पृथ्वी की जलवायु के निर्धारण में अनेक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन कारकों में मुख्य कारक सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा, धरती का वायुमंडल और महासागर आदि हैं। धरती की जलवायु सदैव एक जैसी नहीं रही है। धरती की सतह का औसत तापमान विभिन्न युगों में परिवर्तित होता रहा है। बीते एक अरब वर्षों के दौरान पृथ्वी की जलवायु कभी सर्द, कभी गर्म और कभी हिमयुगों वाली रही है। वैज्ञानिकों ने ध्रुवों पर गहराई में जमी बर्फ या आइसकोर, ग्लेशियरों की लम्बाई, पेड़ों के वलय, महासागरों के तलछट आदि का अध्ययन कर पृथ्वी की गुजरी जलवायु की पता लगाया है।
मौसम और जलवायु
मौसम और जलवायु एक न होकर अलग-अलग हैं। मौसम किसी स्थान विशेष पर, किसी विशिष्ट समय पर वायुमंडल की स्थिति को कहते हैं। इसमें हवा का ताप, दाब, उसके बहने की दिशा और गति बादल, वर्षा एवं कोहरा आदि कारकों की उपस्थिति और उनकी अंतः क्रियाएं शामिल होती हैं ।
किसी स्थान का मौसम ही उस स्थान की जलवायु को निर्धारित करने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक होता है। लंबे समय तक चलने वाला मौसम ही जलवायु का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार किसी क्षेत्र के दीर्घकालीन लगभग 30 वर्षों तक के मौसम को जलवायु कहा जाता है। किसी स्थान का मौसम कुछ महीनों या दिनों यहां तक की एक ही दिन में भी बदल सकता है। लेकिन जलवायु में बदलाव अनेक वर्षों के दौरान होता है। पृथ्वी की जलवायु ही है जो किसी स्थान विशेष के गर्म, सर्द या रेगिस्तानी होने की प्रवृत्ति को निर्धारित करती है।
क्या है जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन किसी अचानक आई विपदा की भांति प्रभावशाली न होकर धीरे-धीरे पृथ्वी और यहां रहने वाले जीवों के लिए असंतुलन उत्पन्न करने वाली समस्या है। जलवायु परिवर्तन का मतलब तापमान, बारिश, हवा, नमी जैसे जलवायुवीय घटकों में दीर्घकाल के दौरान होने वाले परिवर्तनों से है। जलवायु परिवर्तन का तात्पर्य उन बदलावों से है जिन्हें हम लगातार महसूस कर रहे हैं। तापमान में लगातार हो रही वृद्धि, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लगातार बढ़ते चिंताजनक स्तर के रूप में इसे रेखांकित किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन एक कड़वा सच
अब इस बात में कोई दो राय नहीं रह गई है कि जलवायु में बदलाव हो रहा है और मानवीय गतिविधियां इसका एक कारण है। आज उन संकेतों को झुठलाना मुमकिन नहीं है जो हमारी पृथ्वी की बैचेनी को व्यक्त कर रहे हैं। 2007 में आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन की पुष्ठि की है। इस रिपोर्ट से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है। कि पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ता जा रहा है। सन् 1961 तथा 1990 के बीच पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 14 डिग्री सेल्सियस था। वर्ष 1998 में यह 0.52 डिग्री सेल्सियस अधिक यानी 14.52 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था। जलवायु बदलाव का वैश्विक संकट लगातार बढ़ रहा है। ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त डॉक्यूमेंटरी फिल्म “एन इनकन्वीनिएं ट्रुथ' पर्यावरण में हो रहे बदलावों के बारे में हमारी आंखें खोलती है। प्रसिद्ध लेखिका अंरुदति दास ने
स्पैन पत्रिका के मार्च, 2008 के अंक में एन इनकन्वीनिएंट टूथ की समीक्षा करते हुए लिखा है कि "मेहनत से जुटाई गई सूचनाएं, जलवायु में आते बदलावों, प्रसुप्त रोगों के फिर सिरा उठाने, संक्रामक रोगों के वाहकों की वृद्धि, समुद्री तूफानों, बाढ़ों और सूखे के मुखर बिम्ब अविश्वास की गुंजाइश ही नहीं रहने देते ।" आईपीसीसी के अनुसार पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि के लिए कार्बन डाइऑक्साइड जैसी अन्य ग्रीन हाउस गैसें उत्तरदायी हैं और इन गैसों की बढ़ती मात्रा के लिए मानवीय गतिविधियां सर्वाधिक जिम्मेदार हैं।
विकास के साथ बदलती जलवायु
निश्चित तौर पर, हम पिछले किसी भी कालखंड की तुलना में एक बेहतर व भौतिकतावादी दुनिया में रहते हैं लेकिन यह नयी दुनिया हमें पर्यावरण की कीमत पर मिली है। यह विडंबना ही है कि जब मानव समाज विकसित नहीं था तब पर्यावरण प्रदूषित नहीं था और आज हम विकास की ओर कदम बढ़ा रहे हैं तो पर्यावरण भी दिनोंदिन प्रदूषित होता जा रहा है। इस समय विकसित देशों की चमक और उनकी उपभोक्तावादी दृष्टिकोण को अपनाने की होड़ में, प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ने लगा है जिससे समस्त पर्यावरण प्रभावित हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन से बढ़ते खतरे
जीवाश्म ईंधन के दहन और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है। अगर जलवायु परिवर्तन को समय रहते न रोका गया तो लाखों लोग भुखमरी, जल संकट और बाढ़ प्रदूषण और बदलती जैसी विपदाओं का शिकार होंगे। यह संकट पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा। हालांकि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर गरीब देशों पर पड़ेगा। अगामी संकट का सबसे ज्यादा असर ऐसे देशों को भुगतना पड़ेगा जो जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं। पिछड़े और विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं का खतरा अधिक होगा।
आज मानव जाति इतिहास के सम्भवतः सर्वाधिक गंभीर खतरे का अनुभव कर रही है। आज प्रकृति का अत्यधिक निर्ममता से दोहन किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्र विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। मानव ने प्रकृति पर विजय पाने के लिए ऐसे कार्य किए हैं जिनसे जैवमण्डल पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ा है।
स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार
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