हिमालय सम्भवतः कभी इतना अस्थिर नहीं था जितना आज मानसून के दौरान होता है। अब बरसात के मौसम में इसके शिखरों के बीच से सफर करने में न केवल त्रुटिहीन योजना बल्कि भाग्य पर जबरदस्त भरोसा की जरूरत होती है। भूस्खलन, नदियों की बाढ़ और ध्वस्त पुल तकरीकबन सामान्य घटनाएँ हो गई हैं। हिमालय का सबसे नौजवान पहाड़ होना और आज भी ऊपर उठ रहे होने से खराब मौसम और प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूस्खलन और भूकम्प सामान्य चीज है। हालांकि हाल के वर्षों में आम समझ यह बनी है कि जलवायु परिवर्तन ने पहाड़ी शिखरों और ऊँचाई पर स्थित इलाकों को मैदानी क्षेत्रों से कहीं अधिक प्रभावित किया है।
हिमालय शृंखला के नाजुक क्षेत्रों को 1951 से 2013 के आँकड़ों का उपयोग करके 2015 के एक अध्ययन में चिन्हित किया गया है जो स्पष्ट करता है कि बाढ़ की घटनाएँ और उससे नुकसान बढ़ी है। यह अध्ययन ‘वेदर एंड क्लाइमेट एक्सट्रीम्स’ नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है। नुकसान में बढ़ोत्तरी कुछ हद तक अत्यधिक वर्षा की तीव्रता बढ़ने का परिणाम है जिसके बारे में वैज्ञानिक और जलवायुविद विश्वास करते हैं कि जलवायु परिवर्तन का परिणाम है।
समूचे हिमालय में 2007 की बाढ़ के बाद उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों से उसी तरह की विविधतापूर्ण व छिटफुट घटनाओं की वार्षिक रिपोर्टें लगातार आती रही हैं। अत्यधिक वर्षा और उससे जुड़ी बाढ़ ने लद्दाख (2010), जम्मू एवं कश्मीर (2013 एवं 2014), हिमाचल प्रदेश (2012 एवं 2013) और उत्तराखण्ड (2012 और 2013) में बड़े पैमाने पर विध्वंस से खतरे की घंटी बजा दी है।
उत्तराखण्ड में 2013 की बाढ़, जिसने हिन्दु तीर्थस्थान केदारनाथ और बद्रीनाथ को बर्बाद किया, उसको अक्सर 2004 की सुनामी के बाद भारत का सबसे विध्वंसक प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। ये कुछ बड़ी घटनाएँ हैं जिन्हें राष्ट्रीय मीडिया में स्थान मिला। कहा जाता है कि 2005 से अब तक भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन ने नौ हजार जानें ली हैं और कई हजार करोड़ रुपए की सम्पत्ति का नुकसान हुआ है।
पिछले दशक में महसूस हुई इस अति संवेदनशीलता के बढ़ने के कारण क्या हैं? क्या यह जलवायु परिवर्तन और भारतीय मानसून की तीव्रता बढ़ जाने का परिणाम है या विश्व के सबसे अधिक आबादी वाले पहाड़ी क्षेत्र में बढते शहरीकरण का यह परिणाम है? विशेषज्ञ कहते हैं कि यह उपरोक्त दोनों का मिलाजुला प्रभाव है।
जहाँ हाल के दशक में वैश्विक तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी दर्ज की है, ऊँचाई वाले क्षेत्र में बढ़ोत्तरी इससे अधिक है। यह खासतौर से अमंगल सूचक है क्योंकि पहाड़ न केवल जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हुए हैं बल्कि ग्लेशियर व बर्फ के रूप में पानी के विशाल भण्डार का वाहक होने से परिवर्तनशील जलवायु में योगदान भी करते हैं। यह परिस्थिति विश्व के सबसे ऊँचे हिमालय-तिब्बत के पहाड़ी क्षेत्र के सिवा कहीं इतना स्पष्ट नहीं है। जहाँ पिछले तीन दशकों से गर्म होने की दर 0.15 से 0.6 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक देखा गया है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार तापमान बढ़ने नेे हिमालय क्षेत्र के मानसून की बनावट पर तबाही ढा दिया है। सामान्य वर्षा वाले दिनों की संख्या घट रही है। मिजोरम विश्वविद्यालय के भूगोल और संसाधन प्रबन्धन विभाग में प्रोफेसर विश्वम्भर प्रसाद सती के अनुसार, ‘‘हम हिमालयी क्षेत्र में वर्षापात में नए किस्म की अनिश्चितता देख रहे हैं जिसके अनेक कारण हैं, खासकर जलवायु परिवर्तन और गढ़वाल क्षेत्र की घाटियों में आबादी घनत्व का बढ़ना।’’
प्रकाश तिवारी जो गढ़वाल-कुमाऊँ क्षेत्र के मौसम और जलविज्ञान का पिछले 20 वर्षों से अध्ययन कर रहे हैं, ने 2001 से 2013 तक की वर्षा के आँकड़ों का उपयोग करके दिखाया है कि बादल फटने जैसी घटनाओं में-जब वर्षा 100 मिमी प्रति घंटा से अधिक हुई-काफी बढ़ोत्तरी हुई है। (यह केवल सूचनात्मक परिभाषा है, लद्दाख में 2010 में बादल फटने की घटना के दौरान महज 12.8 मिमी वर्षा दर्ज की गई थी। लेकिन बड़े पैमाने पर तबाही हुई।) श्री तिवारी के शोध के अनुसार, हिमालय में बादल फटने जैसी घटनाओं में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हुई है, यह 2001 से 2005 के बीच पाँच दिन प्रतिवर्ष से बढ़कर 2006 से 2013 के बीच 15 दिन प्रति वर्ष हो गया। ‘‘जबकि तीव्र धार वाली वर्षा में बढ़ोत्तरी हुई, वहीं हमने देखा कि साल में वर्षा के दिनों में कमी हो गई, जैसाकि देश के दूसरे हिस्सों में भी देखा गया। वर्षा वाले दिनों की औसत संख्या सन 2000 के पहले के वर्षों में लगभग 80 दिनों से घटकर पिछले दस वर्षों में 65 दिन रह गई है। हमारे सभी प्रेक्षण वर्षा में तीव्रता में बढ़ोत्तरी को सूचित करते हैं।’’
इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ ट्रॉपिकल मेटेरोलाॅजी (आईआईटीएम) पूणे में जलवायु परिवर्तन शोध केन्द्र में वैज्ञानिक वी रमेश भी हिमालय क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा की परिघटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। श्री रमेश के अनुसार हिमालय क्षेत्र में वर्षापात मुख्यभूमि भारत में मानसून और मध्यम ऊँचाई में उष्ण कटिबन्धीय हवाओं के प्रवाह से सम्बन्धित है। वे कहते हैं, ‘‘हमने देखा है कि अत्यधिक वर्षा की परिघटनाएँ आमतौर पर भारतीय मानसून के ‘अवकाश’ के समय होती हैं। चूँकि उत्तर ध्रुव और उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र में तापमान की प्रवणता बदल रही है, इसलिये हवा का प्रवाह भी बदल रहा है। भारतीय उपमहादेश में जब शीतल उष्णकटिबन्धीय हवा मध्य और ऊपरी ट्रोपोस्फीयर में दक्षिणमुखी होकर झोंका मारती है तो नीचले ट्रोपोस्फीयर में उत्तरमुखी प्रवाहित मानसून की हवाओं से उनका सम्पर्क होता है और हिमायल क्षेत्र में अत्यधिक भारी वर्षा का कारण बनती हैं।’’ उन्होंने कहा कि हम जानते हैं कि हवा की प्रणाली बदल रही है जिसमें मानसूनी हवा भी शामिल है, लेकिन पारस्परिक क्रिया में वे कैसी भूमिका अदा करेगी, यह बहस का मामला है। क्या हमें वर्षापात में बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगा या कुल मिलाकर कमी आएँगी, यह अनुमानों का मामला है।
श्री रमेश ने जिस अस्पष्टता की ओर संकेत किया है, उसे आईआईटीएम के वैज्ञानिकों ने 2011 में प्रकाशित आलेख में विस्तार से बताया है। श्री तिवारी ने समूचे हिमालय क्षेत्र में बादल फटने जैसी चरम घटनाओं में बढ़ोत्तरी का उल्लेख किया है, आईआईटीएम के आलेख ने अत्यधिक वर्षा अर्थात एक दिन में 250 मिमी से अधिक वर्षा वाले दिनों की संख्या बताई है।
आलेख की सह लेखक शोभा नंदार्गी ने 1871 से 2007 के बीच वर्षा के तौर-तरीकों पर गौर करते हुए उल्लेख किया है कि हाल के वर्षों में हिमालय क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा के दिनों की संख्या में कमी हुई है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि मध्य 1960 से मध्य 1990 के बीच अत्यधिक वर्षा की संख्या और बारम्बारता में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी के बाद गिरावट दिखी। ‘‘हालांकि हमने बीती शताब्दी के दूसरे आधे हिस्से में चरम मौसम के दिनों में बढ़ोत्तरी देखी, हमने वैसे दिनों की संख्या में 2013 तक उल्लेखनीय गिरावट भी देखी। यह हिमालय क्षेत्र के ऊपरी ट्रोपोस्फीयर में एक्स्ट्रा ट्रॉपिकल और मध्य ऊँचाई की हवाओं के कमजोर पड़ने की वजह से हो सकता है, लेकिन कई दूसरे कारण भी हो सकते हैं।’’ संयोग से यह गिरावट मानसून में 31 वर्षों के युगान्तकारी बदलाव के साथ घटित हुआ जो मध्य 1990 में हुआ।’’ हिमालय क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा के दिनों में गिरावट के बारे में विस्तृत अध्ययन जल्द ही प्रकाशित होने वाला है।
आपदा का नुस्खा
अगर अत्यधिक वर्षा वाले दिन सचमुच घट रहे हैं तो हिमालय क्षेत्र में वर्षा से तबाही होने की खबरें क्यों सामान्य बात हो गई हैं? सुश्री नंदार्गी के अनुसार इसका कारण हिमालय का प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अभूतपूर्व ढंग से सुकुमार होना है जहाँ अत्यधिक वर्षा की छोटी घटना भी बाढ़ ले आती है। हिमालय की सुकुमारता उसकी भौगोलिक स्थिति, भूगर्भीय स्थिति , टेक्टोनिक गतिविधियों के रुझान और पारिस्थितिकीय क्षणभंगुरता से उत्पन्न हुई है जिसने उसे सूक्ष्म स्तर पर तेजी से बदलते मौसम का क्षेत्र बना दिया है। इसके साथ जलवायु परिवर्तन सम्मिलित हो गया है। जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय समिति कहती है कि हिमालय के ग्लेशियर दूसरे किसी पहाड़ी क्षेत्र के मुकाबले अधिक तेजी से पीछे हट रहे हैं।
ग्लेशियरों के पिघलने से बनी ग्लेशियर झीलें बर्फ की बाँधों से घिरी हैं। चूँकी भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून ग्लेशियरों के पिघलने के साथ-साथ घटित होती हैं, बर्फ के बाँधों पर मानसून का अतिरिक्त दबाव पड़ता है और वे अचानक फट पड़ती हैं। कारगिल में मई 2015 में अचानक आई बाढ़ इसी का नतीजा था। श्री सती बताते हैं कि ग्लेशियरों के पिघलने के प्रभाव को लेकर अभी विवाद है और यह निश्चित है कि हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों में परिवर्तन हो रहे हैं। इसका मौसम की चरम घटनाओं पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है, जैसे ग्लेशियर के पिघलने से अभूतपूर्व ढंग से अत्यधिक जल प्रवाह हो सकता है।
हाल के वर्षों में एंथ्रोपोगेनिक कारक जैसे जनसंख्या, वनविनाश, भू-उपयोग में परिवर्तन और शहरीकरण से होने वाले उत्सर्जन ने हिमालय क्षेत्र में मौसम की चरम घटनाओं को पेंच में डाल दिया है। श्री तिवारी स्पष्ट करते हैं कि हिमालय क्षेत्र की घाटियों और निचले इलाके में सघन आबादी है। यह स्थानीय आबादी ऊपरी इलाके में चरम वर्षा की वजह से अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन से प्रभावित होती है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि भूमि के आवरण में परिवर्तन ने मौसम से सम्बन्धित आपदाओं को अधिक बढ़ा दिया। जमीन के प्रकार में 1970 के दशक और 2000 के बीच तुलना से पता चलता है कि घास के मैदानों के क्षेत्रफल (8.2 प्रतिशत) और बर्फ से ढँके इलाके (24.6 प्रतिशत) में उल्लेखनीय कमी आई है। जबकि परती और झाडियों वाली जमीन में क्रमशः छह प्रतिशत और 40.2 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। यह चिन्ता का एक कारण है क्योंकि जिस तरह की जमीन में बढ़ोत्तरी हुई है, वह मिट्टी की पकड़ को कमजोर करता है और भूस्खलन का जोखिम अधिक होता है। वैसी जमीन अचानक आई बाढ़, भूस्खलन और जलप्रवाह के सामने कमजोर अवरोध साबित होती हैं।
हिमालयी चुनौती
इस अतिसंवेदनशीलता को देखते हुए मौसम पूर्वानुमान कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। लेकिन पूर्वानुमान हिमालयी क्षेत्र में इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण खासतौर से कठिन होता है। श्री तिवारी कहते हैं कि पहाड़ों में एक कहावत प्रचलित है कि मौसम यहाँ हर घंटे और हर किलोमीटर पर बदल जाता है। पर्वतविज्ञानी प्रभाव अनेक सूक्ष्म जलवायुगत उतार-चढ़ाव लाते हैं जिससे मौसम का पूर्वानुमान करना कठिन हो जाता है। श्री सती के अनुसार, मौसम और खासकर वर्षा का पूर्वानुमान करना कठिन नहीं होना चाहिए, अगर प्रेक्षण और अनुमापन की अधिसंरचनाएँ दुरुस्त हों क्योंकि सूक्ष्म जलवायुगत उतार-चढ़ाव भी मौसम प्रणाली के बड़े पैमाने की प्रक्रियाओं और हवा की प्रणाली का हिस्सा होते हैं।
भारतीय मौसम विभाग के वैज्ञानिक बी पी यादव स्वीकार करते हैं कि हिमालय क्षेत्र में प्रेक्षण की अधिसंरचनाओं में कमी है लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि इन्हें स्थापित करने की दिशा में काम चल रहा है। वे 1999 में आवंटित समेकित पर्वत मौसम कार्यक्रम की ओर संकेत कर रहे थे जिसका लक्ष्य विभिन्न संस्थानों के बीच समन्वय के माध्यम से प्रेक्षण नेटवर्क में बढ़ोत्तरी करना है। 2013 तक मौसम विभाग ने 33 सतही मौसम प्रेक्षण केन्द्रों की स्थापना की थी जो जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और पूर्वोत्तर के आठ राज्यों में फैले हैं। इस क्षेत्र में खासतौर से ऊपरी हवा प्रेक्षण में कमी है।
जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, असम, त्रिपुरा और मेघालय में प्रत्येक में इस तरह के कम-से-कम एक प्रेक्षण केन्द्र है लेकिन बाकी पाँच पूर्वोत्तर प्रदेशों में ऊपरी हवा के मौसम आँकड़े एकत्र करने का कोई इन्तजाम नहीं है। हिमालयी मौसम का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों और जलवायुविदों की आम माँग डाॅपलर रडार की स्थापना की गई है, इस विशेषज्ञतायुक्त रडार को मौसम की चरम घटनाओं का पूर्वानुमान करने में सहायक बताया जाता है। केन्द्रीय और पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में इसकी अनदेखी की गई। लेकिन डाॅपलर रडार भी त्रुटिविहिन तकनीक नहीं है। एक एक्स-बैंड डाॅपलर रडार जो शॉट वेवलेंथ के 3 सीएम के संकेतों पर काम करता है, श्रीनगर में स्थापित है।
जम्मू कश्मीर के राज्यपाल को भेजे जुलाई 2015 के एक नोट में विज्ञान, तकनीक एवं पृथ्वी विज्ञान विभाग के मंत्री हर्षवर्द्धन ने बताया है कि यह रडार एक सौ किलोमीटर के दायरे में ‘‘तेजी से विकसित होती भीषण मौसम प्रणाली’’ की निगरानी करने और ‘‘पहाड़ी इलाकों में भीषण मौसम परिघटनाओं को जानने में सर्वाधिक उपयुक्त’’ है। फिर भी भारतीय मौसम विभाग बादल फटने की भीषण घटना की चेतावनी नहीं दे सका जो इस क्षेत्र में 2015 के जुलाई-अगस्त में हुई थी।
केन्द्रीय मंत्री के नोट में दर्ज नहीं था कि शॉर्ट वेवलेंथ के रडार की क्षमता को संकेत प्राप्त करने में कमजोरी कम कर देती है और वह उस संकेत के विविध परावर्तन में सक्षम नहीं हो पाता जिसके कारण वह इलाका, या बादल या दूसरे जलवायु वैज्ञानिक परिघटनाएँ हो सकती हैं। भारतीय मौसम विभाग जलवायु परिवर्तन के खिलाफ दौड़ में है ऐसी दौड़ जिसमें केवल दाँव पर लगी चीजें बढ़ती जाती हैं।
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Post By: Editorial Team