रोज सात हजार मीट्रीक टन कचरा उगलने वाली दिल्ली 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजाएंगी। दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर चुके हैं और आसपास सौ किलोमीटर तक कोई नहीं चाहता कि उसके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पॉलीथिन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी रोजाना 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक निकलता है।
शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जब देश में किसी न किसी कस्बे-शहर में कूड़े को लेकर आम लोगों का आक्रोश न फूटता हो। आए दिन जनता अपने घर-मुहल्ले के करीब डंपिंग ग्राउंड न बनने देने के लिए आंदोलन करती दिखाई देती है। कूड़ा, सरकार और समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना यही है कि यह दिन-दूना, रात-चौगुना बढ़ रहा है। नेशनल इनवायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इस्टीट्यूट नागपुर के मुताबिक देश में हर साल 44 लाख टन खतरनाक कचरा निकल रहा है। देश में औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा रोज निकलता है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या पुट्टा होता है, जबकि 22 फीसद घरेलू कबाड़ या घरेलू कचरा होता है। कचरे का निपटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है। दिल्ली का नगर निगम कई-कई सौ किलोमीटर दूर तक दूसरे राज्यों में कचरे का डेपिंग ग्राउंड तलाश रहा है। इतने कचरे को इकट्ठा करना, फिर उसे दूर तक ढोकर ले जाना कितना महंगा और जटिल काम है। सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच फीसद का भी ईमानदारी से निपटान नहीं हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसद कूड़ा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमाकर रिसाइकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर वगैरह कुछ समय में सड़-गल जाते हैं इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला पेन होता था, उसके बाद ऐसे बालपेन आए, जिनकी केवल रिफिल बदलती थी। आज बाजार में ऐसे पेनों का बोलबाला है जो खत्म होने पर फेंक दिए जाते हैं। देश की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में औसतन एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ वाले रेजर रोज कचरा बढ़ा रहे हैं। हमारा स्नानागार और रसोई तो कूड़े के बड़े उत्पादक बन गए हैं।
कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे। आज दूध तो दूध, पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बर्तन, पोलीथीन की थैलियां, पैकिंग की पन्नियां वगैरह कचरा बढ़ा रहे हैं। ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई और खुशबू के नाम चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइलों का है। इसमें पारा, कोबाल्ट और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलोग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा, 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री ‘सड़ती-गलती’ नहीं है और न ही जमीन में जज्ब हो पाती है। ये सारे जहर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करते हैं। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों और बेकार हो चुके मोबाइलों से भी उपज रहा है। भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रहती हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निपटान दिल्ली, मुंबई और अन्य महानगरों से ले कर छोटे कस्बों तक में लापरवाही भरा है।
दिल्ली में कचरे का निपटान गंभीर समस्या हो गई है। रोज सात हजार मीट्रिक टन कचरा हो गई है। रोज सात हजार मीट्रीक टन कचरा उगलने वाली दिल्ली 2021 तक 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजाएंगी। दिल्ली के अपने कूड़-ढलाव पूरी तरह भर चुके हैं और आसपास सौ किलोमीटर तक कोई नहीं चाहता कि उसके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में दो साल पहले पॉलीथिन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी रोजाना 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक निकलता है। इलेक्ट्रानिक और मेडिकल कचरा तो यहां की जमीन और जल को जहरीला बना रहा है।
कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है। सरकार उसके निपटान के लिए तकनीकी उपाय और दूसरी कोशिशें कर रही हैं लेकिन असल में कोशिश तो कचरे को कम करने की होनी चाहिए।
प्लास्टिक का कम से कम इस्तेमाल, पुराने कंप्यूटर और मोबाइल के आयात पर रोक और बेकार उपकरणों को निपटाने के लिए उनके विभिन्न अवयवों को अलग करने की व्यवस्था करनी होगी। वाहनों के नकली और घटिया पुर्जों की बिक्री पर कड़ाई भी कचरे को रोकने में मददगार होगी। कचरा-नियंत्रण और उसके निपटान को एक विषय के तौर पर स्कूलों में पढ़ाया जाना भी जरूरी है।
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