बहस: घरों में यदि हो शौचालय तो क्या रुकेगी महिला हिंसा?

Mobile Toilet
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घरों में शौचालय न होने की वजह से महिलाओं और बच्चों को कई तरह की समस्याएं उठानी पड़ती है। इसका सबसे बड़ा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। पढ़िए मासिक पत्रिका राजस्थान डायरी की रिपोर्ट।

.2011 की जनगणना के अनुसार देश के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है। ग्रामीण इलाकों में यह संख्या 69.3 प्रतिशत है। बदायूं में हाल ही में हुए दोहरे बलात्कार कांड के बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (एनएचआरसी) ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि अगर देश में ज्यादा शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा। कमीशन ने कहा ‘एनएचआरसी का जोर इस बात पर है कि हर घर में शौचालय हो।’

एनएचआरसी के इस बयान पर प्रतिक्रिया जताते हुए नेशनल कमीशन फॉर वुमन (एनसीडब्ल्यू) की सदस्या लालडिंगलियानी सैली कहती हैं, ‘मैं यकीनी तौर पर नहीं कह सकती कि देश में हो रहे बलात्कारों की संख्या का शौचालय की कमी से कोई संबंध है। महिलाएं जहां शौच के लिए जाती हैं, वे जगहें अक्सर उनके घर से बहुत दूर होती है। इसके अलावा खुले में शौच की वजह से उन्हें कई तरह की बीमारियों का खतरा तो रहता ही है, साथ ही यह मानवीय मर्यादा के भी खिलाफ है।’

महीना भर पहले ही पटना के एक करीबी गांव की महिला ने चार साल के लंबे संघर्ष के बाद अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ यह लड़ाई जीती है कि घर में शौचालय हो। पार्वती देवी 2012 में ससुराल छोड़ आई थीं, क्योंकि ससुरालवालों ने घर में शौचालय की उनकी मांग पूरी नहीं की थी। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक कहते हैं, ‘पार्वती का मामला कोई अनूठा नहीं है। रूढ़िवादी समाज व्यवस्था के बीच रहने वाली बिहार की सुदूर गांवों की महिलाएं तक अब घर में शौचालय होने की मांग उठा रही है और मांग पूरी न होने पर ससुराल छोड़ रही हैं। पाठक यह भी बताते हैं, सुलभ शुरू करने के पीछे महिलाओं की सुरक्षा और मानवीय मर्यादाओं को बरकरार रखना मुख्य मुद्दा था।’

बहुत सारे लोग शौचालयों की कमी को महिलाओं के खिलाफ हो रही यौन हिंसा से नहीं जोड़ते। पारोमिता वोहरा कहती हैं, यह सबसे जरूरी मानवीय आवश्यकता है। शौचालय की कमी की वजह से महिलाओं को कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। वोहरा ने ‘क्यू2पी’ फिल्म बनाई है, जो महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी पर आधारित है। वे बताती हैं, फिल्म आदर्श शहरी जीवन पर है, लेकिन कौन सा शहर ऐसा है, जो इसके लिए तैयार है? मर्दों के लिए पूरा शहर यूरिनल है। वे सार्वजनिक जगहों का इस्तेमाल भी निजी जगह की तरह करते हैं।


मोबाइल शौचमोबाइल शौचसार्वजनिक शौचालयों का रख-रखाव भी एक बड़ी समस्या है। वोहरा कहती है, ‘ये शौचालय साफ नहीं होते। अक्सर वहां पानी भी नहीं होता।’ इस फिल्मकार के अनुसार, मुंबई जैसे शहर में महिलाओं के लिए पर्याप्त सार्वजनिक शौचालय नहीं है। हालांकि वह यह भी कहती हैं कि दिल्ली में उनका रखरखाव बेहतर है। वोहरा के मुताबिक कानून के अनुसार महिलाओं के लिए दो-तिहाई शौचालय बनने चाहिए, लेकिन शौचालय का मसला सिर्फ संख्या से जुड़ा नहीं है।

महिलाओँ को मर्दों की बजाय ज्यादा समय लगता है। 2010 में आई यूनाइटेड नेशंस (यूएन) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लोग शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। 36 करोड़ 60 लाख लोग (आबादी का 31 प्रतिशत) शौचालयों का उपयोग करते हैं, जबकि 54 करोड़ 50 लाख लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं।

यूएन की रिपोर्ट के प्रकाशित होने और 2011 की जनगणना के बाद लगभग वैसी ही स्थिति पाए जाने पर भारत सरकार और तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने स्लोगन दिया था- शौचालय नहीं तो वधू नहीं। उन्होंने माता-पिताओं से भी आग्रह किया कि वे ऐसे परिवार में बेटी न दें, जिस घर में शौचालय न हो। यूएन के अनुमति आंकड़े के अनुसार, भारत में 59 करोड़ 40 लाख लोग शौच के लिए खुले में जाते हैं, जो पानी में सूक्ष्म जीवाणु संक्रमण का मुख्य कारण है। इसकी वजह से डायरिया होता है।

यूनिसेफ के अनुसार, भारत में 2007 में 3 लाख 86 हजार छह सौ बच्चे डायरिया से मर गए, जो विश्व में सबसे ज्यादा है, हाल ही में विश्व बैंक के डीन स्पीयर्स के अध्ययन में भी यह बात सामने आई कि खुले में शौच का असर बच्चों और महिलाओं की सेहत पर बहुत बुरा पड़ता है। गायनोकोलॉजिस्ट सुनीता मित्तल कहती हैं, खुले में शौच करने वालों के लिए वर्म का प्रकोप एक बड़ा खतरा है, ऐसी महिलाएं जो सार्वजनिक शौचालयों या खुले में शौच के लिए जाती हैं, उन्हें युरिनल इंफेक्शन का खतरा बहुत ज्यादा रहता है। भारत सरकार ने 1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया था।


खुले में शौच के लिए जोखिम उठातीं महिलाएंखुले में शौच के लिए जोखिम उठातीं महिलाएं1999 में इसका नाम बदल कर निर्मल भारत अभियान कर दिया गया। ड्रिंकिंग वाटर एंड सेनिटेशन मंत्रालय के एक सूत्र ने बताया, पिछले साल सरकार ने गांवों में लगभग 50 लाख शौचालय बनवाए। इसके बावजूद अब भी गांवों के लगभग 10 करोड़ घर ऐसे हैं, जहां शौचालय नहीं है।वर्तमान वित्तीय वर्ष में केंद्र ने इस मद में 4260 करोड़ रुपए का बजट रखा है और राज्यों ने इसके लिए लगभग 1000 करोड़ रुपए ले रखे हैं, सूत्र बताते हैं, इसके बावजूद हर घर में शौचालय बनाने की चुनौती आसान नहीं है। सिर्फ 18 प्रतिशत ग्रामीण भारत में पाइप से पानी जाता है। इतने पानी में यह संभव नहीं कि दूसरे जरूरी काम भी हो जाएं। ऐसे में शौचालय के लिए अतिरिक्त पानी की उपलब्धता मुश्किल है। एक प्रतिशत से भी कम गांवों में सीवर लाइन है। हालांकि इसका जवाब स्टैंड एलोन शौचालय है, जिसमें वेस्ट डीकम्पोज हो जाता है, पर इसे लेकर अभी जागरूकता नहीं है।

शहरों में भी स्वच्छता एक समस्या है। बिंदेश्वर पाठक कहते हैं, भारत के 7935 शहरों में से सिर्फ 160 शहरों में सीवर लाइन है। निर्मल भारत अभियान के तहत सरकार हर ग्रामीण परिवार को शौचालय बनवाने के लिए 10 हजार रुपए देती है।

जगह कहां है कि शौचालय बनवाएं


दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के करीब रेलवे लाइन से सटी झोपड़ पट्टी में रहने वाले ज्यादातर लोग दक्षिण भारतीय हैं। इन झोपड़ पट्टियों में रहने वाले लगभग 600 घरों में टीवी और फ्रिज है। बहुतों के पास गर्मी से बचने के लिए कूलर भी हैं, लेकिन किसी झोपड़ पट्टी में शौचालय नहीं है। इस क्षेत्र में कोई सामुदायिक शौचालय भी नहीं है।

यहां के मर्द, औरत और बच्चे सभी शौच के लिए रेलवे लाइन के किनारे जाते हैं। खाना बनाने का काम करने वाली सुशीला कहती हैं, निश्चित रूप से हमें परेशानी उठानी पड़ती है। मर्द, जो हमारी झोपड़पट्टी के नहीं होते छिपकर हमें देखते रहते हैं। कई बार वे हमारे मर्दों के हाथ लग जाते हैं तो वे उन्हें पीट भी देते हैं, लेकिन घर से दूर रात में खूले में शौच के लिए जाना असुरक्षित होता है। सुशीला की पड़ोसी कमला कहती हैं, रेलवे लाइन के किनारे शौच के लिए जाना बच्चों के लिए भी असुरक्षित है। बड़ों के लिए उनके साथ हमेशा जा पाना संभव नहीं हो पाता। ट्रैक पर गाड़ियां आती जाती रहती हैं। कई बार गाड़ियां काफी करीब आ जाती हैं।

यहां सवाल यह उठता है कि इतनी परेशानी के बावजूद उनके घरों में शौचालय क्यों नहीं है, कमला कहती है। आप जरा गौर से देखिए कितनी कम जगह है, कितने छोटे कमरे हैं। ऐसे में शौचालय के लिए हम जगह कहां से निकाले। सुशीला कहती हैं, चुनाव के पहले हमारी झोपड़पट्टी में कई राजनेता आए थे। हमने उनसे शौचालय बनवाने की गुहार लगाई थी। उन सबने हमें आश्वस्त भी किया था कि अगर हम जीत गए तो जरूर इस समस्या का हल करेंगे, लेकिन यहां कभी कुछ नहीं बदला।

देश में शौचालयों की स्थिति


1. 50 लाख शौचालयों का निर्माण पिछले साल सरकार ने देशभर के गांवों में करवाया है।
2. 10 करोड़ घर ऐसे हैं, जिनमें शौचालय नहीं है।
3. 50 प्रतिशत से ज्यादा देश की आबादी खुले में शौच के लिए जाती है।
4. 07 प्रतिशत बांग्लादेश और ब्राजील की आबादी खुले में शौच के लिए जाती है और चीन में मात्र 4 प्रतिशत

दिल्ली की स्थिति


1. 10.5 प्रतिशत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के घरों में शौचालय नहीं था। (2011 के आंकड़े के अनुसार)
2. 22 प्रतिशत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के घरों में शौचालय नहीं था (2001 के आंकड़े के अनुसार)
3. 2001- भारत में कुल परिवार : 19 करोड़ 19 लाख जहां,
शौचालय है- 36.4 प्रतिशत
शौचालय नहीं- 63.6 प्रतिशत

1. छत्तीसगढ़ के परिवार में सबसे कम शौचालय है। 85.8 प्रतिशत घरों में शैचालय नहीं है।
2. मिजोरम में मात्र 11 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है।

2011- भारत में कुल परिवार : 24 करोड़ 66 लाख जहां
शौचालय है- 46.9 प्रतिशत
शौचालय नहीं- 53.1 प्रतिशत

1. झारखंड और ओडिशा ऐसे राज्य हैं, जहां अधिकतम घरों में शौचालय नहीं है। यह संख्या लगभग 78 प्रतिशत है।
2. केरल राज्य में मात्र 4.8 प्रतिशत घर में ही शौचालय नहीं है।

ग्रामीण भारत


2001 भारत में कुल परिवार : 13 करोड़ 82 लाख जहां,
शौचालय है- 21.9 प्रतिशत
शौचालय नहीं- 78.1 प्रतिशत

2011- भारत में कुल परिवार : 16 करोड़ 78 लाख जहां,
शौचालय है- 30.7 प्रतिशत
शौचालय नहीं- 69.3 प्रतिशत

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Post By: Shivendra
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