ज्यादा गम्भीर बात यह है कि जलवायु परिवर्तन ‘विश्व को उसकी धुरी से खिसकाने’ लगा है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की विशाल चादरों के पिघलने के कारण पृथ्वी का ‘ध्रुवीय घूर्णन’ बदल रहा है। पिघली बर्फ के बहकर महासागरों में पहुँच जाने के कारण विश्व के द्रव्यमान में खासा परिवर्तन हो गया है। दुख की बात यह है कि वायुमंडलीय जानकारियों से जुड़े इन मामलों को लेकर शीर्ष स्तर की बैठकों में-चाहे वे कोपेनहेगन में हों, कानकुन में हों या पेरिस-बहुत कम र्चचाएँ होती हैं। हालिया आँकड़ों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते को भारत के औपचारिक समर्थन के पहले से जलवायु परिवर्तन, जल के सिंचाई में बेतहाशा इस्तेमाल और बढ़ती जनसंख्या के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में भूजल तेजी से कम होता रहा है। हरियाणा, उत्तर भारत के कुछ अन्य हिस्सों तथा प. बंगाल के पुरुलिया में भीषण सूखा विश्व के इस भूभाग में मौसमी बदलाव का संकेत है।
उपमहाद्वीप उस अन्तरराष्ट्रीय राडार पर है, जिससे विभिन्न देशों में व्यापक स्तर पर खतरे की घंटी बजती नजर आती है। ज्यादा गम्भीर बात यह है कि जलवायु परिवर्तन ‘विश्व को उसकी धुरी से खिसकाने’ लगा है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की विशाल चादरों के पिघलने के कारण पृथ्वी का ‘ध्रुवीय घूर्णन’ बदल रहा है। पिघली बर्फ के बहकर महासागरों में पहुँच जाने के कारण विश्व के द्रव्यमान में खासा परिवर्तन हो गया है। दुख की बात यह है कि वायुमंडलीय जानकारियों से जुड़े इन मामलों को लेकर शीर्ष स्तर की बैठकों-चाहे वे कोपेनहेगन में हों, कानकुन में हों या पेरिस में हों- में बहुत कम चर्चा होती है।
विश्व के जनविहीन हिस्से आर्कटिक को लेकर चर्चा पर ही समूची कवायद केन्द्रित हो रहती है। कहना न होगा कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन, जो विकसित और विकासशील देशों के बीच असन्तोष का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, के अलावा अन्य अनेक सुप्त कारक भी हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। शोध आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि इस समस्या के दो प्रमुख पहलू हैं। पहला जलवायु परिवर्तन और दूसरा है पर्यावरणीय प्रदूषण। अब वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के घूर्णन को लेकर एक और कारक जान लिया है क्योंकि कम होते जलस्तर ने नाटकीय रूप से उपमहाद्वीप के द्रव्यमान में कमी ला दी है। जल के सघन पुनर्वितरण के चलते द्रव्यमान घटा है।
सूखे और जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल के कारण हर साल संकट घना हो जाता है। यह जमीन की भीतरी नमी को सोख लेता है, जिसकी भरपाई उतनी ही गति से वर्षा जल से नहीं हो पाती। नासा की जेट प्रोपल्सन लेबोरेट्रीज, जिसने 2002 से 2015 के मध्य भूमिगत जल भण्डार का अध्ययन किया था, के डॉ. सुरेन्द्र अधिकारी ने चेताया है, ‘‘भूमि जल के भण्डारण का सिलसिला ऐसा है कि भारतीय उपमहाद्वीप और कैस्पियन सागर के आसपास के भूभाग में बड़े स्तर पर जल की कमी हो गई है। यह भी जलवायु परिवर्तन का खासा बड़ा कारण है।”
उपमहाद्वीप से इतर जल वितरण के बदलते रुख ने हालिया वर्षों में ध्रुवीय घूर्णन के रुझान में बदलाव लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब से पर्यवेक्षण आरम्भ हुआ है, तब से उत्तरी ध्रुव दक्षिण की ओर कनाडा की हडसन-बे की तरफ सालाना 10 सेंमी. की गति से खिसक रहा है। नासा में किये गए शोधों से भूमि जल की स्थिति, जल वितरण और भारत में सूखे के बीच सम्बन्ध का पता चलता है।
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