क्या सचमुच बदल रहा है थार का वातावरण? ग्रामीण समुदाय की चर्चाओं, पर्यावरण विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की बातों पर गौर करें तो पिछले दो-तीन दशकों में रेगिस्तान में बहुतेरे बदलाव हुए हैं जिसने कृषि, पशुपालन और लोगों की आम जिन्दगी को बेहद प्रभावित किया है। यह जलवायु परिवर्तन का असर है या खेती और पशुपालन के तौर तरीकों में आये बदलाव का परिणाम है, यह तो एक विचारणीय पहलू है ही, लेकिन इतना तो जरूर है कि रेगिस्तान में बहुत कुछ बदल रहा है।
वैसे तो रेगिस्तान के नाम से ही प्रतीत होता है कि यह एक जटिल भौगोलिक और मौसमिक परिस्थितियों वाला प्रदेश है। प्रकृति ने इस प्रदेश को गर्मी, सर्दी, सूखा, बलुई मिट्टी के उबड़-खाबड़ धरातल और अकाल जैसी आपदाओं की विकटताएं दी हैं तो दूसरी तरफ कुछ विशिष्ट प्रकार के वरदान भी दिये हैं जिसके कारण यहां सदियों से जन-जीवन फला-फूला है। चारे के लिये खेजड़ी ( Prosopis cineraria ) का वृक्ष, सेवण (Lasiurus hirsutus), धामण (सेंकरस सिलियेरिस), घास फोग (Calligonum polygonoidec), आक (Calotropis procera), झड़ बेरी ( जिजिफस नुम्मुलेरिया), केर, कुमट (एकेसिया सेनेगल) पौधे एवं असंख्य प्राकृतिक वनस्पतियां रेगिस्तान में फलती-फूलती रही हैं। विपरीत परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाला आवागमन का साधन ऊंट भी रेगिस्तान की विशिष्टता में शुमार है।
पानी कम है लेकिन पारंपरिक जल प्रबंधन की एक व्यवस्था विद्यमान है जिसने शुष्कता को नम बनाये रखा है। एशिया की सबसे बड़ी ऊन मण्डी भी इसी क्षेत्र में है। हरिण, नीलगाय (ब्ल्यू बुल) गीदड़, (वुल्फ) रेगिस्तानी लोमड़ी, (डेजर्ट फॉक्स) खरगोश, बारहसिंगा जैसे वन्य जीव और गिद्ध, गोडावण, तीतर ( ग्रे पार्टिज/ग्रे फ्रेंकोलिन), बटेर (कॉमन क्वेल), मोर जैसे असंख्य पक्षियों की निवास स्थली रहा है रेगिस्तान। विकट परिस्थितियों में जैव विविधता का ऐसा अनूठा संगम बहुत कम क्षेत्रों में ही देखने को मिलता होगा। रेगिस्तान भले ही मानसून की बरसात से कम लाभान्वित होता हो लेकिन इसकी गर्म तासीर देश में मानसून को आमन्त्रित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
तीव्र गति से हो रहे विकास से भी अछूता नहीं है रेगिस्तान। कृषि का यन्त्रीकरण, आधुनिकीकरण, ऊंटों और बैलों की जगह ट्रैक्टर से खेती, नहरों, कुंओं से सिंचाई के साधनों का विकास, सड़क और संचार जैसी सुविधाओं की वृद्धि जैसे कारकों ने जीवन की जटिलताओं को एक बारगी कम किया है। बावजूद इसके ऐसा लगता है कि रेगिस्तान अपनी मौलिक विशिष्टताओं को खो रहा है। जीवन और विशेषकर आजीविका की जटिलताएं बढ़ रही है।
ग्रामीण समुदाय जलवायु परिवर्तन जैसे शब्दों से भले ही परिचित नहीं है लेकिन अपने आस-पास हो रहे बदलाव को पहचानते हैं। अपने जीवन पर पड़ रहे प्रभाव को महसूस कर रहे हैं। बाड़मेर जिले के पाटौदी गांव के पूर्व सरपंच घोवाराम बताते हैं कि ऋतुओं में बदलाव हो रहा है। सभी ऋतुओं का चक्र बदल गया है। गर्मी का समय बढ़ गया है तथा सर्दी कम हो गई है। बरसात भी समय से पहले या समय के बाद होने लगी है। कहीं सूखा और कहीं बाढ़ जैसी स्थिति रेगिस्तान में पहले नहीं देखी थी। नवंबर, दिसम्बर माह में इतना तापमान हमने कभी नहीं देखा जितना वर्तमान में है। अकाल की पुनरावृत्ति जल्दी-जल्दी होने लगी है।
समुदाय के लोगों ने अतीत और वर्तमान का मूल्यांकन करते हुए थार में हो रहे बदलाव के चौंकाने वाले तथ्य सामने रखे। लोगों का मानना है कि थार में बहुत से पशु-पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। गिद्ध, गीदड़, गोडावण, लोमड़ी, हरिण, खरगोश जैसे वन्य जीव या तो पूरी तरह से लुप्त हो गये हैं या फिर लुप्त होने के कगार पर हैं। सेवण, धामण, फोग जैसी बहुत सी वनस्पतिक प्रजातियां भी लुप्त हो चुकी हैं। खेजड़ी जैसे राजस्थान के ‘कल्पवृक्ष’ के लुप्त होने की संभावनाएं महसूस होने लगी हैं। हवा से मिट्टी का कटाव बढ़ गया है तथा रेगिस्तान दिनों-दिन फैलता हुआ मालवा की तरफ चल पड़ा है। इन बदलावों का असर यहां की आजीविका के मुख्य साधन खेती और पशुपालन पर पड़ रहा है।
यहां के लोगों का कहना ठीक भी है। थार की जैव विविधता का काफी ह्रास हुआ है। लेकिन इस सबके पीछे जलवायु परिवर्तन का असर है या कृषि और पशुपालन के बदले तौर तरीकों का प्रभाव है, अभी एक विचारणीय मुद्दा है। यहां के लोगों की मानें तो जहां पानी के काम हो रहे हैं, वहां सभी प्रकार की रेगिस्तानी वनस्पतियां फिर से अंकुरित हो रही है।
ट्रैक्टर से खेती जुताई थार की भौगोलिक बनावट के अनुकूल नहीं है। यहां की अधिकांश असिंचित भूमि इतनी कठोर नहीं है कि उसे ट्रेक्टरों से चीरा जाये। यहां के लोग भी इस बात को स्वीकारते हैं कि ट्रैक्टर से खेत जुताई के कारण स्थानीय वनस्पतियों को अंकुरित होने का अवसर नहीं मिलता। धीरे-धीरे यह सभी वनस्पतियां लुप्त हो गई हैं। भूमि की उर्वरता भी कम हुई है। यहां के लोगों का मानना है कि 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टयेर उपज देने वाली भूमि में अब 3 से 4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रह गया है।
कुंओं की खुदाई एवं विद्युत खर्च में किसानों को अनुदान देकर गत दो-तीन दशकों में किसानों को सिंचित कृषि के लिये प्रेरित किया गया। आंख मून्द कर भू-जल दोहन से भूजल स्तर निरन्तर गिर रहा है तथा कुछ इलाकों में कुंए सूख भी गये हैं। जोधपुर जिले का मथानियां क्षेत्र समूचे राजस्थान में प्याज और मिर्च उत्पादन के लिये प्रसिद्ध था। आज वहां के किसानों की हालत बदतर हो चुकी है। कुंए पूरी तरह से सूख चुके हैं तथा धरती बंजर हो चुकी है। भूजल वैज्ञानिकों का मानना है कि भूजल दोहन इसी गति से जारी रहा तो रेगिस्तान भविष्य में पेयजल के लिये तरस जायेगा।
सिंचित कृषि के विस्तार को सरकार ने बढ़ावा देकर हरित क्रान्ति व खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देने का जो सपना देखा था, उसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। कुंओं की खुदाई एवं विद्युत खर्च में किसानों को अनुदान देकर गत दो-तीन दशकों में किसानों को सिंचित कृषि के लिये प्रेरित किया गया। आंख मून्द कर भू-जल दोहन से भूजल स्तर निरन्तर गिर रहा है तथा कुछ इलाकों में कुंए सूख भी गये हैं। जोधपुर जिले का मथानियां क्षेत्र समूचे राजस्थान में प्याज और मिर्च उत्पादन के लिये प्रसिद्ध था। आज वहां के किसानों की हालत बदतर हो चुकी है। कुंए पूरी तरह से सूख चुके हैं तथा धरती बंजर हो चुकी है। भूजल वैज्ञानिकों का मानना है कि भूजल दोहन इसी गति से जारी रहा तो रेगिस्तान भविष्य में पेयजल के लिये तरस जायेगा।
दूसरी तरफ गत तीन दशकों से प्रगति की सिरमौर रही इन्दिरा गांधी नहर के क्षेत्र में पानी की कमी आ गई है। किसानों के आन्दोलन इस बात के गवाह हैं। दो तीन दशक पूर्व कम आबादी घनत्व वाले इस नहरी क्षेत्र में एकाएक आबादी का घनत्व बढ़ गया। यहां के स्थानीय लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। बड़े चराई के मैदान एवं चरागाह थे। नहर आने से पूरा क्षेत्र सिंचित कृषि में तब्दील हो गया। सभी चरागाहों और घास मैदानों को खेतों में तब्दील कर सरकार ने बेच दिया। जिस नहर को रेगिस्तान में सूखा जैसी आपदा के असर को कम करने के रूप में देखा गया था उसी नहर के कारण आज रेगिस्तान में दर्जनों पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो गई हैं। सिंचित खेती के विस्तार के लिये किसानों को नवीन तकनीकी एवं ज्ञान के नाम पर अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उपयोग कर उत्पादन बढ़ाने का जो नुस्खा वैज्ञानिकों ने दिया आज समस्याओं का गढ़ बन गया है।
स्थानीय फसलों की जगह बाजार आधारित नकदी फसलें किसान उगाने लगे जिसमें चारा बहुत कम मिलता है। मलेरिया से मुक्त राजस्थान अब ऐसी ला-ईलाज बीमारियों का घर बन चुका है।
थार के इस बदलाव को वैज्ञानिक कैसे देखते हैं? केन्द्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान (काजरी) के वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लोबल वर्मिंग के कारण पश्चिमी विक्षोभ गर्मियों में भी आने लगा है, जिसकी वजह से मानसूनी हवाएं राजस्थान से किनारा कर रही हैं। काजरी के प्रमुख वैज्ञानिकों का कहना है कि राज्य में मई-जून महीने में कभी भी बरसात नहीं होती थी। पश्चिमी विक्षोभ की वजह से यह बरसात हो रही है और मानसून खिसक कर अगस्त तक जा रहा है। जून में आंधियों का तन्त्र बनता है वह भी धीमा पड़ रहा है। ऐसे में मानसून कमजोर होता जा रहा है। सर्दी भी कम होती जा रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि रेगिस्तान का तापमान बढ़ रहा है। गत तीन दशकों का हवाला देते हुए वैज्ञानिकों का कहना है कि रेगिस्तान में सामन्यत: दिन का तापमान 25 डिग्री तथा रात का तापमान 08 डिग्री होना चाहिये। किन्तु पिछले तीस सालों का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि 30 सालों में रात के तापमान में 07 डिग्री की वृद्धि हुई है।
एरिडजोन फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्युट (आफरी) के वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग तथा पानी के दुरुपयोग के कारण बंजर भूमि बढ़ती जा रही है तथा मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। उनका मानना है कि बारिस की तीव्रता बढ़ गई है लेकिन सूखे की परिस्थितियों में कोई कमी नहीं आई है। अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा के सेटेलाईट डाटा के अनुसार अगले कई दशकों तक थार में कभी सूखा और कभी घनघोर बारिस वाला मौसम रहेगा। उनका मानना है कि पानी के दुरुपयोग से राज्य का भूजल स्तर गिरता जा रहा है और अब पीने लायक पानी भी नहीं है। कई स्थानों पर इन्दिरा गांधी नहर के पानी से सिंचाई हो रही है। अधिक पानी के उपयोग से भी भूमि की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है। उनका मानना है कि बारिस की तीव्रता बढ़ने से थार में बारिस के दिन देखने को मिल रहे हैं लेकिन यह बारिस कब, कहां और कितनी हो रही है, यह अनिश्चितता वाली स्थिति है। कहीं सूखा और कहीं बाढ़ जैसी परिस्थितियां भी सामने आ रही हैं।
चरखा फीचर्स
वैसे तो रेगिस्तान के नाम से ही प्रतीत होता है कि यह एक जटिल भौगोलिक और मौसमिक परिस्थितियों वाला प्रदेश है। प्रकृति ने इस प्रदेश को गर्मी, सर्दी, सूखा, बलुई मिट्टी के उबड़-खाबड़ धरातल और अकाल जैसी आपदाओं की विकटताएं दी हैं तो दूसरी तरफ कुछ विशिष्ट प्रकार के वरदान भी दिये हैं जिसके कारण यहां सदियों से जन-जीवन फला-फूला है। चारे के लिये खेजड़ी ( Prosopis cineraria ) का वृक्ष, सेवण (Lasiurus hirsutus), धामण (सेंकरस सिलियेरिस), घास फोग (Calligonum polygonoidec), आक (Calotropis procera), झड़ बेरी ( जिजिफस नुम्मुलेरिया), केर, कुमट (एकेसिया सेनेगल) पौधे एवं असंख्य प्राकृतिक वनस्पतियां रेगिस्तान में फलती-फूलती रही हैं। विपरीत परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाला आवागमन का साधन ऊंट भी रेगिस्तान की विशिष्टता में शुमार है।
पानी कम है लेकिन पारंपरिक जल प्रबंधन की एक व्यवस्था विद्यमान है जिसने शुष्कता को नम बनाये रखा है। एशिया की सबसे बड़ी ऊन मण्डी भी इसी क्षेत्र में है। हरिण, नीलगाय (ब्ल्यू बुल) गीदड़, (वुल्फ) रेगिस्तानी लोमड़ी, (डेजर्ट फॉक्स) खरगोश, बारहसिंगा जैसे वन्य जीव और गिद्ध, गोडावण, तीतर ( ग्रे पार्टिज/ग्रे फ्रेंकोलिन), बटेर (कॉमन क्वेल), मोर जैसे असंख्य पक्षियों की निवास स्थली रहा है रेगिस्तान। विकट परिस्थितियों में जैव विविधता का ऐसा अनूठा संगम बहुत कम क्षेत्रों में ही देखने को मिलता होगा। रेगिस्तान भले ही मानसून की बरसात से कम लाभान्वित होता हो लेकिन इसकी गर्म तासीर देश में मानसून को आमन्त्रित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
तीव्र गति से हो रहे विकास से भी अछूता नहीं है रेगिस्तान। कृषि का यन्त्रीकरण, आधुनिकीकरण, ऊंटों और बैलों की जगह ट्रैक्टर से खेती, नहरों, कुंओं से सिंचाई के साधनों का विकास, सड़क और संचार जैसी सुविधाओं की वृद्धि जैसे कारकों ने जीवन की जटिलताओं को एक बारगी कम किया है। बावजूद इसके ऐसा लगता है कि रेगिस्तान अपनी मौलिक विशिष्टताओं को खो रहा है। जीवन और विशेषकर आजीविका की जटिलताएं बढ़ रही है।
ग्रामीण समुदाय जलवायु परिवर्तन जैसे शब्दों से भले ही परिचित नहीं है लेकिन अपने आस-पास हो रहे बदलाव को पहचानते हैं। अपने जीवन पर पड़ रहे प्रभाव को महसूस कर रहे हैं। बाड़मेर जिले के पाटौदी गांव के पूर्व सरपंच घोवाराम बताते हैं कि ऋतुओं में बदलाव हो रहा है। सभी ऋतुओं का चक्र बदल गया है। गर्मी का समय बढ़ गया है तथा सर्दी कम हो गई है। बरसात भी समय से पहले या समय के बाद होने लगी है। कहीं सूखा और कहीं बाढ़ जैसी स्थिति रेगिस्तान में पहले नहीं देखी थी। नवंबर, दिसम्बर माह में इतना तापमान हमने कभी नहीं देखा जितना वर्तमान में है। अकाल की पुनरावृत्ति जल्दी-जल्दी होने लगी है।
समुदाय के लोगों ने अतीत और वर्तमान का मूल्यांकन करते हुए थार में हो रहे बदलाव के चौंकाने वाले तथ्य सामने रखे। लोगों का मानना है कि थार में बहुत से पशु-पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। गिद्ध, गीदड़, गोडावण, लोमड़ी, हरिण, खरगोश जैसे वन्य जीव या तो पूरी तरह से लुप्त हो गये हैं या फिर लुप्त होने के कगार पर हैं। सेवण, धामण, फोग जैसी बहुत सी वनस्पतिक प्रजातियां भी लुप्त हो चुकी हैं। खेजड़ी जैसे राजस्थान के ‘कल्पवृक्ष’ के लुप्त होने की संभावनाएं महसूस होने लगी हैं। हवा से मिट्टी का कटाव बढ़ गया है तथा रेगिस्तान दिनों-दिन फैलता हुआ मालवा की तरफ चल पड़ा है। इन बदलावों का असर यहां की आजीविका के मुख्य साधन खेती और पशुपालन पर पड़ रहा है।
यहां के लोगों का कहना ठीक भी है। थार की जैव विविधता का काफी ह्रास हुआ है। लेकिन इस सबके पीछे जलवायु परिवर्तन का असर है या कृषि और पशुपालन के बदले तौर तरीकों का प्रभाव है, अभी एक विचारणीय मुद्दा है। यहां के लोगों की मानें तो जहां पानी के काम हो रहे हैं, वहां सभी प्रकार की रेगिस्तानी वनस्पतियां फिर से अंकुरित हो रही है।
ट्रैक्टर से खेती जुताई थार की भौगोलिक बनावट के अनुकूल नहीं है। यहां की अधिकांश असिंचित भूमि इतनी कठोर नहीं है कि उसे ट्रेक्टरों से चीरा जाये। यहां के लोग भी इस बात को स्वीकारते हैं कि ट्रैक्टर से खेत जुताई के कारण स्थानीय वनस्पतियों को अंकुरित होने का अवसर नहीं मिलता। धीरे-धीरे यह सभी वनस्पतियां लुप्त हो गई हैं। भूमि की उर्वरता भी कम हुई है। यहां के लोगों का मानना है कि 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टयेर उपज देने वाली भूमि में अब 3 से 4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रह गया है।
कुंओं की खुदाई एवं विद्युत खर्च में किसानों को अनुदान देकर गत दो-तीन दशकों में किसानों को सिंचित कृषि के लिये प्रेरित किया गया। आंख मून्द कर भू-जल दोहन से भूजल स्तर निरन्तर गिर रहा है तथा कुछ इलाकों में कुंए सूख भी गये हैं। जोधपुर जिले का मथानियां क्षेत्र समूचे राजस्थान में प्याज और मिर्च उत्पादन के लिये प्रसिद्ध था। आज वहां के किसानों की हालत बदतर हो चुकी है। कुंए पूरी तरह से सूख चुके हैं तथा धरती बंजर हो चुकी है। भूजल वैज्ञानिकों का मानना है कि भूजल दोहन इसी गति से जारी रहा तो रेगिस्तान भविष्य में पेयजल के लिये तरस जायेगा।
सिंचित कृषि के विस्तार को सरकार ने बढ़ावा देकर हरित क्रान्ति व खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देने का जो सपना देखा था, उसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। कुंओं की खुदाई एवं विद्युत खर्च में किसानों को अनुदान देकर गत दो-तीन दशकों में किसानों को सिंचित कृषि के लिये प्रेरित किया गया। आंख मून्द कर भू-जल दोहन से भूजल स्तर निरन्तर गिर रहा है तथा कुछ इलाकों में कुंए सूख भी गये हैं। जोधपुर जिले का मथानियां क्षेत्र समूचे राजस्थान में प्याज और मिर्च उत्पादन के लिये प्रसिद्ध था। आज वहां के किसानों की हालत बदतर हो चुकी है। कुंए पूरी तरह से सूख चुके हैं तथा धरती बंजर हो चुकी है। भूजल वैज्ञानिकों का मानना है कि भूजल दोहन इसी गति से जारी रहा तो रेगिस्तान भविष्य में पेयजल के लिये तरस जायेगा।
दूसरी तरफ गत तीन दशकों से प्रगति की सिरमौर रही इन्दिरा गांधी नहर के क्षेत्र में पानी की कमी आ गई है। किसानों के आन्दोलन इस बात के गवाह हैं। दो तीन दशक पूर्व कम आबादी घनत्व वाले इस नहरी क्षेत्र में एकाएक आबादी का घनत्व बढ़ गया। यहां के स्थानीय लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। बड़े चराई के मैदान एवं चरागाह थे। नहर आने से पूरा क्षेत्र सिंचित कृषि में तब्दील हो गया। सभी चरागाहों और घास मैदानों को खेतों में तब्दील कर सरकार ने बेच दिया। जिस नहर को रेगिस्तान में सूखा जैसी आपदा के असर को कम करने के रूप में देखा गया था उसी नहर के कारण आज रेगिस्तान में दर्जनों पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो गई हैं। सिंचित खेती के विस्तार के लिये किसानों को नवीन तकनीकी एवं ज्ञान के नाम पर अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उपयोग कर उत्पादन बढ़ाने का जो नुस्खा वैज्ञानिकों ने दिया आज समस्याओं का गढ़ बन गया है।
स्थानीय फसलों की जगह बाजार आधारित नकदी फसलें किसान उगाने लगे जिसमें चारा बहुत कम मिलता है। मलेरिया से मुक्त राजस्थान अब ऐसी ला-ईलाज बीमारियों का घर बन चुका है।
थार के इस बदलाव को वैज्ञानिक कैसे देखते हैं? केन्द्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान (काजरी) के वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लोबल वर्मिंग के कारण पश्चिमी विक्षोभ गर्मियों में भी आने लगा है, जिसकी वजह से मानसूनी हवाएं राजस्थान से किनारा कर रही हैं। काजरी के प्रमुख वैज्ञानिकों का कहना है कि राज्य में मई-जून महीने में कभी भी बरसात नहीं होती थी। पश्चिमी विक्षोभ की वजह से यह बरसात हो रही है और मानसून खिसक कर अगस्त तक जा रहा है। जून में आंधियों का तन्त्र बनता है वह भी धीमा पड़ रहा है। ऐसे में मानसून कमजोर होता जा रहा है। सर्दी भी कम होती जा रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि रेगिस्तान का तापमान बढ़ रहा है। गत तीन दशकों का हवाला देते हुए वैज्ञानिकों का कहना है कि रेगिस्तान में सामन्यत: दिन का तापमान 25 डिग्री तथा रात का तापमान 08 डिग्री होना चाहिये। किन्तु पिछले तीस सालों का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि 30 सालों में रात के तापमान में 07 डिग्री की वृद्धि हुई है।
एरिडजोन फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्युट (आफरी) के वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग तथा पानी के दुरुपयोग के कारण बंजर भूमि बढ़ती जा रही है तथा मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। उनका मानना है कि बारिस की तीव्रता बढ़ गई है लेकिन सूखे की परिस्थितियों में कोई कमी नहीं आई है। अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा के सेटेलाईट डाटा के अनुसार अगले कई दशकों तक थार में कभी सूखा और कभी घनघोर बारिस वाला मौसम रहेगा। उनका मानना है कि पानी के दुरुपयोग से राज्य का भूजल स्तर गिरता जा रहा है और अब पीने लायक पानी भी नहीं है। कई स्थानों पर इन्दिरा गांधी नहर के पानी से सिंचाई हो रही है। अधिक पानी के उपयोग से भी भूमि की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है। उनका मानना है कि बारिस की तीव्रता बढ़ने से थार में बारिस के दिन देखने को मिल रहे हैं लेकिन यह बारिस कब, कहां और कितनी हो रही है, यह अनिश्चितता वाली स्थिति है। कहीं सूखा और कहीं बाढ़ जैसी परिस्थितियां भी सामने आ रही हैं।
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