बड़े बांधों से न बुझेगी प्यास

पानी की समस्या का हल बड़े बांध नहीं हैं। आंकड़े देखें तो पिछले दस सालों में तालाब और छोटे जलाशयों से ही सबसे ज्यादा सिंचाई हुई है। बड़े बांधों से पिछले बीस सालों में एक हेक्टेयर सिंचाई भी नहीं बढ़ी है। इसलिए बड़े बांध समस्या का हल नहीं है।
केंद्रीकृत जल नियोजन को बढ़ावा देना, और केवल बांध या नहरों का निर्माण ही नहीं, बल्कि वितरण भी निजी हाथों में सौंपते जाना सबसे गंभीर बात है, क्योंकि इससे कीमत और उसे चुकाने की क्षमता पर ही जल आवंटन निर्भर होता जाता है। ऐसे में, चाहे शुरुआत के प्रचार में कुछ भी चढ़-बढ़ाकर लक्ष्य क्यों न आंके गए हों, स्थिति गंभीर ही होनी है। इससे प्राथमिकताएं बदलकर नहर जाल के दूसरे चोर पर मौजूद जरूरतमंद, सूखाग्रस्त इलाकों के बदले पानी शहर और कंपनियों की ओर मुड़ता चला जाता है। गर्मी के दिन आए नहीं कि नाले-नदियां सूखते ही पानी की समस्या अखबारों की सुर्खियों में चर्चित हो जाती है। पानी के बिना तड़पते गांव या शहर की बस्तियां भी चिल्लाने लगती हैं। अक्सर लोग चुपचाप यह किल्लत सह भी लेते हैं तो इसलिए कि उनके जीवन में ऋतु चक्र के साथ समस्या-चक्र भी हावी होता ही है और समाज में राजनीतिक प्रभाव-दबावों के बीच सत्ताहीन महसूस करते, वे राह देखने को विवश होते हैं, केवल ऋतु बदलने की ...बारिश की बौछार की! तमाम चर्चा-विचार, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बहस, शासकीय नीति, आदेश और कानून के होते हुए भी ‘जीवनाधार’ जल पर आज तक संपूर्ण सोच और समता-न्यापूर्ण बंटवारे से लेकर प्राकृतिक सुरक्षा के साथ उसका संग्रहण, नियोजन और दोहन क्यों संभव नहीं हो पाया है? इस सवाल का जवाब, देशभर के कोने-कोने में गांव-गली या नदी घाटी में जन-जन की ओर से उठाए जा रहे सवालों में छिपा हुआ है। ये सवाल एक ओर जनता जो भुगत रही है, उन समस्याओं के रूप में हैं, तो दूसरी ओर, शासन के सामने की चुनौतियों के रूप में।

पानी को कहीं कम तो कहीं अधिक बरसने वाले, भूपृष्ठ और भूजल में समाए हुए, एक-एक इकाई में बंटे हुए संसाधन के रूप में हम पाते हैं। एक विशेष इकाई है नदी, जिसमें छोटे या बड़े जलग्रहण क्षेत्र से आकर बहता है पानी। उसे एक जल व्यवस्था के रूप में न देखते हुए उससे खिलवाड़ आज की सबसे बड़ी समस्या है। हर नदी घाटी में, वहां की उपजाऊ जमीन, घर-गांव उजाड़कर बड़े जलाशय बनाने के खिलाफ जो संघर्ष चल रहा है, वह विस्थापितों का जरूर है, पर न केवल बांध में डूबने वाले किंतु बांध के नीचे वाले क्षेत्र के लोग भी उसमें शामिल हो रहे हैं। आखिर जलग्रहण क्षेत्र में बिखरा हुआ पानी विकेंद्रीकृत रूप से वहीं इकट्ठा क्यों नहीं होता है? हर क्षेत्र के भूजल में पानी समाने की तरकीब अब दुनिया जान गई है क्षेत्र की मिट्टी और पत्थर के अध्ययन का सहारा लेकर, किंतु दुनिया में बढ़ते जा रहे जल संकट, जलवायु परिवर्तन आदि के परिप्रेक्ष्य में नया मार्ग जरूरी है। विश्व बांध आयोग की रिपोर्ट भी यही बताती है। द. अफ्रीका, चीन जैसे देशों, प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और बड़े-बड़े बांध बनाने वाली कंपनियों के नुमाइंदों के इस आयोग के सदस्य होने के बावजूद यह पारित हुआ।

पानी के भरण स्रोत केवल बड़े जलाशय ही नहीं माने जाने चाहिए। दूर-दूर तक हमारी आंखों के सामने खेत-खलिहान या छतों से बहता पानी हम रोकें नहीं और वही पानी बड़ी नदी में आने से उसका बहना ‘व्यर्थ’ नजर आए और उसे बड़ी मात्रा में जमीन की आहुति देकर विशालकाय जलाशय में रोकना चाहें, तो यह विकृति ही है। इस पर सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि वही पानी फिर दूरदराज तक पहुंचाने में ‘विषमतावाद’ पल रहा है। यह न ही तकनीक है और न ही वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वसम्मत। भूजल पर किसान के हक और नियंत्रण तथा कुछ शासकीय प्रबंधन के साथ उसका उपयोग हो तो नहरों की सिंचाई की तुलना में 1.5 गुना फसल मिल सकती है, यह साबित हो चुकी बात है। पिछले 10 सालों में, कम खर्चे में भूजल भरण और विकेंद्रित छोटे जलसंग्रह के द्वारा ही अधिक सिंचाई देश में होती रही है। बड़े बांधों से पिछले करीब 20 सालों में एक हेक्टेयर भी सिंचाई न बढ़ने के आंकड़े दिल्ली की सेंड्रप संस्था शासकीय संस्थाओं, केंद्रीय जल आयोग, जल संसाधन मंत्रालय से निकालकर सामने लाई है। इसलिए बड़े बांधों पर चल रहे संघर्षों से नहीं, गलत दिशा और गलत विकल्प के चुनाव से सिंचाई का विकास अवरुद्ध हुआ है, यह जानना जरूरी है। यह हकीकत और भी गहरी दिखाई देती है, जब हम आज की जलनीति और उसके अमल की प्रक्रिया को नजदीक से देखते हैं। जल परियोजनाओं के नियोजन में केवल खामियां ही नहीं, कानूनों का उल्लंघन और इससे जुड़ा भ्रष्टाचार भी इसका कारण है।

शासन ने पिछले तीन दशकों में अधिकाधिक निजीकरण यानी कंपनीकरण का सहारा ही जल प्रबंधन में लिया है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के चलते समस्याएं और भी गंभीर हो चुकी हैं। नियोजन में, परियोजनाओं की मंजूरी पाने में या निगरानी-पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया में पर्यावरण सुरक्षा कानून-1986 या योजना आयोग के नियमों-शर्तों का सरेआम उल्लंघन हो रहा है। पूंजी और बाजार के दबाव-प्रभाव के चलते न्यूनतम पूर्व शर्तें- जैसे कि बड़े बांधों के लाभ-क्षेत्र का अध्ययन, जल जमाव/क्षारीकरण से बर्बादी न हो, इसके लिए लाभ-क्षेत्र के विकास के साथ जल संग्रहण क्षेत्र जीवित रखने के लिए नियोजन (कछार में समतलीकरण, नवीकरण इत्यादि), बांध के नीचे की जनता और विविध कार्यों के लिए न्यूनतम जल प्रवाह की सुनिश्चितता आदि-का पालन नहीं हो रहा है। इसके दूरगामी असर गाद भराव, नदी का बारिश के बाद सूखना-नतीजन साल में कुछ ही महीने पानी की उपलब्धता के रूप में दिखाई दे रहे हैं। लाभ-क्षेत्र में सही असिंचित क्षेत्र के बदले पूर्व से ही सिंचित या नहरों से सिंचाई के लिए अनुपयुक्त क्षेत्र में (मिट्टी परीक्षा, समतल स्थिति की जांच इत्यादि के बिना) नहर जाल फैलाने जैसे गंभीर गैरकानूनी निर्णय एवं कार्य बढ़ रहे हैं। उदाहरण दें तो कितने? हजारों करोड़ रुपयों की एक-एक परियोजना में यह सब देखा जा सकता है। बुनियादी बातों की अनदेखी काफी महंगी पड़ रही है। न ही योजनाएं पूरी होती हैं, न ही उनके लाभ सही मिल पा रहे हैं। कई परियोजनाओं में जल उपयुक्तता की क्षमता 40 प्रतिशत से आगे नहीं जाती और विद्युत निर्माण भी लक्ष्य का 40 या 60 प्रतिशत ही हो पाता है। कंपनियां तो पानी, बिजली बेचकर मुनाफा कमा ही लेती हैं, पर शासन नुकसान भुगतान अपना बोरा-बिस्तरा बांधने या निजीकरण के तहत उसे पूंजी निवेशकों पर सौंपने को तैयार हो जाता है।

केंद्रीकृत जल नियोजन को बढ़ावा देना, और केवल बांध या नहरों का निर्माण ही नहीं, बल्कि वितरण भी निजी हाथों में सौंपते जाना सबसे गंभीर बात है, क्योंकि इससे कीमत और उसे चुकाने की क्षमता पर ही जल आवंटन निर्भर होता जाता है। ऐसे में, चाहे शुरुआत के प्रचार में कुछ भी चढ़-बढ़ाकर लक्ष्य क्यों न आंके गए हों, स्थिति गंभीर ही होनी है। इससे प्राथमिकताएं बदलकर नहर जाल के दूसरे चोर पर मौजूद जरूरतमंद, सूखाग्रस्त इलाकों के बदले पानी शहर और कंपनियों की ओर मुड़ता चला जाता है। विषमता की विकृति बढ़ाने वाला यह नियोजन जनतंत्र के भी खिलाफ है। संविधान की अनुसूची-11 के तहत ग्राम स्तर पर जल और जमीन का नियोजन अपेक्षित है और ऐसी ही ख्वाहिश संविधान की धारा-243 में 1993 में लाए गए 73-74वें संशोधन द्वारा भी व्यक्त की गई है। बस, जरूरत इस बात की है कि जन सहभागिता से विकेंद्रित जल नियोजन के द्वारा प्यास बुझाने, सिंचाई में समता लाने तथा गांव या बस्ती को ही सामाजिक-आर्थिक नियोजन की इकाई मानकर उसे ‘जल संग्रह क्षेत्र’ की प्राकृतिक इकाई से जोड़कर नियोजन करने का प्रयास किया जाए। जमीन को भी (कितनी जमीन, किसके लिए आरक्षित, फसल चुनौती, चारागाह की सुरक्षा, पेड़ों की रक्षा इत्यादि के साथ) इसी तरह नियोजित किया जाना चाहिए। कोशिश हो तो हर नागरिक के लिए सम्मान के साथ आवश्यक पानी दे पाने का विकल्प संभव है। शासन की नीति में ही नहीं, समाज की सोच में ऐसा ही बदलाव परिवर्तन लाएगा, अन्यथा सूखा-बाढ़, भूक्षरण या क्षारीकरण की त्रासदी जारी रहेगी।

(लेखिका प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता है)

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