अभी अलकनंदा सहित सब नदियां-गंगाएं शांत सुन्दर बह रही हैं। जैसे सारा गुस्सा उतार चुकी हों। सबक दे चुकी हों और अब अपने किनारे बसे लोगो की आजीविका और सुरक्षित भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देती हों। मानो वो कहना चाह रही हों कि कसूर किसी का था और बुराई आ गई नदियों पर किंतु नदियां इसका भी बुरा नहीं मान रही हैं। वो जो कहना चाहती थी उसे उन्होंने अपनी भाषा में जून 2013 में अच्छी तरह से बता दिया है। नदी शांत और सुंदर बह रही है। अभी तेज बारिश में भी नदी बिलकुल शांत अपना हरा रंग लेती बहती हुई अलकनंदा और उसमें मिलती धौलीगंगा, बिरही, गरुड़गंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मन्दाकिनी और ना जाने कितनी नदियां मिलकर मानो आमंत्रण ला रही हों नीचे की ओर कि आओ जो होना था वो हो गया और ये फिर होगा अगर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करोगे तो। मगर अभी तो तुम आओ ज़रूर, मेरे अंचल में आओ, मेरा जल जो प्रकृति का दूध है उसका आनंद लो और बोलो जय उत्तराखंड, मुस्कुराता उत्तराखंड।
ऊपर पहाड़ों में बादल छू रहे हैं, बादल नीचे आके भी छूते हैं। हरियाली फैली हुई है। हाँ, कहीं नीचे इलाकों में बरफ पड़ी हुई है तो उस हरियाली पर एक सफ़ेद चादर बिछ जाती है मानो प्रकृति ने एक सफ़ेद चादर चांदनी की तरह ओढ़ी हो, जैसे चाँद अपनी रात की चांदनी छोड़ गया हो। नदी के बीच में उभरते हुए, बचे हुए शैवाल, छोटी-छोटी चट्टानें।
हाँ, अलकनंदा के किनारे पर विष्णुप्रयाग बांध और मंदाकिनी पर बन रहे बांधों का मलबा ज़रूर नज़र आता है जो बताता है कि बाँध कंपनियों ने उत्तराखंड की सुन्दर प्रकृति को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग लड़ भी रहे हैं। अलकनंदा नदी पर जेपी कंपनी के विष्णुप्रयाग बाँध के दरवाजे टूटने से नीचे लाम्बगड़, पांडुकेश्वर, गोविंदघाट, विनायक चट्टी आदि में जो तबाही आई। चूंकि उसने 16-17 जून को बाँध के दरवाज़े बंद रखे। लोग इस तबाही के खिलाफ लड़ रहे हैं और पुनः अपने सौंदर्य के साथ खड़े होने की कोशिश भी है उनकी। दोबारा से नई जगह होटल बनाने की सोच है।
सरकार ने ज़्यादा पैसा तो नहीं दिया है, लोगों ने कर्ज भी लिया है, क्योंकि फिर से बसने की बात है। सब खत्म हो चुका था पर लोग दुबारा यहीं बसना चाहते हैं, उनकी फिर कोशिश है वापिस रास्ते बनाएं, जीवन तो जीना है ना। ये जिंदगी को जीने का जज्बा जो है लोगों में उसी ने उत्तराखंड को वापिस पटरी पर लाने की कोशिश की है।
सड़कों पर भरी हुई गाड़ियाँ, सामान से लदे ट्रक और कारों में आते लोग देखकर के जीवन जीने की आस फिर से उमड़ आती है. छः महीने पहले आई बाढ़ ने जो गढ़वाल और कुमाऊं के क्षेत्रों को तबाही दिखाई थी, आज वो बर्बादी सिमटी हुई नज़र आती है। उसको संभालना भी ज़रूरी है और इसके साथ ये भी समझना ज़रूरी है कि उत्तराखंड समाप्त कभी नहीं हुआ था। उत्तराखंड फिर से करवट ले कर खड़ा हो रहा है। आओ इस उत्तराखंड को हम फिर से संवारे, प्रकृति के हरे रंग को सफ़ेद चांदनी में लपेटते हुए फिर से देखे। नई सुबह के संग, नए आगाज़ के संग, आओ फिर उत्तराखंड को पुकारे फिर वही गीत गायें ‘‘बेडू पाको बारमासा, कॅाफल पकी चैता मेरी छेला”
अलकनंदा के कई किनारे टूटे ज़रूर हैं। बांधों के टूटने व उनके द्वारा बनाए गए कई कारणों की वजह से भी बहुत सारे लोग प्रभावित ज़रूर हुए। पर जून 2013 की आपदा की स्थिति याद करने के बाद आज अगर देखो तो मालूम ही नहीं पड़ता कि यहाँ आपदा आई थी। यदि आप उन गाँवों में देखें जिनके बच्चे खत्म हो गए या जिनके घर उजड़ गए।
गाँव के गाँव धंस गए। कितनी महिलाएं विधवा हुई, ना जाने कितने बच्चे कहाँ खो गए, किसी को नहीं मालूम? अब आकड़ें फीके पड़ गए हैं। राहत कार्य अलग-अलग स्तर पर चालू है। कई सरकारी योजनाएं चली हैं। ज़्यादातर बाहर के लोगों ने, गैर सरकारी संगठन ने, विभिन्न संस्थाओं ने कई प्रकार से मदद की है। यह भी सच है की कुछ हिन्दूत्ववादी शक्तियों ने खड़े होके अपने चने मटर भुनाने भी शुरू किए। हिंदुत्व की पैदावार खड़ी करने के लिए यहाँ अनेक साधु-साध्वियों के आश्रम भी खड़े हुए।
मगर इन सब के बावजूद भी, जो बची हुई है वो है उत्तराखंड की रीढ़ की हड्डी यानि यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य और लोगों की ताकत। जो बर्बादी को झेलने के बाद भी फिर से खड़े हो रहे हैं। अभी पिछले कुछ महीनों में शादियां खूब जोर-शोर से हुईं। शादियां अभी भी चालू हैं। पहाड़ी शादियां! मस्त, ढोल-नगाड़ों के बीच नाचते हुए लोग देखकर बड़ा सुकून मिलता है।
ये सब देखकर मन में प्रश्न आ सकता है कि क्या ये वही उत्तराखंड है, जहाँ मात्र 8 महीने पहले भीषण आपदा आई थी? समझ में आ जाना चाहिए कि लोगों ने प्रकृति के साथ जीना सीखा है। अपनी जिंदगी को सिरे पर लाने के लिए, फिर से उजड़े घर बनाने की, चौपट व्यापार को ठीक करने की कोशिशें जारी है। काफी कुछ तो लोग अपने ही बल पर खड़ा कर रहे हैं। सरकार या अन्य बाहरी मदद भी कहां तक सहयोग दे सकती है। तो लोगों को अपने ही बल पर ही आगे बढ़ना होगा।
अभी अलकनंदा सहित सब नदियां-गंगाएं शांत सुन्दर बह रही हैं। जैसे सारा गुस्सा उतार चुकी हों। सबक दे चुकी हों और अब अपने किनारे बसे लोगो की आजीविका और सुरक्षित भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देती हों। मानो वो कहना चाह रही हों कि कसूर किसी का था और बुराई आ गई नदियों पर किंतु नदियां इसका भी बुरा नहीं मान रही हैं। वो जो कहना चाहती थी उसे उन्होंने अपनी भाषा में जून 2013 में अच्छी तरह से बता दिया है। नदी की इस भाषा को यदि हम नही समझ पाये तो फिर मुश्किल होगी।
फिलहाल उत्तराखंड को बस इंतज़ार है तीर्थयात्रियों और पर्यटको का जो आएं और जो काला तगमा लग गया उत्तराखंड के ऊपर कि अरे यहाँ तो बाढ़ आई थी, वहाँ तो पहाड़ टूटे थे, उस सदमे को हटाने की ज़रुरत है। आज ज़रुरत है कि पर्यटक आए और यहाँ रुकें, इस समय फरवरी में अलकनंदा घाटी में इतनी सुंदरता बिखरी हुई है कि आंखे बंद ना हो। पांडुकेश्वर गांव में छः महीने के लिए ब्रदीविशाल जी विराजमान हैं। औली पर्यटन स्थल है। जहां जोशीमठ के पास पहाड़ियों पर बरफ गिर रही है। सरकारें क्यों नही शीतकालीन तीर्थाटन और पर्यटन के लिए प्रचार करती है?
ऊपर पहाड़ों में बादल छू रहे हैं, बादल नीचे आके भी छूते हैं। हरियाली फैली हुई है। हाँ, कहीं नीचे इलाकों में बरफ पड़ी हुई है तो उस हरियाली पर एक सफ़ेद चादर बिछ जाती है मानो प्रकृति ने एक सफ़ेद चादर चांदनी की तरह ओढ़ी हो, जैसे चाँद अपनी रात की चांदनी छोड़ गया हो। नदी के बीच में उभरते हुए, बचे हुए शैवाल, छोटी-छोटी चट्टानें।
हाँ, अलकनंदा के किनारे पर विष्णुप्रयाग बांध और मंदाकिनी पर बन रहे बांधों का मलबा ज़रूर नज़र आता है जो बताता है कि बाँध कंपनियों ने उत्तराखंड की सुन्दर प्रकृति को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग लड़ भी रहे हैं। अलकनंदा नदी पर जेपी कंपनी के विष्णुप्रयाग बाँध के दरवाजे टूटने से नीचे लाम्बगड़, पांडुकेश्वर, गोविंदघाट, विनायक चट्टी आदि में जो तबाही आई। चूंकि उसने 16-17 जून को बाँध के दरवाज़े बंद रखे। लोग इस तबाही के खिलाफ लड़ रहे हैं और पुनः अपने सौंदर्य के साथ खड़े होने की कोशिश भी है उनकी। दोबारा से नई जगह होटल बनाने की सोच है।
सरकार ने ज़्यादा पैसा तो नहीं दिया है, लोगों ने कर्ज भी लिया है, क्योंकि फिर से बसने की बात है। सब खत्म हो चुका था पर लोग दुबारा यहीं बसना चाहते हैं, उनकी फिर कोशिश है वापिस रास्ते बनाएं, जीवन तो जीना है ना। ये जिंदगी को जीने का जज्बा जो है लोगों में उसी ने उत्तराखंड को वापिस पटरी पर लाने की कोशिश की है।
सड़कों पर भरी हुई गाड़ियाँ, सामान से लदे ट्रक और कारों में आते लोग देखकर के जीवन जीने की आस फिर से उमड़ आती है. छः महीने पहले आई बाढ़ ने जो गढ़वाल और कुमाऊं के क्षेत्रों को तबाही दिखाई थी, आज वो बर्बादी सिमटी हुई नज़र आती है। उसको संभालना भी ज़रूरी है और इसके साथ ये भी समझना ज़रूरी है कि उत्तराखंड समाप्त कभी नहीं हुआ था। उत्तराखंड फिर से करवट ले कर खड़ा हो रहा है। आओ इस उत्तराखंड को हम फिर से संवारे, प्रकृति के हरे रंग को सफ़ेद चांदनी में लपेटते हुए फिर से देखे। नई सुबह के संग, नए आगाज़ के संग, आओ फिर उत्तराखंड को पुकारे फिर वही गीत गायें ‘‘बेडू पाको बारमासा, कॅाफल पकी चैता मेरी छेला”
अलकनंदा के कई किनारे टूटे ज़रूर हैं। बांधों के टूटने व उनके द्वारा बनाए गए कई कारणों की वजह से भी बहुत सारे लोग प्रभावित ज़रूर हुए। पर जून 2013 की आपदा की स्थिति याद करने के बाद आज अगर देखो तो मालूम ही नहीं पड़ता कि यहाँ आपदा आई थी। यदि आप उन गाँवों में देखें जिनके बच्चे खत्म हो गए या जिनके घर उजड़ गए।
गाँव के गाँव धंस गए। कितनी महिलाएं विधवा हुई, ना जाने कितने बच्चे कहाँ खो गए, किसी को नहीं मालूम? अब आकड़ें फीके पड़ गए हैं। राहत कार्य अलग-अलग स्तर पर चालू है। कई सरकारी योजनाएं चली हैं। ज़्यादातर बाहर के लोगों ने, गैर सरकारी संगठन ने, विभिन्न संस्थाओं ने कई प्रकार से मदद की है। यह भी सच है की कुछ हिन्दूत्ववादी शक्तियों ने खड़े होके अपने चने मटर भुनाने भी शुरू किए। हिंदुत्व की पैदावार खड़ी करने के लिए यहाँ अनेक साधु-साध्वियों के आश्रम भी खड़े हुए।
मगर इन सब के बावजूद भी, जो बची हुई है वो है उत्तराखंड की रीढ़ की हड्डी यानि यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य और लोगों की ताकत। जो बर्बादी को झेलने के बाद भी फिर से खड़े हो रहे हैं। अभी पिछले कुछ महीनों में शादियां खूब जोर-शोर से हुईं। शादियां अभी भी चालू हैं। पहाड़ी शादियां! मस्त, ढोल-नगाड़ों के बीच नाचते हुए लोग देखकर बड़ा सुकून मिलता है।
ये सब देखकर मन में प्रश्न आ सकता है कि क्या ये वही उत्तराखंड है, जहाँ मात्र 8 महीने पहले भीषण आपदा आई थी? समझ में आ जाना चाहिए कि लोगों ने प्रकृति के साथ जीना सीखा है। अपनी जिंदगी को सिरे पर लाने के लिए, फिर से उजड़े घर बनाने की, चौपट व्यापार को ठीक करने की कोशिशें जारी है। काफी कुछ तो लोग अपने ही बल पर खड़ा कर रहे हैं। सरकार या अन्य बाहरी मदद भी कहां तक सहयोग दे सकती है। तो लोगों को अपने ही बल पर ही आगे बढ़ना होगा।
अभी अलकनंदा सहित सब नदियां-गंगाएं शांत सुन्दर बह रही हैं। जैसे सारा गुस्सा उतार चुकी हों। सबक दे चुकी हों और अब अपने किनारे बसे लोगो की आजीविका और सुरक्षित भविष्य के लिए चिंतित दिखाई देती हों। मानो वो कहना चाह रही हों कि कसूर किसी का था और बुराई आ गई नदियों पर किंतु नदियां इसका भी बुरा नहीं मान रही हैं। वो जो कहना चाहती थी उसे उन्होंने अपनी भाषा में जून 2013 में अच्छी तरह से बता दिया है। नदी की इस भाषा को यदि हम नही समझ पाये तो फिर मुश्किल होगी।
फिलहाल उत्तराखंड को बस इंतज़ार है तीर्थयात्रियों और पर्यटको का जो आएं और जो काला तगमा लग गया उत्तराखंड के ऊपर कि अरे यहाँ तो बाढ़ आई थी, वहाँ तो पहाड़ टूटे थे, उस सदमे को हटाने की ज़रुरत है। आज ज़रुरत है कि पर्यटक आए और यहाँ रुकें, इस समय फरवरी में अलकनंदा घाटी में इतनी सुंदरता बिखरी हुई है कि आंखे बंद ना हो। पांडुकेश्वर गांव में छः महीने के लिए ब्रदीविशाल जी विराजमान हैं। औली पर्यटन स्थल है। जहां जोशीमठ के पास पहाड़ियों पर बरफ गिर रही है। सरकारें क्यों नही शीतकालीन तीर्थाटन और पर्यटन के लिए प्रचार करती है?
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