मौसम विभाग तो अभी देश के विभिन्न हिस्सों में मानसून के पहुंचने का कैलेंडर ही बनाने में लगा है पर इस बीच बारिश ने अपनी रिमझिम दस्तक दे दी। मौसम की इस खुशमिजाजी को देखकर सभी खुश हैं। पर एक बात जरुर अखरती है कि बारहमासा गाने वाले देश में बारिश का मतलब अब हनी सिंह जैसे रैपर बता रहे हैं। बारिश को लेकर बदले सौंदर्यबोध के बारे में बता रहे हैं प्रेम प्रकाश।
देश की राजधानी के अलावा कई दूसरे हिस्सों में गरमी बढ़ने के साथ ही राहत की फुहारें भी पड़ने लगीं। गरमी को कूलर, एसी, फ्रिज, वाटर पार्क आदि जैसे कृत्रिम साधनों से दूर भगाने का कारोबार करने वालों को जरूर यह सुहानी राहत आफत जैसी लगी हो पर आमजन तो मौसम की इस खुशगवारी का भरपूर आनंद ही उठा रहे हैं।
बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्का बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए पर्याप्त स्पेस भी। अखबारों-टीबी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है।
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है।
कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खींचे या यहां-वहां से जुगाड़े गए ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रेरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नए मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसेज के चक्कर लगाती हैं, उनमें वारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं।
हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भींगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे।
खो गई सावनी-कजरी
मिर्जापुर की एक बहुत मशहूर कजरी है, ‘बदरिया घिर आई ननदी......।’ पारंपरिक तौर पर चले आ रहे सावनी गीत-संगीत का शायद की कोई कार्यक्रम हो, जो बिना इस गीत के माधुर्य के पूरा होता हो। पर शोभा गुर्टू और गिरिजा देवी से लेकर मालिनी अवस्थी तक को मशहूर करने वाली इस कजरी को अब अपने नए कद्रदानों की तलाश है।
अलबत्ता ‘आज ब्लू है पानी....पानी....‘ की धुन पर थिरकने और लड़खड़ाने वाली पीढ़ी से इस बारे में कोई उम्मीद करना बेमानी है। ऐसे में बरसात और समाज के बीच के बदले तानेबाने को नए सिरे से समझना तो जरूरी है, नए सरोकारों और प्रचलनों पर भी गौर करना होगा। वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह संगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है।
बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं, पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कास्ट्यूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिंग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं।
इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिंता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है।
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