अनेक स्कूलों के जल संकट का टिकाऊ समाधान मिला
बेयरफुट कालेज के जल-संचयन के महत्त्वपूर्ण कामों में से एक है विद्यालयों के लिये भूमिगत पानी संग्रहण का। इस प्रयास से अब उन सैंकड़ों बच्चों की प्यास बुझती है जो पहले पानी की तलाश में पड़ोस के गाँवों में भटकते रहते थे या फिर कभी-कभी प्यासे ही रह जाते थे। साथ ही उन क्षेत्रों में जहाँ पानी की गुणवत्ता काफी खराब थी, वहाँ अब बच्चों की उपस्थिति में काफी सुधार हुआ है। इससे पानी से होने वाली बीमारियों पर भी रोक लगी है। पानी के संग्रहण के लिये टाँकों की उपलब्धता से अब विद्यालयों में स्वच्छता बनाए रखने में बड़ी मदद मिलती है।
अजमेर जिले (राजस्थान) में स्थित बेयरफुट कॉलेज संस्थान के प्रयासों से न केवल इस जिले में जल-संरक्षण के महत्त्वपूर्ण प्रयास हुए हैं, अपितु देश-विदेश के अनेक कार्यकर्ताओं को यहाँ जल-संरक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त हुआ जिससे वे दूर-दूर के अनेक अन्य क्षेत्रों में भी जल-संरक्षण की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकें।बेयरफुट काॅलेज के जल-संचयन सम्बन्धी तमाम कामों की शुरुआत उसके खुद के तिलोनिया-स्थित परिसर से होती है। सावधानी से डिज़ाइन किए गए पाइपों की मदद से छतों के ऊपर जमा हुए वर्षा के पानी को भूमि के अन्दर टाँकों में संग्रहित किया जाता है। आस-पास के बहते वर्षाजल को दिशा-निर्देशित किया जाता है, थोड़े समय के लिये रोका जाता है और फिर एक खुले कुएँ में गिरा दिया जाता है। अति बहाव के समय अतिरिक्त पानी को एक दूसरे कुएँ में प्रवाहित कर दिया जाता है। छत के पानी को पेयजल के रूप में संग्रहित किया जाता है और बाकी के दूसरे प्रकार के वर्षाजल को भूमिगत जल के रिचार्ज के काम में लाया जाता है।
इसी का नतीजा है कि जब गर्मियों में अगल-बगल के गाँवों में हैण्डपम्प का पानी सूख जाता है तब तिलोनिया के कार्यालय परिसर के हैण्डपम्प में प्रायः साल भर पानी आता रहता है। नमी-संरक्षण, एक पतले पाइप के सहारे बूँद-बूँद सिंचाई इत्यादि उपायों के सहारे ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है कि हाल के दशक की कम वर्षा और सूखे के बावजूद कार्यालय परिसर हरा-भरा लगता है।
आसपास पेड़ों की हरियाली रहती है और पक्षियों की चहचहाटों से परिसर गुंजायमान रहता है। गन्दे पानी को पुनः चक्रित करके पेड़ों की सिंचाई के काम में प्रयोग किया जाता है। विशाल जल-संग्रहण क्षमता का टाँका इतना बड़ा है कि उस पर एक हजार से ज्यादा लोगों की सभा आयोजित हो जाती है।
तिलोनिया का पुराना और नया परिसर दोनों ही इसका उत्तम उदाहरण पेश करते हैं कि कैसे ज्यादा से ज्यादा वर्षा के पानी को संग्रहित किया जा सकता है। संस्था के दूसरे अधिकांश केन्द्रों-उपकेन्द्रों तथा उन गाँवों में भी जहाँ संस्था काम करती है, खासकर विद्यालयों में वर्षाजल संचयन के ये उत्तम उदाहरण आसानी से देखे जा सकते हैं।
विद्यालयों तथा कुछ अन्य भवनों के छतों पर गिरने वाला पानी सस्ते स्थानीय मैटीरियल से बने जमीन के नीचे स्थित टाँके में ले जाया जाता है। अधिकांश संग्रहित पानी पीने और स्वच्छता के कामों में प्रयोग किया जाता है। संग्रहित पानी का थोड़ा हिस्सा खुले कुओं की मदद से भूमिगत जलापूर्ति के रिचार्ज हेतु भी प्रयोग किया जाता है।
संक्षेप में कहें तो इस प्रक्रिया में ज़मीनी सतह के ऊपर से जो पानी उड़ जाता है उसे हम गाँव के बेकार व उपेक्षित कुओं में मोड़ देते हैं ताकि पानी ज़मीनी सतह के नीचे जाकर हैण्डपम्पों तथा सिंचाई वाले कुओं को पुनर्जीवित कर दे। इस प्रयास से गाँव के ऐसे कई जल-स्रोत जो बेकार हो जाते हैं, पुनः उपयोगी हो उठते हैं। अध्ययन बताते हैं कि कई लाख लीटर पानी इस प्रकार थोड़े दिनों में ही ज़मीन के नीचे संग्रहित हो जाता है और भूमिगत जलस्तर में गुणात्मक सुधार हो जाता है।
बेयरफुट काॅलेज के जल-संरक्षण परियोजना के संयोजक रामकरण बताते हैं कि उन गाँवों में जहाँ पानी में खारेपन की शिकायत थी वहाँ जब जल-संचयन के अलग-अलग तरीके अपनाए गए जैसे नाड़ी, एनीकट, चेकडैम इत्यादि तो जल का खारापन काफी हद तक दूर हो गया। रेतीले रास्तों पर यात्रा करते हुए जब आपको जल-संचयन के ये बहुतेरे ढाँचे जैसे एनीकट, बंधे और तालाब नजर आते हैं तब आप इस शानदार प्रयास की भूरि-भूरि प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। इनकी वजह से भूमिगत जल का रिचार्ज भी हो जाता है और पानी का खारापन भी दूर हो जाता है।
बेयरफुट कालेज के जल-संचयन के महत्त्वपूर्ण कामों में से एक है विद्यालयों के लिये भूमिगत पानी संग्रहण का। इस प्रयास से अब उन सैंकड़ों बच्चों की प्यास बुझती है जो पहले पानी की तलाश में पड़ोस के गाँवों में भटकते रहते थे या फिर कभी-कभी प्यासे ही रह जाते थे। साथ ही उन क्षेत्रों में जहाँ पानी की गुणवत्ता काफी खराब थी, वहाँ अब बच्चों की उपस्थिति में काफी सुधार हुआ है। इससे पानी से होने वाली बीमारियों पर भी रोक लगी है। पानी के संग्रहण के लिये टाँकों की उपलब्धता से अब विद्यालयों में स्वच्छता बनाए रखने में बड़ी मदद मिलती है। खासकर छात्राओं और शिक्षिकाओं को बड़ी राहत मिली है।
टिकावड़ा गाँव के माध्यमिक विद्यालय में एक टाँका है जिसमें 40,000 लीटर पानी संग्रहित करने की क्षमता है। इस टाँके में सीढ़ियाँ बनी है ताकि नीचे उतर कर उसकी सफाई आसानी से की जा सके। उसमें एक निकास है जिससे पहले-पहले का गन्दला पानी बाहर निकल सके। फिर उस निकास को बन्द कर दिया जाता है ताकि छना हुआ स्वच्छ पानी संग्रहित होने लगे।
इस टाँके में संग्रहित 40,000 लीटर पानी बरसात के 4-5 महीने बाद तक विद्यालय के पानी की जरूरतें पूरी करता है। फिर फरवरी महीने के आस-पास वे कुछ पानी के टैंकरों से टाँके में पानी भरवाते हैं जिससे बरसात के आने तक काम चल जाता है। पहले जब दोपहर का भोजन यहाँ बनता था तो टाँके का पानी बड़ा काम आता था, हालांकि अब तो दोपहर के भोजन के लिये पका-पकाया खाना दिया जाता है।
जल-संग्रहण की उपलब्धता की वजह से अब विद्यालय में दो शौचालयों का निर्माण भी हो गया है जिन्हें कम पानी की खपत पर प्रयोग में लाया जाता है। जल-संग्रहण की व्यवस्था से लड़कियों तथा शिक्षिकाओं के लिये शौचालय का प्रयोग सम्भव हो सका। स्वच्छता का कोई उपाय न हो पाने की वजह से अधिकांश लड़कियाँ पहले बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती थीं।
कोटड़ी गाँव के नज़दीक एक खुला (भवन-रहित) विद्यालय चलता है जिसमें प्रवासी नमक मज़दूरों के बच्चे पढ़ते हैं। चूँकि इस विद्यालय का कोई भवन ही नहीं है तो फिर छत कहाँ से आएगी? ऐसे में बेयरफुट काॅलेज ने पहले एक जलग्रहण क्षेत्र ज़मीन पर ही बनाया ताकि जो पानी ज़मीन के अन्दर समा जाता है उसे संग्रहित किया जा सकें। ऐसा होने से 80 स्कूली छात्रों की जरूरतें पूरी हो सकीं।
जलग्रहण क्षेत्र पक्का बनाया गया और इसी पक्की सतह पर जाड़े के दिनों में क्लास भी चलते हैं। कदमपुरा क्षेत्र में भी स्थानीय संसाधनों से ही एक टाँका बनवाया गया है जिसके ऊपर गुम्बद के आकार का एक मीटिंग-स्थल बना दिया गया है। सामान्यतः प्रत्येक टाँके के ऊपर एक हैण्डपम्प लगा दिया जाता है ताकि पानी लेने में मदद मिल सके।
इथियोपिया, सियेरा लियोन और सेनेगल से अनेक बेयरफुट इंजीनियर्स बेयरफुट काॅलेज में प्रशिक्षण के लिये आए हैं और लौटकर जब उन्होंने वहाँ भी इसी तरह के काम किए तो उन देशों में इसके परिणाम बड़े अच्छे तथा उत्साहवर्धक मिले हैं।
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Post By: RuralWater