षेत्रों में पहले से ही लाखों शौचालय हैं। शौचालयों की सफाई में अतिरिक्त पानी लगता है। आधुनिक जीवनशैली के कारण भी पानी की मांग बढ़ी है। नगरीय सभ्यता में पानी की खपत ज्यादा होती है। भवन निर्माण में पानी का बड़े स्तर पर इस्तेमाल होता है। पानी का उपयोग और दुरुपयोग बढ़ा है। नदियां जलहीन हो रही हैं। वर्षा चक्र गड़बड़ा गया है। जनसंख्या वृद्धि तेज हो गई है। 2019 में ही मांग के अनुसार पानी का अभाव है, तो आगामी 6 से 7 वर्ष बाद भयावह जल संकट का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। भारत के पास कोई विकल्प नहीं इसलिए हम सब को जल्द प्रयोग संबंधी नया आचार शास्त्र तत्काल लागू करना होगा। चल के दुरुपयोग और जल प्रदूषण की सारी आदतें तत्काल छोड़नी चाहिए। जल अपव्यय तत्काल रोक और जल संचय की सारी गतिविधियों का चयन समय का आह्वान है। हम सब हाथ में जल लेकर जल संरक्षण का संकल्प लें। विकल्पहीन संकल्प ही समय का आह्वान है।

 

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Post By: Shivendra
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