बदलते पर्यावरण का खेती पर प्रभाव

जलवायु परिवर्तन की चुनौती भले ही रोजमर्रा की आजीविका के संघर्ष एवं व्यस्त दिनचर्या में लगे लोगों के लिए महज खबर या अकादमिक विषय सामग्री मात्र ही हो, सच्चाई तो यह है कि हवा, पानी वाली इस समस्या से देर-सवेर, कम-ज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होता है। भारत में जलवायु परिवर्तन के एक प्रभाव के रूप में बाढ़ व सूखे को देखा जा सकता है। देश का बहुत बड़ा क्षेत्र बाढ़ की विभीषिका को झेलता आ रहा है। वहीं दूसरी ओर तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तीव्र होने के परिणामस्वरूप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। जहां एक ओर जलवायु परिवर्तन कृषि से प्रभावित होता है वहीं दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन भी कृषि को प्रभावित करता है जो दुनिया में मानव द्वारा प्रेरित ग्रीनहाउस गैस में 13.5 प्रतिशत के योगदान से प्रभावित हुआ है।वर्जिन ग्रुप के प्रमुख रिचर्ड ब्रेनसम ने हाल ही में उस व्यक्ति को 2.5 करोड़ डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा की है जो ग्रीनहाउस गैसों के एक बड़े उपाय सुझा सके।21वीं शताब्दी प्रमुख चुनौतियों के मार्ग पर तेजी से वृद्धि कर रही है। इनमें जनसंख्या वृद्धि, कृषि, भूमि व अन्य प्राकृतिक संसाधनो में गिरावट सम्मिलित है और इन सब के अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पर्यावरण परिवर्तन में सबसे अधिक योगदान कर रहा है। औद्योगीकरण व मशीनीकरण की दुनिया में यह सबसे बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

पृथ्वी का वातावरण एक नाजुक मोड़ पर पहुंच चुका है। इसका बदलता हुआ रूख पृथ्वी के विनाश का कारण बन सकता है। इस संदर्भ में दुनिया के लगभग सभी वैज्ञानिक चिंतित हैं। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी की हरियाली के लिए — वनों, कृषि तथा सामान्यतया पूरे जीवन के लिए एक भारी खतरा है।

यह एक भारी विसंगति है किंतु वैज्ञानिक तौर पर इन दोनों के बीच में अन्योन्याश्रित संबंध दिखाई देता है। यदि ठीक परिमाण में हो तो कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर-डाइ-ऑक्साइड आदि ग्रीनहाउस गैसों की उपस्थिति जीवन और जलवायु की स्थिरता के लिए आवश्यक है। जब ये ग्रीनहाउस गैस अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं तो पृथ्वी गर्म हो जाती है। इससे जलवायु में बदलाव आ जाता है। इन गैसों का वायुमंडल में अनुचित मात्रा में एकत्र हो जाना ही समस्या की जड़ है।

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारक कार्बन-डाइ-आक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान से अब दृष्टिगोचर होने लगा है। वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है। लगभग 18,000 वर्ष पूर्व हिमनदकाल से अन्तर्हिमनद काल तक के संक्रमण के दौर में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के एकत्रीकरण में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। औद्योगिक क्रांति के बाद से उपजे ग्रीनहाउस प्रभाव में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से ज्यादा है। औद्योगिक क्रांति से पहले वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा 280 पीपीएम थी जोकि 1990 में बढ़कर 353 पीपीएम हो गई।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक विज्ञप्ति के अनुसार लगभग 5.7 लाख टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड वायुमंडल में घुलकर उसे जहरीला बना रही है।

वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में वृद्धि के कई कारण हैं। तेल, कोयला आदि का उपयोग तथा वनों की अति कटाई आदि प्रमुख कारण हैं। आईपीपीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि हमारी करतूतों के कारण प्रत्येक वर्ष वातावरण में 380 करोड़ टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस घुलती है। यह स्थिति तब है जबकि पेड़-पौधे और समुद्र अपनी क्षमता पर कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस सोख लेते हैं। इस तरह वातावरण में आज भी लगभग 1/2 प्रतिशत कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस बढ़ रही है। इसी प्रकार प्रतिवर्ष लगभग 52.5 करोड़ टन मीथेन गैस हवा में पहुंचती है। मीथेन गैस वृद्धि दर प्रतिशत लगभग 0.9 प्रतिशत आंका गया है। ग्रीनहाउस गैसों में एक अन्य प्रमुख गैस नाइट्रस आक्साइड है। नाइट्रस आक्साइड गैस वातावरण में लगभग 0.25 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।

इनके अतिरिक्त ओजोन परत को नष्ट करने वाली प्रमुख सीएफसी गैस परोक्ष रूप से ग्रीनहाउस प्रभाव पर भी हस्तक्षेप करती है। ये गैसें स्थान, ऊंचाई तथा मौसम के अनुसार ग्रीनहाउस प्रभाव को घटाती और बढ़ाती हैं।

विश्व में बिगड़ते हुए पर्यावरण संतुलन एवं प्रदूषण के कारण पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है जोकि जीवधारियों, वृक्षों एवं मानव जाति के लिए खतरा बन गई है, इसे ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं।

पृथ्वी पर जीवन को विकसित करने और इसे फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने का काम वायुमंडल करता है। हमारे वायुमंडल में जो ग्रीनहाउस गैसें विद्यमान हैं वो धरती से परावर्तित सूर्य की किरणों के कुछ अंश को सोखकर पृथ्वी को गर्म रखती हैं। जलवायु परिवर्तन में 80 प्रतिशत योगदान कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक विज्ञप्ति के अनुसार “लगभग 5.7 लाख टन कार्बन-डाइ-ऑक्साइड वायुमंडल में घुलकर उसे जहरीला बना रही है।” जलवायु परिवर्तन में 80 प्रतिशत योगदान कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का है।वर्तमान मे ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ जाने के कारण यह प्राकृतिक चक्र गड़बड़ा गया है। यद्यपि समस्त पृथ्वी के वातावरण में परिवर्तन होना एक प्राकृतिक घटना है किंतु पिछले कुछ दशकों से पृथ्वी का वातावरण अत्यधिक असंतुलित हुआ है। इस परिवर्तन के लिए मानवजनित कारण जैसे औद्योगीकरण, यातायात के साधनों का विकास, वन विनाश आदि जिम्मेदार हैं व मोटे तौर पर ऊर्जा व परिवहन के लिए भूमि के उपयोग व मनुष्य के खाद्यान्न की पूर्ति के लिए ईंधन के जलने के परिणामस्वरूप हुई है।

इसी सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा है कि “जलवायु परिवर्तन हमारे समय का प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दा है और पर्यावरण नियामकों को सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इसके साथ आर्थिक, स्वास्थ्य, खाद्य उत्पादन, सुरक्षा व अन्य आयाम संबंधी संकट बढ़ रहे हैं।”

ग्लोबल वार्मिंग आज एक जटिल समस्या बन गई है। जलवायु एवं मौसम में अप्रत्याशित बदलाव, कहीं अत्यधिक बाढ़, कहीं व्यापक सूखा, आंधी-तूफान आदि बढ़ रहे खतरे इस समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। ये गतिविधियां जहां एक ओर पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाने वाली ओजोन परत के छीजने का कारण बनी हुई हैं वहीं दूसरी ओर धरती में मरुस्थलीकरण की राह को भी आसान कर रही हैं।

कृषि उत्पादकता में वृद्धि की आवश्यकता भविष्य में बढ़ती हुई जनसंख्या की पूर्ति हेतु आवश्यक होगी व कृषि स्वयं जलवायु परिवर्तन व देश के संसाधनों पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन के कृषि पर सकारात्मक व नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव हो सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय चैरिटी की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव गरीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है।

इटली में जी-आठ देशों के सम्मेलन से पहले ऑक्सफैम ने धनी देशों के नेताओं से अपील की है कि वो कार्बन उत्सर्जन में कमी करें और गरीब देशों की मदद के लिए 150 अरब डॉलर की राशि की व्यवस्था करे। ऑक्सफैम का कहना है जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमरीकी देशों में गरीब लोग और गरीब होते जा रहे हैं। इन देशों में किसानों ने ऑक्सफैम से कहा है कि बरसात का मौसम बदल रहा है जिससे उनको खेती में दिक्कतें हो रही हैं।

किसान कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं लेकिन अब बदलते मौसम के कारण उन्हें नुकसान हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार भारत और अफ्रीकी देशों में बारिश के मौसम में बदलाव के कारण अगले दस वर्षों में मक्के के उत्पादन में 15 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। देश में फसल उत्पादन में उतार-चढ़ाव का कारण कम वर्षा, अत्यधिक वर्षा, अत्यधिक नमी, फसलों पर कीड़े लगना आदि मुख्य हैं।

इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के कई ऐसे कारक हैं जो कृषि को सीधे प्रभावित करते हैं-

1. औसत तापमान में वृद्धि
2. वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन
3. कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में वृद्धि से वातावरण में नमी
4. जहरीली गैसों का प्रभाव
5. ओजोन परत में कमी।

औसत तापमान में वृद्धि


पिछले कई दशकों में तापमान में काफी वृद्धि हुई है। औद्योगीकरण के प्रारंभ से अर्थात 1780 से लेकर अब तक पृथ्वी के तापमान में 0.7 सेल्सियस वृद्धि हो चुकी है। कुछ पौधे ऐसे होते हैं जिन्हें एक विशेष तापमान की आवश्यकता होती है, वायुमंडल का तापमान बढ़ने से उनके उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा उत्पादन में भारी कमी आती है। उदाहरण के लिए आज जहां गेहूं, जौ, सरसो और आलू की खेती हो रही है तापमान बढ़ने से इन फसलों की खेती न हो सकेगी, क्योंकि इन फसलों को ठंडक की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन होने से स्थानीय जैव विविधता में परिवर्तन उनके क्षरण का कारण हो सकता है।

अधिक तापमान बढ़ने से मक्का, धान या ज्वार आदि फसलों का क्षरण हो सकता है क्योंकि इन फसलों में अधिक तापमान के कारण दाना नहीं बनता है अथवा कम बनता है। इससे इन फसलों की खेती करना असंभव हो सकता है। इसके अतिरिक्त तापमान वृद्धि से वर्षा में कमी होती है जिससे मिट्टी में नमी समाप्त हो जाती है। भूमि में निरंतर तापमान में कमी व वृद्धि से अपक्षय की क्रियाएं प्रारंभ हो जाती हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा भूमि टूट-टूट कर उसके कण एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। इसी के साथ तापमान वृद्धि से गम्भीर सूखे की संभावना में भी वृद्धि हुई है।

वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन


वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन से मृदाक्षरण और मिट्टी की नमी पर प्रभाव पड़ता है। वर्षा का कृषि पर महत्वपूर्ण रूप से प्रभाव पड़ता है। सभी पौधों को जीवित रहने के लिए कम से कम पानी की आवश्यकता रहती है। इसी कारण वर्षा कृषि क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है और इसके अंतर्गत भी नियमित रूप से हुई वर्षा का महत्व अधिक है। बहुत अधिक या बहुत कम वर्षा भी फसलों के लिए हानिकारक सिद्ध होती है। सूखा कटाव में वृद्धि करता है व फसलों को क्षति पहुंचा सकता है जबकि अत्यधिक वर्षा से भी हानिकारक कवक में वृद्धि हो सकती है तथा भूक्षरण की समस्या उत्पन्न होती है। हमारे देश में सामान्यतः कृषि भूमि से क्षरण की दर लगभग 7—5 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष है परंतु वर्तमान दर लगभग 20—30 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष तक पहुंच गयी है जोकि एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।

कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में वृद्धि से वातावरण में नमी


कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से व तापमान में वृद्धि से पेड़-पौधों तथा कृषि पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। यह परिवर्तन कुछ क्षेत्रों के लिए लाभदायक हो सकता है तो कुछ क्षेत्रों के लिए नुकसानदायक। भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद् के महानिदेशक डॉ. डीएन तिवारी ने संभावित मौसमी बदलाव के नुकसानों को रेखांकित करते हुए बतलाया कि सूखे और आग के कारण बहुत-सी उपयोगी जातियां नष्ट हो जाएंगी तथा उनकी जगह नुकसानदेह जातियां पनपेगी। तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों की वृद्धि कीड़ों के प्रकोप से प्रभावित होगी। चारागाहों में बढ़िया घास की पैदावार गिर जाएगी किंतु इससे खेती को फायदा हो सकता है क्योंकि कार्बन-डाइ-ऑक्साइड पौधों की बढ़वार को तेज करती है किंतु दूसरी ओर मिट्टी खराब होने से खेती भी खराब हो सकती है।

जहरीली गैसों का प्रभाव


अम्लीयता के कारण धरती की ऊपरी सतह अर्थात् मिट्टी के पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। इससे मिट्टी की गुणवत्ता कम हो जाती है जिससे कृषि उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।वर्तमान समय में वायुमंडल में सल्फर ऑक्साइड की 60 प्रतिशत की मात्रा व नाइट्रोजन ऑक्साइड की 50 प्रतिशत मात्रा उत्पन्न होती है। वातावरण की नमी के संपर्क में आने से ये गैसें क्रमशः गंधक, अम्ल और नाइट्रिक अम्ल बनाती हैं जोकि वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिरता है। यह क्रिया अम्लीकरण कहलाती है। अम्लीय वर्षा का जल जब धरातलीय सतह पर पहुंचता है तो मिट्टी अम्लीय हो जाती है। मिट्टी के अन्दर स्थित सूक्ष्म जीव-जन्तुओं, जीवाणुओं, कवकों आदि को भी अम्ल की विषाक्तत्ता नष्ट कर देती है जिनका कि पौधों की वृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान होता है। अम्लीयता के कारण धरती की ऊपरी सतह अर्थात् मिट्टी के पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। इससे मिट्टी की गुणवत्ता कम हो जाती है जिससे कृषि उत्पादन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

ओजोन परत में कमी


ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का ओजोन परत पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण ओजोन छतरी छिपती जा रही है। ओजोन परत के मात्र 1 प्रतिशत की छीजन से पराबैंगनी किरणों की मात्रा में 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी और उसी अनुपात में इंसानी जीवन तथा खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर भी विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के यह सभी कारक कृषि पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते है व अप्रत्यक्ष रूप से कृषकों की आर्थिक स्थिति, उत्पादन व उत्पादकता आदि पर भी प्रभाव डालते हैं। अतः इस विषय में गम्भीर रूप से विचार किया जाना आवश्यक है।

हमारे एवं हमारी भावी पीढ़ियों के जीवन को निर्णायक रूप से प्रभावित करने वाली जलवायु परिवर्तन की समस्या हम सब के लिए चुनौती है। इसका सामना सार्थक एवं प्रभावशाली ढंग से करने के लिए हमें जागरूकता दिखाते हुए सरकारी, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करना होगा। व्यक्तिगत जीवन में भी हम सादगी लाने और बिजली, पानी, ईंधन की बचत की दिशा में कदम उठा सकते हैं। भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होने वाली स्थितियों पर नियंत्रण से संबंधित योजनाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब 2.5 प्रतिशत खर्च करता है जोकि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है।

चूंकि जलवायु परिवर्तन किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है इसलिए इनमें कमी लाने हेतु सभी स्तरों पर ठोस उपायों की जरूरत है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जलवायु परिवर्तन न केवल कृषि के लिए बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता के लिए एक खतरे के रूप में सामने आया है। कोई भी देश इसकी आंच से बच नहीं सकता। वर्जिन ग्रुप के प्रमुख रिचर्ड ब्रेनसम ने हाल ही में उस व्यक्ति को 2.5 करोड़ डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा की है जो ग्रीनहाउस गैसों के एक बड़े उपाय सुझा सके। कहना न होगा कि ग्लोबल वार्मिंग अब केवल बौद्धिक विलास का विषय न रहकर एक हकीकत है, एक कड़वी हकीकत। सवाल यह है कि हम इस हकीकत से दूर भागते हैं या इसका सामना करते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
ई-मेलः shubhkavi15@yahoo.com

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Post By: pankajbagwan
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