इस साल सितम्बर के पहले पहले पखवाड़े में दिल्ली सहित उत्तर भारत के 68 शहरों का तापमान सामान्य से 10 डिग्री तक ज्यादा रहा है। दिल्ली में तो यह अधिकतम 43.7 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, यह महज एक आँकड़ा भर नहीं है, बल्कि बढ़ते तापमान की डरावनी चेतावनी है। साल 2016 के बारे में सेंटर फॉर एनवायरनमेंट ने एक अध्ययन रिपोर्ट पेश की थी, जिसके मुताबिक पिछले 116 सालों में 2016 भारत के इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था। अध्ययन के मुताबिक इस 21वीं सदी की शुरुआत से अब तक यानी सन 2000 से अब तक भारत में 1.26 डिग्री सेल्सियस तापमान की बढ़ोत्तरी हो चुकी है।
अगर बड़े-बूढ़ों की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल भी दें, तो हम सबके अपने निजी अनुभव बताते हैं कि 20-25 साल पहले तक दिल्ली, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में लोग मोटे कम्बल नहीं तो गर्म चद्दर लेकर रामलीला देखने जाते रहे हैं, लेकिन इस साल का हाल यह है कि 4 दिन बाद रामलीलाएँ शुरू हो रही हैं और दिल्ली समेत अन्य शहरों में लोगों को सारी रात एसी चलाकर सोना पड़ रहा है। सुबह चार बजे भी किसी ने अगर एसी बन्द कर दिया, तो फटाक से नींद खुल जा रही है।हिन्दी महीनों के हिसाब से यह आश्विन माह चल रहा है और अब तक इस माह में यानी सितम्बर में एसी चलाकर सोने की जरूरत नहीं पड़ती रही, मगर इस साल यानी 2017 में यही हो रहा है। इस साल सितम्बर के पहले पखवाड़े में दिल्ली सहित उत्तर भारत के 68 शहरों का तापमान सामान्य से 10 डिग्री तक ज्यादा रहा है। राजधानी दिल्ली में तो यह अधिकतम 43.7 डिग्री सेल्सियस तक गया है, जो कि सितम्बर के पहले पखवाड़े के हिसाब से एक रिकॉर्ड है।
यह महज एक आँकड़ा भर नहीं है, बल्कि यह तो बढ़ते तापमान की डरावनी चेतावनी है। साल 2016 के बारे में सेंटर फॉर एनवायरनमेंट ने एक अध्ययन रिपोर्ट पेश की थी, जिसके मुताबिक पिछले 116 सालों में 2016 भारत के इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था। अध्ययन के मुताबिक इस 21वीं सदी की शुरुआत से अब तक यानी सन 2000 से अब तक भारत में 1.26 डिग्री सेल्सियस तापमान की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। फरवरी 2017 तक के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि पिछले 116 सालों में 2.95 डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान बढ़ोत्तरी हो चुकी है। गर्मी की यह स्थायी बढ़ोत्तरी बेहद डरावनी है, क्योंकि तापमान में स्थायी औसतन बढ़ोत्तरी महज भारत में नहीं हो रही पूरी दुनिया का यही हाल है।
सबसे डरावना हाल यूरोप का है, जहाँ से एक किस्म से दुनिया का तापमान नियंत्रित होता है, क्योंकि पूरी दुनिया में यूरोप तुलनात्मक रूप से सबसे ठंडा है, लेकिन पिछले 100 सालों में यहाँ भी तापमान में 2 डिग्री से ज्यादा की स्थायी बढ़ोत्तरी हो चुकी है। जिसका मतलब यह है कि यूरोप की स्थायी रूप से जमी बर्फ में से 20 प्रतिशत तक का पिघल जाना। आँकड़ों के मुताबिक 1970 से यूरोप के तापमान में 2.2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ (वर्ल्ड वाइल्ड फंड फॉर नेचर) द्वारा हाल के सालों में की गई अपनी एक व्यापक अध्ययन रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि यूरोप के 16 प्रमुख शहरों में पिछले तीस सालों के दौरान हर 5 साल में तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ रहा है।
यह आँकड़ा बहुत ही खतरनाक है। यह कोई सैद्धान्तिक डर पैदा करने की कोशिश नहीं है। इस बढ़ते हुए स्थायी तापमान की वजह से ही दुनिया के कई देशों में बार-बार सूखे की स्थितियाँ बन जा रही हैं। पाँच साल पहले स्पेन में जो जबरदस्त सूखा पड़ा था, उसकी वजह यही तापमान में बढ़ोत्तरी थी। इस सूखे ने स्पेन की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। हालांकि अभी तक यूरोप में सूखा अर्थव्यवस्था का एक पहलू है, लेकिन जल्द ही पर्यावरणीय कारकों के कारण तापमान में हो रही यह लगातार बढ़ोत्तरी लोगों की सेहत प्राकृतिक वनस्पतियों पर कहर ढाएगी। इसीलिये बढ़ती गर्मी वैज्ञानिकों के लिये चिन्ता का विषय बनी हुई है। 2001-04 में 1970-74 की तुलना में रोम का तापमान औसतन 1 डिग्री सेल्सियस तथा कोपेनहेगन के तापमान में 1.2 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। लन्दन और लक्समबर्ग जैसे शहर भी इन वर्षों में 2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो गए हैं।
वैज्ञानिक पृथ्वी पर हो रहे ग्रीनहाउस प्रभाव को इसकी प्रमुख वजह मानते हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ को इमोजेन जेथोवेन कारखानों, ऑटोमोबाइल और पावर प्लान्ट्स से निकलने वाले धुएँ को इसकी मुख्य वजह बताते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी चार साल पहले की एक रिपोर्ट में आगाह कर चुका है कि वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा के कारण तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है, जिस कारण यूरोपीय देशों का तापमान अधिकतम की सीमा को पार कर गया है।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अगर परिस्थितियों को शीघ्र ही काबू में नहीं किया गया तो 2100 तक समूचे यूरोप के तापमान में स्थायी औसतन वृद्धि 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है, जिसके बहुत भयावह परिणाम होंगे, जिनकी अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग का नया कारण चिन्हित किया है। उनके मुताबिक इसकी वजह दुनिया की जनसंख्या में होने वाली वृद्धि है। हालांकि ज्यादातर वैज्ञानिक इस धारणा के खिलाफ हैं। कुछ वैज्ञानिक तो इस सोच का विरोध तक कर रहे हैं। उनके मुताबिक तापमान में वृद्धि और जनसंख्या में कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं है। मगर इस बात से सभी वैज्ञानिक एकमत हैं कि इस बढ़ते तापमान ने यूरोप के कुछ देशों को सूखे जैसी आपदा के फन्दे में डाल दिया है। विशेषकर स्पेन के हालात ने सबको डराया है।
दरअसल बढ़ते तापमान के कारण अब यूरोप की भी नदियाँ अफ्रीका और दक्षिण एशिया की तरह सूख रही हैं और फसलें मुरझाने लगी हैं। यहाँ तक कि लोगों की पीने के पानी की किल्लत का भी सामना करना पड़ रहा है। जो कि यूरोप के लिये अनहोनी बात है, लेकिन वैज्ञानिकों ने आने वाले सालों में और भी कई किस्म की समस्याओं की चेतावनी दी है। मसलन उनके मुताबिक यूरोपीय देशों में हर साल दुनिया भर से लाखों पर्यटक आते हैं, लेकिन तापमान के कारण और पिघलती बर्फ की वजह से 2020 तक इसके 20 से 30 प्रतिशत तक घटने की आशंका है। पर्यटन की राह में रोड़ा बाढ़ भी बनने वाली है, जो कि ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है।
तापमान की यह बढ़ोत्तरी बनी रही, तो पानी की विकराल समस्या उत्पन्न हो सकती है। पानी की कमी व असामान्य मौसम के कारण कृषि क्षेत्र को खासा नुकसान पहुँच सकता है। साथ ही अधिक तापमान के कारण तमाम पॉवर प्लान्ट्स बन्द करने पड़ सकते हैं नतीजतन ऊर्जा की समस्या भी पैदा हो सकती है, लेकिन मुझे यूरोप से ज्यादा चिन्ता भारत और उसमें भी राजधानी दिल्ली की है कि रामलीलाएँ इसी हफ्ते शुरू हो रही हैं और गर्मी का आलम यह है कि रात 2 बजे भी बिना पंखे पसीने निकल रहे हैं। सवाल है ऐसे में रामलीलाओं के दर्शक बैठेंगे कैसे? क्या रामलीलाएँ भी अब सभागारों तक सीमित रह जाएँगी?
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Post By: Editorial Team