मनुष्य ने ऐसे खनिजों को धरती से खोदकर बाहर निकाल लिया है, जिसके कारण धरती पर जीवन की संभावना लगातार घट रही है।ऐसे ही जल विज्ञानी ने बताया कि नदी के नीचे तीन हिस्सा और ऊपर एक हिस्सा ही पानी बहता है।नदी की रेत खोदने से नदियां मरने लगती हैं।सरकार ने जब रेत खोदने के लिए प्रारंभिक अनुमति प्रदान की तो उन्होंने चुगान शब्द प्रयोग किया था।खनन आज का काम और लूट का नाम है।जो इतिहास और मानव सभ्यता के जानकर हैं उन्होंने मोहन जोदड़ो और मेसो पोटामिया, दजला और फरात की सभ्यता के बसने का कारण वहां की नदियों की समृद्धि बताई और उजड़ने का कारण उन नदियों के ऊपरी जलागम के जंगलों की कटाई को बताया। ऐसे ही जानकर व्यक्ति ने बोला कि पृथ्वी में अनावश्यक जल भंडारण करने से और अति निर्माण करने, बांध बनाने से उसके घूमने की गति में फर्क आ चुका है और उसका प्रभाव पूरे जीवन चक्र पर पड़ रहा है।
जब हम महाकाली घाटी में वृक्ष वनस्पतियों और जीवों के बारे में जानना चाहते थे तो एक अध्ययन कर्ता ने बताया कि इन घाटियों में तीन सौ प्रकार से ज्यादा की जीवित वनस्पतियां और वन्य जीव,छोटे जीव मौजूद हैं।जिनमें नदी, जंगल, खेतों और पहाड़ों में रहने वाले जीवों की प्रजातियों की बात कही गई थी। पंचेश्वर महाकाली बांध इन सबको नष्ट कर देगा और उनके अधिवास उजड़ जायेंगे।
"हम कोई वैज्ञानिक, भूगर्भवेत्ता नहीं हैं।सामान्य लोग हैं जिनका संपर्क कभी कुछ ऐसे लोगों से हुआ जो धरती और उसमें पनपे जीवन के बारे में बड़ी समझ रखते हैं।उन्होंने हमको बताया कि प्रकृति ने कोयला, लोहा, यूरेनियम, पेट्रोलियम जैसे खनिजों को पृथ्वी के अंदर डाला और तब उसकी ऊपरी सतह पर जीवन का निर्माण संभव हो पाया।"
राम गाड़ जैसी वर्षा आधारित नदियों में भले ही इतनी जैव समृद्धि नहीं होगी लेकिन इससे कम भी नहीं होगी।उनके उजड़ने से पहले किसने पता किया कि राम गाड़ हो या दूसरी नदियां , उनमें कितनी जैव समृद्धि है।यह गहरे अध्ययन का विषय था जिसे असंवेदनशील निर्णायक व्यवस्था तंत्र ने खोजने लायक ही नहीं समझा।लोग सुंदरवन जाते हैं।विदेशों में अध्ययन के लिए जाते हैं लेकिन उनको देशज पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में बहुत कम ज्ञान है।पुराने सारे अध्ययन या तो अपूर्ण हैं या वे आम जन की दृष्टि से दूर किए जा चुके हैं।जिस तरह हरेक प्राकृतिक परितंत्र की अपनी विशेषता होती है, समुंदर हो, पठार हो, रेगिस्तान हो या कछार हो..सबमें जीवन है और सबका महत्व है, ऐसे ही हिमालय का अपना जैव परितंत्र है।उसकी जैव समृद्धि है, पारिस्थितिकी है।नदियों में खनन, बड़े बांध, अनावश्यक कब्जे, जंगलों में अत्यधिक चीड़ बचाना, अवैध दोहन, खनन, कटान, शिकार और बिना अध्ययन की पेयजल योजनाएं पूरे परितंत्र के लिए घातक साबित हुई हैं।
गंगा के पैरोकार गंगा की बात करते हुए छोटी छोटी जल धाराओं,प्राकृतिक जल श्रोतों और छोटी नदियों को भूल जाते हैं। इन नदियों का जोड़ ही गंगा कहलाता है।इन नदियों के कारण ही यहां के रहवासी हैं और हिमालय में रहना बसना संभव हुआ है।गंगा और उसकी बड़ी सहायक धाराओं में, उसके मुख्य जलागम में अत्यधिक निर्माण हुआ है। उसकी जल धाराओं को बांधा जा चुका है।छोटी जल धाराओं को लेकर कोई समझदारी नहीं होने से वे भी अपना अस्तित्व खोने लगी हैं।ऐसे में अनेक लोग छोटे छोटे प्रयास जल धाराओं, प्राकृतिक श्रोतों को बचाने के कर रहे हैं।जिनके पास संसाधन हैं ही नहीं।
देश भर की नदियों में जितने लोग प्रत्यक्ष काम कर रहे हैं, उत्तराखंड में उनसे भी अधिक लोग अपने अपने स्थानों पर नदी, जंगलों को लेकर कार्यरत हैं और चिंतित हैं। इस समझ के साथ कि नदियां जीवन का आधार हैं और उनको संरक्षित किया जाना व्यापक प्रकृति और जीवन के लिए अनिवार्य है।व्यवस्था को विकास के नाम सीमेंट के ढेर, अति खनिज और बड़े विशाल बांध, चौड़ी सड़कें अत्यधिक वाहनों की भीड़ चाहिए। यह हिमालय जैसे नाजुक परितंत्र के लिए बेहद घातक होने जा रहा है।प्रकृति का बहुत छोटा सा अंश इंसान है।जिसकी भूख बेहद बड़ी होती जा रही है।आज जब हिमालय भूकंप की दृष्टि से लगातार खतरनाक स्थिति में पहुंच रहा है, यह बड़े निर्माण विनाश के कारण बनेंगे।
2021 में राम गढ़ आपदा,उससे पहले केदारनाथ, बागेश्वर की , पिथौरागढ़ की आपदा और अभी हिमाचल और सिक्किम की विनाशकारी बाढ़ ने चेतावनी दी है।भुगतते सब लोग हैं, पंजाब, बिहार, आसाम समेत तमाम प्रदेश लेकिन नाजुक परितंत्र को बचाने और प्रकृति सहयोगी विकास की पहल कोई नहीं करता है।एक नदी पर कार्य मॉडल बन सकता है लेकिन जब तक हरेक व्यक्ति, संस्थान प्रकृति आधारित विकास की बात को नहीं समझ लेता तब तक यह प्रयास ऊंट केमुंह में जीरा जैसे ही साबित होंगे।
दक्षिणी घाट को बचाने में 36साल के अनुभव को श्री कुमार कलानंद मणि जी इस तरह सामने रखते हैं कि " हमने जिंदगी लगाकर छोटे छोटे प्रयासों को दीयों की तरह जलाया, समाज के सामने लाए, एक बड़ी आंधी, सरकारी विकास का कोई प्रोजेक्ट बना, और उसने जिंदगी भर के कामों इन छोटे दीपों को झटके में बुझा दिया।यह निराशाजनक स्थिति है।इससे उभरने का एक ही उपाय है देश और दुनिया में पर्यावरण सहयोगी विकास की पैरवी, अभियान और मॉडल खड़े किए जाएं।तमाम ऐसे प्रोजेक्ट जिनसे प्रकृति का विनाश हो रहा है, उनको बंद करके वास्तविक कार्य करें उसके लिए जन संवेदनीकरण कार्यक्रम चलाया जाए।
" हम चिंतित हैं कि लोगों का लालच घट ही नहीं रहा है।जब वैज्ञानिक यह घोषणा कर चुके हैं कि लालच आधारित विकास से पृथ्वी में मनुष्य जीवन सौ साल भी नहीं टिकेगा, तब ऐसे लालच भरे, हवस भरे कार्यक्रमों की जगह नीति निर्माता सहज जीवन, प्रकृति आधारित विकास के लिए नीतियां क्यों नहीं बना रहे हैं''
तमाम अध्ययन और पूर्व स्थापनाएं यह बताने को काफी हैं कि यह विकास मॉडल आत्मघाती हैं। हिमालय से उठी आवाजों को गौर से सुना जाना चाहिए..
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