बहती होगी वितस्ता

मेरी रीढ़ की हड्डी में
यह जो सांप घुसकर फुफकार रहा है
समुद्र की ऊब है
दूर-दूर तक फैला गहरा है समुद्र
जो शराब का रंग और तीखापन ओढ़े हुए
हर ओर छा गया है
सिल्वटहीन
सब कुछ बेहोश है
हवा का एक-एक कदम
लड़खड़ा रहा है

बड़ा डर लगता है
बीच समुद्र में आ गया हूं
चिनार के पत्तों-सा
कांप रहा है
रोम-रोम
यहां समुद्र की अनंतता का एहसास
कितना फैलता जा रहा है।
यहां आने से पहले
कितना रोक रही थी वितस्ता
जिसकी कोख से जन्म लिया है
बोली थी,
समुद्र खारा होता है
उसमें भयंकर होते हैं जंतु
जो आदमी को हड़पने से नहीं शरमाते,
क्यों
पत्ते-सा कटकर
अच्छी लगेगी
पेड़ से जुड़ने की तीव्र ललक?

मैं माना नहीं था
बच्चा था
और आज जलहीन मछली-सा
छटपटा रहा हूं
मुझे विश्वास है
वितस्ता आज भी बहती होगी
लोरियां गा-गाकर
जिन्हें वह मुझे सुनाती थी
जब मैं खेला करता था
मस्त-मलंग
उसके तीरों पर।

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