जमीन के नीचे के पानी का खजाना बढ़ानें के लिए सूखी धरती को हरा-भरा बनाने का नायाब तरीका है, चैकडैम यानी की लघुबांध आप शायद इस तथ्य से अवगत होंगे कि दुनिया के संपूर्ण ताजे या मीठे पानी का एक बहुत छोटा सा अंश ही नदियों या झीलों में पाया जाता है। अधिकांश मीठा पानी, यानीकि 98 प्रतिशत जमीन के नीचे माटी की नमी और भूजल के रूप में रहता है। अत: भूजल ही (बर्फीले पहाड़ों से पिघलने वाली बर्फ के बाद) ताजे पानी की सबसे बड़ा श्रोत हैं।
इस भूजल की आपूर्ति बरसाती पानी, जलाश्यों, नदियों तथा जल-संरक्षण ढांचों की बदौलत होती है, जिन्हें भूजल पुनर्भरण ढांचे भी कहते हैं। भारत की 50 प्रतिशत से अधिक खेतों की सिंचाई भूजल द्वारा होती है।
पिछले तीन दशकों से जनसंख्या वृद्धि तथा सिंचाई में बढ़ोतरी होने से भूजल का अंधाधुंध दोहन हुआ है, जिसके पुर्नभरण के अभाव में देश के कई भागों में जल-स्तर में भारी गिरावट देखी गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत में यद्यपि 40 लाख हैक्टेयर मीटर की बारिश हर साल होती है, परंतु भूजल के खजाने में केवल 5 लाख हैक्टेयर मीटर पानी ही जुड़ पाता है। इसमें से भी ज्यादातर पानी दोबारा सिंचाई के लिए ऊपर खींचा जाता है। वास्तव में, बरसात का ज्यादातर पानी (करीब 11.5 हैक्टेयर मीटर) तो बेकार बहकर सागर में जा मिलता है और षेङ्ढ जल भाप बनकर उड़ जाता है।
भारत में भूजल ही सिंचित कृषि भूमि में वृध्दि की कुंजी है। यदि हम सारे बड़े बांधों की सम्मिलित सिंचाई संभावनाएं आंक लें तो भी कुल मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक कृषि -भूमि नहीं सींच सकते। सीमित वित के रहते, इन महापरियोजनाओं के पूरा होने की लम्बी अवधि के चलते, तथा नर्मदा सागर तथा टिहरी बांध के डूब के इलाके में आने वाले लोगों के विस्थापन तथा पर्यावरण-विनाश को देखते हुए भूजल ही धरती सींचने का एक समुचित विकल्प प्रतीत होता है।
इसमें भूजल के पुनर्भरण या जमीन में पानी के खजाने को दोबारा भरने के लिए उपाए करने होंगे, जैसे कि भूमि का वनस्पति आवरण बढ़ाना, मिट्टी व नमी बनाए रखने के तरीके अपनाना, भूमि उपयोग की समुचित पध्दतियों का प्रयोग, तथा झरनों और नालों पर छोटे बांध बनाना।
लघुबांध या ''चैकडैम'' मिट्टी, पत्थर या सीमेंट-रोड़ी का बना हुआ एक ऐसा अवरोध होता है, जिसे किसी भी झरने या नाले के जल प्रवाह की आड़ी दिशा में खड़ा किया जाता है। लघुबांध का प्रमुख उद्देशय मानसून की वर्षा का अतिरिक्त जल को बांधना होता है, ताकि वह काम आ सके। यह पानी बरसात के दौरान और उसके बाद भी इस्तेमाल हो सकता है और इसमें भूजल का स्तर बढ़ता है। यह जल-श्रोत मछली-पालन के लिए भी अतयन्त उपयोगी है।
जहां तक लागत का सवाल है, लघुबांध बहुत सस्ता पड़ता है। कारण यह कि जहां बड़े बांधों द्वारा एक एकड़ जमीन सींचने में दो लाख से ज्यादा की लागत लगती है, वहीं लघुबांध से 5,000 से 8,000 रूपए में एक एकड़ की सिंचाई हो जाती है।
किसी भी लघुबांध को बनाने से पहले ठीक जगह का चयन करना बेहद जरूरी है। सबसे पहले यह देखना होगा कि स्थान-विशेष में काफी मात्रा में बारिश का पानी खड़ा होगा कि नहीं। जल-एकत्रण क्षमता के साथ-साथ ढांचा ऐसा हो जो लम्बे समय तक पानी रोक सके। एकत्रित जल के दोनों ओर काफी मात्रा में खेती का इलाका होना चाहिए। अचानक बाढ़ आने से खेती के डूबने का कम से कम खतरा होना चाहिए। अन्त मे, इसको बनाने के फायदे इसकी लागत के कई गुना अधिक होने चाहिए।
आइए हम आपको बताते हैं कि माटी की लघुबांध कैसे बनाते हैं :
ऊबड़-खाबड़ इलाकों में बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए मिट्टी के पुष्ते बनाए जाते हैं। माटी के इन लघुबांधों में निर्माण में कई सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। जहां की भू-संरचना हल्की हो वहां पानी को रिसने से रोकने के उपाए करने होंगे। जैसे, नाले के तल को ठीक-ठाक कर पानी को रोकना, साथ ही पुष्ते की मुख्य दीवार को कपास वाली काली मिट्टी और गोल पत्थरों को सीमेंट, रेत और रोड़ी से चिनना।
ध्यान रहे कि माटी के बने किसी भी लघु-बांध की ऊपरी परत की चौड़ाई कभी भी 2 मीटर से कम नहीं होनी चाहिए, ताकि रखरखाव में आसानी हो।
माटी के बांध के दोनों कोनों की ढलवां दीवारों की ढलानों बारे में यों तो कोई विषिष्ट मार्गदर्षन नहीं दिया जा सकता, फिर भी अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट है कि टूटने-फूटने, लहरों द्वारा पीछे से आने वाले जल प्रवाह से ढलान को कटने, या हवा व बारिश से आगे जा रहे जल-प्रवाह से ढलान को कटने से रोकने के लिए पीछे से आने वाले जल-प्रवाह में 1.3 के अनुपात में (एक खड़ी के पीछे 3 पड़ी) ढलानें तथा आगे बह जाने वाले जल-प्रवाह में 1.2 के अनुपात में (एक खड़ी के पीछे 2 पड़ी) ढलाने खड़ी करना अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है।
लघु-बांध की ऊंचाई निर्धारित करते समय काफी गुंजाइश रखनी पड़ती है। बाढ़ की ऊंचाई के स्तर से कम से कम 15 प्रतिशत ऊपर तक बांध की ऊंचाई होनी चाहिए। इस अतिरिक्त ऊंचाई से बाढ़ के समय अचानक बढ़ आए पानी से बांध के ऊपर पानी बहने का खतरा नही रहता तथा बांध में अतिरिक्त पानी को भी ढांचे या आसपास के खेंतों को नुकसान पहुंचाए बिना बाहर निकाल देने का भी प्रावधान रहता है।
ढांचे में दरार न पड़े तथा हर दृष्टि से सुरक्षित रहे इसके लिए निर्धारित ऊंचाई से भी ऊंचा बनाना समुचित व व्यावहारिक रहता है।
ढांचे की ऊंचाई बढ़ाते समय 20 से 30 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की परतों में ठुकाई (या संपीड़न) करने से बेहतर मजबूती कायम रहती है। यदि बांध की बुनियाद में खुरदरी बालू या रोड़ी तथा सुदृढ़ साद (या चिकनी मिट्टी) हो तो उसकी दबाव-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
माटी के बांध में पीछे से आने वाले जल प्रवाह के ढलान को कटने से बचाने के लिए पत्थर जड़ने होंगे। हरेक पत्थर का बजन इतना होना चाहिए कि वह पानी के वेग से न उखड़ पाए। कम से कम 50 सेंटीमीटर मोटी पत्थर की ढलान बैठानी होगी तभी कटाव रूक पाएगा।
आगे बह जाने वाले जल-प्रवाह के ढलान के बीच में एक गति-अवरोधक का होना जरूरी है, ताकि तेजी से नीचे लुढ़कते पानी के वेग से ढलान न कट जाए। इस तरह तैयार मिट्टी के छोटे बांध के बड़े फायदे हैं, जैसे:
उस इलाके की जमीन में नमी का दायरा बढता है जिससे जैवभार की भारी उपज होती है। भूजल का पुनर्भरण होता है, और उसका स्तर बढ़ता है तथा खेती के अलावा मीठे पानी के कुओं में पानी चढ़ता है जिससे पेयजल के साथ-साथ अन्य घरेलू कार्यों के लिए भी हमेशा पानी मिलता रहता है। बांध के पहले जहां केवल साल में बस एक फसल ली जाती थी, वहां अव दो से तीन फसलें तक ली जा सकती हैं।
इसके अलावा मछली-पालन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं तथा मवेशियों को गर्मियों में भी पीने का पानी आसानी से मिल जाता है।
किसान जब चाहे तब पानी खींच सकता है, यानि कि जब उसे सचमुच उसकी जरूरत पड़े तब, जो कि नहर-सिंचाई की पद्धति में संभव नहीं है।
माटी का छोटा बांध बांधने में बहुत कम समय लगता है। एक मध्यम कद बांध (जो 20 से 30 हैक्टेयर के भू-भाग को सींचता है) के निर्माण में केवल दो महीने लगते हैं।
इसके बनाने में लोग विस्थापित नहीं होते। और इसकी लागत एक मौसम या ज्यादा से ज्यादा दो मौसम में निकाली जा सकती है। इसका कारण स्पष्ट है - दुगनी से अधिक अन्नोत्पादता।
मध्यप्रदेश के दतिया जिले का च्रिरूला ग्राम झांसी-ग्वालियर मार्ग पर स्थित है। इस गांव के कोने में वह राह एक 12-15 मीटर चौड़ा नाला उत्तर प्रदेश के मध्यप्रदेश को जोड़ता है। यद्यपि बुन्देलखण्ड के कृषि मानकों के अनुसार चिरूला की भूमि उपजाऊ मानी जाती है, परन्तु सिंचाई के पानी की कमी के कारण रबी के मौसम में बड़ी मुश्किल से एक या दो फसल ले पाते थे और गर्मियों में तो कुएं पूरी तरह सूख जाते थे। भूजल के पुनर्भरण की दर बेहद कम होने से कुएं भर नहीं पाते थे और खेत सूखे रह जाते थे।
यह देखते हुए संस्था विकास-विकल्प ने इस नाले पर 1990 से जून माह के दौरान दो लघु-बांध बांधे जो जुलाई के अंत तक पानी से भर गए। अतिरिक्त झरने वाले जल की निकासी के लिए ढांचे की ऊंचाई नाले के पांच फुट ऊपर रखी गई। एक लघु-बांध में 600 मीटर की लंबाई तक पानी खड़ा था और दूसरा 800 मीटर तक।
पहले साल में ही भूजल का स्तर इतना भर गया कि बांध के दोनों तरफ 700 से 900 फूट की दूरी तक स्थित कुओं का पानी 6 से 7 फुट ऊपर चढ़ गया। नतीजन, करीब 50 हैक्टेयर के इलाके में फैली गेहूं की फसल को 90-91 के रबी के मौसम में चार बार सींचा गया। सिंचाई के बाद इन कुओं में भूजल भी जल्दी से दोबारा भर गया, जबकि पहले यह बहुत धीरे और बेहद कम भरता था। रबी के केवल एक या ज्यादा से ज्यादा दो बार ही सिंचाई हो पाती थी।
यही नहीं, पहले जहां गर्मियों में कुएं सूख जाते थे वही अब दों बांधों के कारण चार बार सिंचाई के बाद भी 1991 की ग्रीष्म में पांच फुट पानी खड़ा था। इसके अगले साल विकास-विकल्प ने दो ओर लघु-बांध बांधे जिसके कारण आज लगभग 100 एकड़ के क्षेत्रफल में सभी फसलों के पर्याप्त पानी मिल रहा है। उदाहरण के लिए जहां खरीफ के मौसम में धान के लिए काफी पानी रहता है वहीं रबी में गेहूं के लिए भी भरपूर जल रहता है। यही नहीं, रबी के फसल कटने के बाद 20-25 हैक्टेयर में हरे चारे की फसल भी ली जा रही है।
इस प्रकार दतिया जिले को हरा-भरा बना रहे इन कारगर लघु-बांधों की लागत भी ज्यादा नहीं है। इन चारों बांध के निर्माण की कुल लागत है लगभग दो लाख रूपए। तो फिर आप अपने इलाके में लघु-बांध बना रहे हैं न।
इस भूजल की आपूर्ति बरसाती पानी, जलाश्यों, नदियों तथा जल-संरक्षण ढांचों की बदौलत होती है, जिन्हें भूजल पुनर्भरण ढांचे भी कहते हैं। भारत की 50 प्रतिशत से अधिक खेतों की सिंचाई भूजल द्वारा होती है।
पिछले तीन दशकों से जनसंख्या वृद्धि तथा सिंचाई में बढ़ोतरी होने से भूजल का अंधाधुंध दोहन हुआ है, जिसके पुर्नभरण के अभाव में देश के कई भागों में जल-स्तर में भारी गिरावट देखी गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत में यद्यपि 40 लाख हैक्टेयर मीटर की बारिश हर साल होती है, परंतु भूजल के खजाने में केवल 5 लाख हैक्टेयर मीटर पानी ही जुड़ पाता है। इसमें से भी ज्यादातर पानी दोबारा सिंचाई के लिए ऊपर खींचा जाता है। वास्तव में, बरसात का ज्यादातर पानी (करीब 11.5 हैक्टेयर मीटर) तो बेकार बहकर सागर में जा मिलता है और षेङ्ढ जल भाप बनकर उड़ जाता है।
भारत में भूजल ही सिंचित कृषि भूमि में वृध्दि की कुंजी है। यदि हम सारे बड़े बांधों की सम्मिलित सिंचाई संभावनाएं आंक लें तो भी कुल मिलाकर 50 प्रतिशत से अधिक कृषि -भूमि नहीं सींच सकते। सीमित वित के रहते, इन महापरियोजनाओं के पूरा होने की लम्बी अवधि के चलते, तथा नर्मदा सागर तथा टिहरी बांध के डूब के इलाके में आने वाले लोगों के विस्थापन तथा पर्यावरण-विनाश को देखते हुए भूजल ही धरती सींचने का एक समुचित विकल्प प्रतीत होता है।
इसमें भूजल के पुनर्भरण या जमीन में पानी के खजाने को दोबारा भरने के लिए उपाए करने होंगे, जैसे कि भूमि का वनस्पति आवरण बढ़ाना, मिट्टी व नमी बनाए रखने के तरीके अपनाना, भूमि उपयोग की समुचित पध्दतियों का प्रयोग, तथा झरनों और नालों पर छोटे बांध बनाना।
क्या हैं लघु बांध ?
लघुबांध या ''चैकडैम'' मिट्टी, पत्थर या सीमेंट-रोड़ी का बना हुआ एक ऐसा अवरोध होता है, जिसे किसी भी झरने या नाले के जल प्रवाह की आड़ी दिशा में खड़ा किया जाता है। लघुबांध का प्रमुख उद्देशय मानसून की वर्षा का अतिरिक्त जल को बांधना होता है, ताकि वह काम आ सके। यह पानी बरसात के दौरान और उसके बाद भी इस्तेमाल हो सकता है और इसमें भूजल का स्तर बढ़ता है। यह जल-श्रोत मछली-पालन के लिए भी अतयन्त उपयोगी है।
जहां तक लागत का सवाल है, लघुबांध बहुत सस्ता पड़ता है। कारण यह कि जहां बड़े बांधों द्वारा एक एकड़ जमीन सींचने में दो लाख से ज्यादा की लागत लगती है, वहीं लघुबांध से 5,000 से 8,000 रूपए में एक एकड़ की सिंचाई हो जाती है।
किसी भी लघुबांध को बनाने से पहले ठीक जगह का चयन करना बेहद जरूरी है। सबसे पहले यह देखना होगा कि स्थान-विशेष में काफी मात्रा में बारिश का पानी खड़ा होगा कि नहीं। जल-एकत्रण क्षमता के साथ-साथ ढांचा ऐसा हो जो लम्बे समय तक पानी रोक सके। एकत्रित जल के दोनों ओर काफी मात्रा में खेती का इलाका होना चाहिए। अचानक बाढ़ आने से खेती के डूबने का कम से कम खतरा होना चाहिए। अन्त मे, इसको बनाने के फायदे इसकी लागत के कई गुना अधिक होने चाहिए।
आइए हम आपको बताते हैं कि माटी की लघुबांध कैसे बनाते हैं :
माटी का बांध
ऊबड़-खाबड़ इलाकों में बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए मिट्टी के पुष्ते बनाए जाते हैं। माटी के इन लघुबांधों में निर्माण में कई सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। जहां की भू-संरचना हल्की हो वहां पानी को रिसने से रोकने के उपाए करने होंगे। जैसे, नाले के तल को ठीक-ठाक कर पानी को रोकना, साथ ही पुष्ते की मुख्य दीवार को कपास वाली काली मिट्टी और गोल पत्थरों को सीमेंट, रेत और रोड़ी से चिनना।
ध्यान रहे कि माटी के बने किसी भी लघु-बांध की ऊपरी परत की चौड़ाई कभी भी 2 मीटर से कम नहीं होनी चाहिए, ताकि रखरखाव में आसानी हो।
माटी के बांध के दोनों कोनों की ढलवां दीवारों की ढलानों बारे में यों तो कोई विषिष्ट मार्गदर्षन नहीं दिया जा सकता, फिर भी अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट है कि टूटने-फूटने, लहरों द्वारा पीछे से आने वाले जल प्रवाह से ढलान को कटने, या हवा व बारिश से आगे जा रहे जल-प्रवाह से ढलान को कटने से रोकने के लिए पीछे से आने वाले जल-प्रवाह में 1.3 के अनुपात में (एक खड़ी के पीछे 3 पड़ी) ढलानें तथा आगे बह जाने वाले जल-प्रवाह में 1.2 के अनुपात में (एक खड़ी के पीछे 2 पड़ी) ढलाने खड़ी करना अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है।
लघु-बांध की ऊंचाई निर्धारित करते समय काफी गुंजाइश रखनी पड़ती है। बाढ़ की ऊंचाई के स्तर से कम से कम 15 प्रतिशत ऊपर तक बांध की ऊंचाई होनी चाहिए। इस अतिरिक्त ऊंचाई से बाढ़ के समय अचानक बढ़ आए पानी से बांध के ऊपर पानी बहने का खतरा नही रहता तथा बांध में अतिरिक्त पानी को भी ढांचे या आसपास के खेंतों को नुकसान पहुंचाए बिना बाहर निकाल देने का भी प्रावधान रहता है।
ढांचे में दरार न पड़े तथा हर दृष्टि से सुरक्षित रहे इसके लिए निर्धारित ऊंचाई से भी ऊंचा बनाना समुचित व व्यावहारिक रहता है।
ढांचे की ऊंचाई बढ़ाते समय 20 से 30 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की परतों में ठुकाई (या संपीड़न) करने से बेहतर मजबूती कायम रहती है। यदि बांध की बुनियाद में खुरदरी बालू या रोड़ी तथा सुदृढ़ साद (या चिकनी मिट्टी) हो तो उसकी दबाव-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
माटी के बांध में पीछे से आने वाले जल प्रवाह के ढलान को कटने से बचाने के लिए पत्थर जड़ने होंगे। हरेक पत्थर का बजन इतना होना चाहिए कि वह पानी के वेग से न उखड़ पाए। कम से कम 50 सेंटीमीटर मोटी पत्थर की ढलान बैठानी होगी तभी कटाव रूक पाएगा।
आगे बह जाने वाले जल-प्रवाह के ढलान के बीच में एक गति-अवरोधक का होना जरूरी है, ताकि तेजी से नीचे लुढ़कते पानी के वेग से ढलान न कट जाए। इस तरह तैयार मिट्टी के छोटे बांध के बड़े फायदे हैं, जैसे:
उस इलाके की जमीन में नमी का दायरा बढता है जिससे जैवभार की भारी उपज होती है। भूजल का पुनर्भरण होता है, और उसका स्तर बढ़ता है तथा खेती के अलावा मीठे पानी के कुओं में पानी चढ़ता है जिससे पेयजल के साथ-साथ अन्य घरेलू कार्यों के लिए भी हमेशा पानी मिलता रहता है। बांध के पहले जहां केवल साल में बस एक फसल ली जाती थी, वहां अव दो से तीन फसलें तक ली जा सकती हैं।
इसके अलावा मछली-पालन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं तथा मवेशियों को गर्मियों में भी पीने का पानी आसानी से मिल जाता है।
किसान जब चाहे तब पानी खींच सकता है, यानि कि जब उसे सचमुच उसकी जरूरत पड़े तब, जो कि नहर-सिंचाई की पद्धति में संभव नहीं है।
माटी का छोटा बांध बांधने में बहुत कम समय लगता है। एक मध्यम कद बांध (जो 20 से 30 हैक्टेयर के भू-भाग को सींचता है) के निर्माण में केवल दो महीने लगते हैं।
इसके बनाने में लोग विस्थापित नहीं होते। और इसकी लागत एक मौसम या ज्यादा से ज्यादा दो मौसम में निकाली जा सकती है। इसका कारण स्पष्ट है - दुगनी से अधिक अन्नोत्पादता।
छोटे बांध के बड़े लाभ
मध्यप्रदेश के दतिया जिले का च्रिरूला ग्राम झांसी-ग्वालियर मार्ग पर स्थित है। इस गांव के कोने में वह राह एक 12-15 मीटर चौड़ा नाला उत्तर प्रदेश के मध्यप्रदेश को जोड़ता है। यद्यपि बुन्देलखण्ड के कृषि मानकों के अनुसार चिरूला की भूमि उपजाऊ मानी जाती है, परन्तु सिंचाई के पानी की कमी के कारण रबी के मौसम में बड़ी मुश्किल से एक या दो फसल ले पाते थे और गर्मियों में तो कुएं पूरी तरह सूख जाते थे। भूजल के पुनर्भरण की दर बेहद कम होने से कुएं भर नहीं पाते थे और खेत सूखे रह जाते थे।
यह देखते हुए संस्था विकास-विकल्प ने इस नाले पर 1990 से जून माह के दौरान दो लघु-बांध बांधे जो जुलाई के अंत तक पानी से भर गए। अतिरिक्त झरने वाले जल की निकासी के लिए ढांचे की ऊंचाई नाले के पांच फुट ऊपर रखी गई। एक लघु-बांध में 600 मीटर की लंबाई तक पानी खड़ा था और दूसरा 800 मीटर तक।
पहले साल में ही भूजल का स्तर इतना भर गया कि बांध के दोनों तरफ 700 से 900 फूट की दूरी तक स्थित कुओं का पानी 6 से 7 फुट ऊपर चढ़ गया। नतीजन, करीब 50 हैक्टेयर के इलाके में फैली गेहूं की फसल को 90-91 के रबी के मौसम में चार बार सींचा गया। सिंचाई के बाद इन कुओं में भूजल भी जल्दी से दोबारा भर गया, जबकि पहले यह बहुत धीरे और बेहद कम भरता था। रबी के केवल एक या ज्यादा से ज्यादा दो बार ही सिंचाई हो पाती थी।
यही नहीं, पहले जहां गर्मियों में कुएं सूख जाते थे वही अब दों बांधों के कारण चार बार सिंचाई के बाद भी 1991 की ग्रीष्म में पांच फुट पानी खड़ा था। इसके अगले साल विकास-विकल्प ने दो ओर लघु-बांध बांधे जिसके कारण आज लगभग 100 एकड़ के क्षेत्रफल में सभी फसलों के पर्याप्त पानी मिल रहा है। उदाहरण के लिए जहां खरीफ के मौसम में धान के लिए काफी पानी रहता है वहीं रबी में गेहूं के लिए भी भरपूर जल रहता है। यही नहीं, रबी के फसल कटने के बाद 20-25 हैक्टेयर में हरे चारे की फसल भी ली जा रही है।
इस प्रकार दतिया जिले को हरा-भरा बना रहे इन कारगर लघु-बांधों की लागत भी ज्यादा नहीं है। इन चारों बांध के निर्माण की कुल लागत है लगभग दो लाख रूपए। तो फिर आप अपने इलाके में लघु-बांध बना रहे हैं न।
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