प्रकृति के साथ मनुष्य की बेहूदा छेड़छाड़ के चलते सदियों से चरेवतिः चरेवतिः का संदेश देने वाली नदियां भी थकने लगी हैं। गंगा-यमुना दोआब में उथले नलकूपों का असफल हो जाना आम सी बात हो गई। प्रकृति जरूरत तो पूरा कर सकती है लेकिन लालच को पूरा नहीं कर सकती। मनुष्य के इस लालच रूपी दैत्य ने हमारे परंपरागत नदियों, तालाबों, कुओं, पोखरों आदि को निगल लिया है। जल प्रकृति का अनुपम उपहार है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। किसी जीवया वनस्पति को वायु के बाद जल जीवन की रक्षा के लिए अति आवश्यक है। यही कारण है कि विश्व की समस्त सभ्यताओं के विकास में जल की उपलब्धता का विशेष महत्व रहा है। पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति सर्वप्रथम जल से ही हुई। ऋग्वेद में भी लिखा है ‘‘सलिल सर्व माइदम‘‘ अर्थात् जल सृष्टि के आरम्भ से ही है। पृथ्वी का दो तिहाई भाग जल से घिरा है। फिर भी शुद्ध जल की मात्रा सीमित है। वर्तमान में पृथ्वी पर 0.3 भाग ही साफ व शुद्ध जल रह गया है। शिक्षक इन गतिविधियों के प्रमुख संचालक है। वे विद्यार्थियों के ऐसे गुणों को विकसित करने में सहयोग व दिशा निर्देशन देते हैं। जिससे वे पौधों, जीव-जंतुओं के मित्र बन जाए। विद्यार्थियों को निरीक्षण एवं कार्य से जोड़कर तथा ज्ञान, कौशल एवं मूल्यों के विकास को बढ़ावा देकर पाठ्यक्रम सहगामी गतिविधियों के द्वारा उनके लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। बुढ़ाना- कांधला मार्ग पर स्थित एक सरकारी स्कूल पूर्व माध्यमिक विद्यालय राजपुर-छाजपुर जैव विविधता एवं जल प्रबंधन को लेकर बहुत ही सजग है। इस विद्यालय में कक्षा 6 से कक्षा 8 तक 306 बच्चे पढ़ते हैं। यह विद्यालय 22 बीघे ज़मीन पर बना है। जिसमे आम व अमरूद का बाग भी हैं। इस विद्यालय में 12 अध्यापक व 4 अन्य कर्मचारी है।
विद्यालय के प्रधानाचार्य के श्री ब्रजपाल सिंह राठी के मार्गदर्शन में विद्यालय में 20 बच्चों की एक जल मित्र टीम बनाई गई। जिनमें सौरभ, बादल,अजय,निखिल,मोहित,प्रियांशु,मानसिंह, आकाश, सन्नी, मोहिन, समरीन, प्रियंका, छवि, प्रिया, पायल, सोनम, निक्की, आकांक्षा व खुशी। यें सभी बच्चे स्वेच्छा से जल मित्र टीम में शामिल हुए। उसके बाद बच्चों ने अपने में से एक बच्चे को जलमित्र टीम लीडर चुना। जलमित्र टीम लीडर ने विद्यालय का एक नक्शा बनाया तथा उसमें विद्यालय के जल स्रोत चिन्हित किए। पूरी जलमित्र टीम ने जल के वितरण, जल के स्रोत, जल की खपत, जल की मांग, जल की आपूर्ति, जल संरक्षण, जल प्रबंधन, जल की गुणवत्ता आदि विषय पर एक समझ बनाने का प्रयास शुरू किया।
टीम ने मिलकर विद्यालय में पेय जल के दो स्रोत चिन्हित किए जिसमें एक सरकारी हैण्डपम्प व दूसरा ट्यूबवेल समर्सिबल पंप। जिनमें से नल का पानी पीने एवं भोजन बनाने, साफ-सफाई के लिए व ट्यूबवेल का प्रयोग बागवानी के लिए। पूरी टीम ने यह चिंतन किया कि हमारे पानी का एकमात्र मुख्य स्रोत भूगर्भ जल है। विद्यालय की अनुदेशक श्रीमती गरिमा ने बच्चों को समझाया कि प्राचीन काल में हमारे पास पेयजल प्राप्त करने के कई स्रोत थे लेकिन अब एकमात्र स्रोत भूगर्भ जल ही है। पहले हमारे गाँव या शहर नदियों के किनारे ही बसते थे जिससे पानी पीने एवं कृषि योग्य जल प्राप्त हो सके। हमारी नदियों का पानी इतना साफ था कि सिक्का दूर से ही पानी में चमक जाता था लेकिन अब मानव द्वारा नदियों को इतना प्रदूषित कर दिया गया कि पीना तो दूर उसमें अंगुली डालने पर भी अगुंली गल जाएगी।
तभी समरीन ने प्रश्न किया कि मैम क्या तालाब व झील भी पानी का स्रोत होते थे? तब उन्होंने उत्तर दिया कि हां तालाब का पानी सिंचाई, पशुओं को पानी पिलाने एवं नहाने के प्रयोग में लाया जाता था। तालाब प्राकृतिक रूप से जल को रिचार्ज करते थे। इसलिए पानी भूगर्भ जल से आसानी से मिल जाता था। लेकिन अब तालाब व जोहड़ सब नष्ट हो गए हैं और कुछ नष्ट होने के कगार पर हैं। इसलिए भूगर्भ जल को खींचने के लिए हमें ऊर्जा का सहारा लेना पड़ता हैं। भूगर्भ जल भी अब प्रदूषित हो रहा है जिसमें कमेला का पानी, उद्योगों का गंदा पानी नदियों में गिरने से भूगर्भ जल भी प्रदूषित हो रहा है।
बच्चों ने जल के महत्व को समझा और उस पर एक समझ बनाने का प्रयास किया। इसके लिए जल मित्र टीम ने नल के पास एक गड्ढा खोदा और जो जल पानी पीने एवं बर्तन आदि धोने में बेकार हो जाता था। उसको उस गड्ढे में एकत्र करना शुरू कर दिया। तथा उस पानी को पास में सब्जियों के लिए एक क्यारी बनाई उसमें डालना शुरू किया। इससे बेकार बहने वाले जल का सदुपयोग होने लगा।
बच्चों ने आपस में मिलजुल कर जल का ऑडिट किया गया जिसमें विद्यालय में प्रतिदिन कितना पानी खर्च हो रहा है? किस मद में कितना पानी खर्च हो रहा है और उसको ज्यादा खर्च होने से कैसे बचाया जा सकता है। जिसमें टीम ने पाया कि विद्यालय में पीने व भोजन बनाने में- 1760 लीटर, बागवानी के लिए- 20 घंटे प्रति सप्ताह, साफ-सफाई के लिए- 125 लीटर प्रयोग किया गया है। विद्यालय में भूगर्भ जल ही जल का मुख्य स्रोत है। भूगर्भ जल 120 फीट की गहराई से प्राप्त किया जाता है। वर्षा का वार्षिक औसत जल 780 मिली मी है। विद्यालय के माली को जलमित्र टीम के लीडर ने समझाया कि फसलों की सिचाई छोटी-छोटी क्यारी बनाकर करें। जिससे पानी की बचत की जा सके। सिंचाई की नालियों को पक्का करना जरूरी है ताकि ज्यादा पानी बर्बाद न हो। पेड़-पौधों एवं फसलों की सिचाई आदि में आवश्यकतानुसार ही पानी का प्रयोग करें। क्यारियों की मेड़ों को मजबूत व ऊंचा करके क्योरियों का पानी क्यारियों में रिचार्ज करें विद्यालय में बोई गई फसलों का फसल चक्र में परिवर्तन करना जरूरी है, बगीचे में पानी सुबह ही दें ताकि वाष्पीकरण से होने वाले नुकसान कम किया जा सके। इस प्रकार बच्चों ने विद्यालय की बागवानी व कृषि योग्य भूमि में पानी बचाने की मुहिम छेड़ी।
टीम के सदस्य सौरभ ने अध्यापक महोदय से कहा कि क्या हम बारिश का पानी एकत्र कर सकते है? अध्यापक ने कहा कि हम बारिश के पानी को जरूर एकत्र कर सकते हैं और उसका सदुपयोग कर सकते हैं। आज से 50-60 वर्ष पहले हमारे यहां बहुत अधिक संख्या में तालाब, झील व पोखर थी जो प्राकृतिक रूप से पानी को ज़मीन के नीचे पहुंचाने का कार्य करती थी लेकिन अब अधिकांश तालाब मृत हो चुके है और अधिकांश पर कब्ज़ा कर लिया हैं। विश्व में अग्रणी ये भारतीय गाँव जल संकट से कैसे ग्रस्त हो गए? कारण है गुलामी का अभिशाप, नदियों की संस्कृति से पलायन, धरती की छाती छेदता विकास का बरमा, बडे बाँधों का मायाजाल व मनुष्य की आत्मकेन्द्रित सोच।
प्रकृति के साथ मनुष्य की बेहूदा छेड़छाड़ के चलते सदियों से चरेवतिः चरेवतिः का संदेश देने वाली नदियां भी थकने लगी हैं। गंगा-यमुना दोआब में उथले नलकूपों का असफल हो जाना आम सी बात हो गई। प्रकृति जरूरत तो पूरा कर सकती है लेकिन लालच को पूरा नहीं कर सकती। मनुष्य के इस लालच रूपी दैत्य ने हमारे परंपरागत नदियों, तालाबों, कुओं, पोखरों आदि को निगल लिया है। प्रकृति हमें वर्षा के रूप में हर साल जरूरत के लिए पानी देती रही है। कुदरत का नियम कहता है कि हमें अपनी जरूरतें इसी से पूरी करनी चाहिए लेकिन हमें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए उन सुरक्षित जल भंडारों से पानी खींचना पड़ रहा है, जिन्हें केवल अकाल की स्थिति में ही उपयोग किया जाना चाहिए। इससे निबटने के लिए हमें अपने पूर्वजों द्वारा सुझाई गई जल संचयन प्रणालियों को विकसित करना होगा। तालाब, कुएं पोखर, बावड़ी और नदियां धरती के आंचल में बंधी पानी की पोटली हैं जिन्हें आसमान एक-एक कर चुरा लेता है। आसमान की इस चोरी से हम धरती के रीतने और फिर भीगने के चक्र को आसानी से समझ सकते हैं। इस जल को रोकने के लिए पूर्वजों के इस मूलमंत्र को याद रखना चाहिए, सबसे पहले बारिश का पानी जहां से दौड़ता है, वहां उसको चलना सिखाया जाए। जहां पानी चलता हो, वहां उसे रेंगना सिखाया जाए। जहां पानी रेंगने लगे, वहीं से उसे धरती में बैठाया जायें। हम भी अपने विद्यालय में वर्षा के जल को भूमि के अंदर संचित कर सकते हैं।
आओ मिलकर दृढ संकल्प लें, सब जन इस क्षण।
बूंद-बूंद से करके होगा, भूजल स्रोतों का संरक्षण।।
विद्यालय के अध्यापक श्री मंगत सिंह व गरिमा जी के साथ जल की गुणवत्ता को जांचने के लिए जल मित्र टीम के सदस्यों ने सहभागिता प्रदान की। जिसमें बच्चों ने विद्यालय के पानी को अपने हाथ से जांच की। जिसमें पेयजल की गुणवत्ता का परीक्षण भी किया गया। पीएच 7 एवं डिसोल्व आक्सीजन 4 पीपीएम एवं जल की गंधता 4 जेटीयू, फ्लोराइड 1.5 व जल की कठोरता हैं। जल की गुणवत्ता के परिणाम सकारात्मक रहे। बच्चों ने बताया कि हमारे पास कृष्णी नदी के किनारे गाँव का पानी बहुत ही खराब है नदी के पास से गुजरने पर भी उसके जल से बदबू आती हैं। नल का पानी थोड़ी देर रखने पर पीला हो जाता हैं। गाँव के लोग त्वचा एवं उदर के रोगों से पीड़ित रहते हैं। जिस कारण अधिकांश बच्चे पीलिया का शिकार बहुत ही कम उम्र में हो जाते हैं।
पानी मात्र प्यास ही नहीं बुझाता बल्कि गरम पानी पीने से यह दवा का काम करता है। पानी को उबालकर पीने से गंभीर रोग भी स्वतः ही ठीक हो जाते हैं। गरम पानी के नियमित सेवन से शरीर संतुलित बनता है एवं मोटापे से मुक्ति मिलती है। मूत्र विकार दूर हो जाते है। वायु रोगों पर अमृत के समान लाभ देता है, इसलिए वायु विकारों से पीड़ितों को सदैव ठंडे पानी के स्थान पर गरम पानी ही पीना चाहिए। खांसी, कफ, जुकाम, नजला आदि बिमारियां ठीक हो जाती हैं।
कृषि में जल का प्रयोग बहुतायत में होता है। जब से कृषि की शुरूआत हुई और अब तक कृषि में होने वाले जल का प्रयोग में बहुत अंतर आ गया है। पहले गाँव खेती के लिए ही अधिकांशतः नदियों के किनारे बसते थे ताकि जल से आसानी से सिंचाई की जा सके। नदियों से फिर नहरे बनाई गई जिनका मूल आधार ही सिंचाई था। धीरे- धीरे जब नदियों सूखनी शुरू हुई तो नहर भी सूख गई। इसके बाद रहट अथवा कुआं का आविष्कार हुआ। रहट में बैलों को जोड़कर सिंचाई की जाती थी। जिसमें किसान बड़ी मुश्किल से खेत के छोटे से टुकड़े की सिचाई करते थे क्योंकि इसमें बहुत अधिक श्रम लगता था। कई जगह तालाबों जोहड़ों आदि के बरसात के पानी से सिंचाई होने लगी। इन कुओं में सिंचाई के लिए मोटर रखने लगे अर्थात ट्यूबवेल का आविष्कार हुआ। जिसमें बिजली की भी जरूरत पड़ने लगी और सिंचाई धीरे-धीरे महंगी होती चली गई।
भूगर्भ जल निरंतर नीचे चला गया तो ये कुएं भी फेल हो गए। फिर सिंचाई के लिए समर्सिबल का प्रयोग होने लगा। जिसकी कीमत आज के समय में दो लाख रुपए होती है। अब ये ट्यूबवेल छोटे व मंझले किसानों की पहुंच से दूर हो गई। गाँव में अब 25 रुपए प्रति घंटा पानी खेतों की सिंचाई के लिए बिकने लगा। हमने खेतों की प्राचीन सिंचाई से आधुनिक सिंचाई के तकनीक के बारे में चिन्तन किया। पानी जहां खेतों के लिए शून्य खर्च पर आता था अब लाखों रुपए सिंचाई के लिए खर्च होने लगे। जो हम सबके लिए चिंता का विषय है। अगर यही हाल रहा तो सिंचाई के लिए तो दूर पीने के लिए भी पानी नहीं मिलेगा। अब वर्तमान में ट्यूबवेलों से सिंचाई करते हैं जिससे पानी की बहुत अधिक बर्बादी होती है और हम अनावश्यक जल खेतों में बर्बाद करते हैं। अगर यही हालात रहे तो भूगर्भ में भी जल नहीं बचेगा। खेती तो दूर हम सब पानी पीने के लिए तड़प-तड़प कर मरेंगे। इसलिए समय रहते हमें खेतों में सीमित जल का प्रयोग करने की आदत डालनी होगी। तभी हम आगे कृषि कार्य के लिए पानी को सुरक्षित कर सकेंगे।
जब मानव अंतरिक्ष के बाहर जीवन के लक्षणों की तलाश करता है तो सबसे पहले क्या देखता है? वह देखता है जल का अस्तित्व। किसी ग्रह में जल की उपस्थिति से यह संकेत मिलता है कि वहां जीवन सम्भव है। जाहिर है कि जल ही जीवन हैं। अंतरिक्ष में स्थित विभिन्न ग्रहों पर वैज्ञानिक जीवन को तलाश रहे हैं। तो इसके लिए वे वहां की मिट्टी या वातावरण में पानी की मौजूदगी देख रहे हैं। किसी ग्रह पर पानी होने का अर्थ है वहां किसी न किसी रूप में जीवन का होना। दरअसल बिना दाम के मिलने की वजह से हम पानी का मोल नहीं जान पाते। इसलिए पानी अनमोल है। हमें अपनी आगामी पीढ़ी के लिए पानी को संजोना होगा। पशु पक्षियों का जीवन भी जल पर आधारित है पेड़ पौधों को पानी की आवश्यकता मौसम आदि पर निर्भर है। पेड़ पौधे जितना पानी लेते हैं उतना पानी रसने के लिए छोड़ते भी हैं। जिससे जलवायु में सुधार होता है। जल ही जीवन है या जीवन ही जल है। जल प्यासे के मुंह में जाकर उसे मौत के मुंह से निकाल लेता है। इसलिए जल के बिना जीना संभव नहीं है। जीने के लिए जितनी ऑक्सीजन की जरूरत है उतनी ही पानी की भी है। औषधियों की अपेक्षा पानी का गिलास ही कहीं ज्यादा पानी का उपचार है।
विद्यालय के प्रधानाचार्य के श्री ब्रजपाल सिंह राठी के मार्गदर्शन में विद्यालय में 20 बच्चों की एक जल मित्र टीम बनाई गई। जिनमें सौरभ, बादल,अजय,निखिल,मोहित,प्रियांशु,मानसिंह, आकाश, सन्नी, मोहिन, समरीन, प्रियंका, छवि, प्रिया, पायल, सोनम, निक्की, आकांक्षा व खुशी। यें सभी बच्चे स्वेच्छा से जल मित्र टीम में शामिल हुए। उसके बाद बच्चों ने अपने में से एक बच्चे को जलमित्र टीम लीडर चुना। जलमित्र टीम लीडर ने विद्यालय का एक नक्शा बनाया तथा उसमें विद्यालय के जल स्रोत चिन्हित किए। पूरी जलमित्र टीम ने जल के वितरण, जल के स्रोत, जल की खपत, जल की मांग, जल की आपूर्ति, जल संरक्षण, जल प्रबंधन, जल की गुणवत्ता आदि विषय पर एक समझ बनाने का प्रयास शुरू किया।
टीम ने मिलकर विद्यालय में पेय जल के दो स्रोत चिन्हित किए जिसमें एक सरकारी हैण्डपम्प व दूसरा ट्यूबवेल समर्सिबल पंप। जिनमें से नल का पानी पीने एवं भोजन बनाने, साफ-सफाई के लिए व ट्यूबवेल का प्रयोग बागवानी के लिए। पूरी टीम ने यह चिंतन किया कि हमारे पानी का एकमात्र मुख्य स्रोत भूगर्भ जल है। विद्यालय की अनुदेशक श्रीमती गरिमा ने बच्चों को समझाया कि प्राचीन काल में हमारे पास पेयजल प्राप्त करने के कई स्रोत थे लेकिन अब एकमात्र स्रोत भूगर्भ जल ही है। पहले हमारे गाँव या शहर नदियों के किनारे ही बसते थे जिससे पानी पीने एवं कृषि योग्य जल प्राप्त हो सके। हमारी नदियों का पानी इतना साफ था कि सिक्का दूर से ही पानी में चमक जाता था लेकिन अब मानव द्वारा नदियों को इतना प्रदूषित कर दिया गया कि पीना तो दूर उसमें अंगुली डालने पर भी अगुंली गल जाएगी।
तभी समरीन ने प्रश्न किया कि मैम क्या तालाब व झील भी पानी का स्रोत होते थे? तब उन्होंने उत्तर दिया कि हां तालाब का पानी सिंचाई, पशुओं को पानी पिलाने एवं नहाने के प्रयोग में लाया जाता था। तालाब प्राकृतिक रूप से जल को रिचार्ज करते थे। इसलिए पानी भूगर्भ जल से आसानी से मिल जाता था। लेकिन अब तालाब व जोहड़ सब नष्ट हो गए हैं और कुछ नष्ट होने के कगार पर हैं। इसलिए भूगर्भ जल को खींचने के लिए हमें ऊर्जा का सहारा लेना पड़ता हैं। भूगर्भ जल भी अब प्रदूषित हो रहा है जिसमें कमेला का पानी, उद्योगों का गंदा पानी नदियों में गिरने से भूगर्भ जल भी प्रदूषित हो रहा है।
बच्चों ने जल के महत्व को समझा और उस पर एक समझ बनाने का प्रयास किया। इसके लिए जल मित्र टीम ने नल के पास एक गड्ढा खोदा और जो जल पानी पीने एवं बर्तन आदि धोने में बेकार हो जाता था। उसको उस गड्ढे में एकत्र करना शुरू कर दिया। तथा उस पानी को पास में सब्जियों के लिए एक क्यारी बनाई उसमें डालना शुरू किया। इससे बेकार बहने वाले जल का सदुपयोग होने लगा।
बच्चों ने आपस में मिलजुल कर जल का ऑडिट किया गया जिसमें विद्यालय में प्रतिदिन कितना पानी खर्च हो रहा है? किस मद में कितना पानी खर्च हो रहा है और उसको ज्यादा खर्च होने से कैसे बचाया जा सकता है। जिसमें टीम ने पाया कि विद्यालय में पीने व भोजन बनाने में- 1760 लीटर, बागवानी के लिए- 20 घंटे प्रति सप्ताह, साफ-सफाई के लिए- 125 लीटर प्रयोग किया गया है। विद्यालय में भूगर्भ जल ही जल का मुख्य स्रोत है। भूगर्भ जल 120 फीट की गहराई से प्राप्त किया जाता है। वर्षा का वार्षिक औसत जल 780 मिली मी है। विद्यालय के माली को जलमित्र टीम के लीडर ने समझाया कि फसलों की सिचाई छोटी-छोटी क्यारी बनाकर करें। जिससे पानी की बचत की जा सके। सिंचाई की नालियों को पक्का करना जरूरी है ताकि ज्यादा पानी बर्बाद न हो। पेड़-पौधों एवं फसलों की सिचाई आदि में आवश्यकतानुसार ही पानी का प्रयोग करें। क्यारियों की मेड़ों को मजबूत व ऊंचा करके क्योरियों का पानी क्यारियों में रिचार्ज करें विद्यालय में बोई गई फसलों का फसल चक्र में परिवर्तन करना जरूरी है, बगीचे में पानी सुबह ही दें ताकि वाष्पीकरण से होने वाले नुकसान कम किया जा सके। इस प्रकार बच्चों ने विद्यालय की बागवानी व कृषि योग्य भूमि में पानी बचाने की मुहिम छेड़ी।
टीम के सदस्य सौरभ ने अध्यापक महोदय से कहा कि क्या हम बारिश का पानी एकत्र कर सकते है? अध्यापक ने कहा कि हम बारिश के पानी को जरूर एकत्र कर सकते हैं और उसका सदुपयोग कर सकते हैं। आज से 50-60 वर्ष पहले हमारे यहां बहुत अधिक संख्या में तालाब, झील व पोखर थी जो प्राकृतिक रूप से पानी को ज़मीन के नीचे पहुंचाने का कार्य करती थी लेकिन अब अधिकांश तालाब मृत हो चुके है और अधिकांश पर कब्ज़ा कर लिया हैं। विश्व में अग्रणी ये भारतीय गाँव जल संकट से कैसे ग्रस्त हो गए? कारण है गुलामी का अभिशाप, नदियों की संस्कृति से पलायन, धरती की छाती छेदता विकास का बरमा, बडे बाँधों का मायाजाल व मनुष्य की आत्मकेन्द्रित सोच।
प्रकृति के साथ मनुष्य की बेहूदा छेड़छाड़ के चलते सदियों से चरेवतिः चरेवतिः का संदेश देने वाली नदियां भी थकने लगी हैं। गंगा-यमुना दोआब में उथले नलकूपों का असफल हो जाना आम सी बात हो गई। प्रकृति जरूरत तो पूरा कर सकती है लेकिन लालच को पूरा नहीं कर सकती। मनुष्य के इस लालच रूपी दैत्य ने हमारे परंपरागत नदियों, तालाबों, कुओं, पोखरों आदि को निगल लिया है। प्रकृति हमें वर्षा के रूप में हर साल जरूरत के लिए पानी देती रही है। कुदरत का नियम कहता है कि हमें अपनी जरूरतें इसी से पूरी करनी चाहिए लेकिन हमें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए उन सुरक्षित जल भंडारों से पानी खींचना पड़ रहा है, जिन्हें केवल अकाल की स्थिति में ही उपयोग किया जाना चाहिए। इससे निबटने के लिए हमें अपने पूर्वजों द्वारा सुझाई गई जल संचयन प्रणालियों को विकसित करना होगा। तालाब, कुएं पोखर, बावड़ी और नदियां धरती के आंचल में बंधी पानी की पोटली हैं जिन्हें आसमान एक-एक कर चुरा लेता है। आसमान की इस चोरी से हम धरती के रीतने और फिर भीगने के चक्र को आसानी से समझ सकते हैं। इस जल को रोकने के लिए पूर्वजों के इस मूलमंत्र को याद रखना चाहिए, सबसे पहले बारिश का पानी जहां से दौड़ता है, वहां उसको चलना सिखाया जाए। जहां पानी चलता हो, वहां उसे रेंगना सिखाया जाए। जहां पानी रेंगने लगे, वहीं से उसे धरती में बैठाया जायें। हम भी अपने विद्यालय में वर्षा के जल को भूमि के अंदर संचित कर सकते हैं।
आओ मिलकर दृढ संकल्प लें, सब जन इस क्षण।
बूंद-बूंद से करके होगा, भूजल स्रोतों का संरक्षण।।
विद्यालय के अध्यापक श्री मंगत सिंह व गरिमा जी के साथ जल की गुणवत्ता को जांचने के लिए जल मित्र टीम के सदस्यों ने सहभागिता प्रदान की। जिसमें बच्चों ने विद्यालय के पानी को अपने हाथ से जांच की। जिसमें पेयजल की गुणवत्ता का परीक्षण भी किया गया। पीएच 7 एवं डिसोल्व आक्सीजन 4 पीपीएम एवं जल की गंधता 4 जेटीयू, फ्लोराइड 1.5 व जल की कठोरता हैं। जल की गुणवत्ता के परिणाम सकारात्मक रहे। बच्चों ने बताया कि हमारे पास कृष्णी नदी के किनारे गाँव का पानी बहुत ही खराब है नदी के पास से गुजरने पर भी उसके जल से बदबू आती हैं। नल का पानी थोड़ी देर रखने पर पीला हो जाता हैं। गाँव के लोग त्वचा एवं उदर के रोगों से पीड़ित रहते हैं। जिस कारण अधिकांश बच्चे पीलिया का शिकार बहुत ही कम उम्र में हो जाते हैं।
गरम पानी के औषधीय गुण-
पानी मात्र प्यास ही नहीं बुझाता बल्कि गरम पानी पीने से यह दवा का काम करता है। पानी को उबालकर पीने से गंभीर रोग भी स्वतः ही ठीक हो जाते हैं। गरम पानी के नियमित सेवन से शरीर संतुलित बनता है एवं मोटापे से मुक्ति मिलती है। मूत्र विकार दूर हो जाते है। वायु रोगों पर अमृत के समान लाभ देता है, इसलिए वायु विकारों से पीड़ितों को सदैव ठंडे पानी के स्थान पर गरम पानी ही पीना चाहिए। खांसी, कफ, जुकाम, नजला आदि बिमारियां ठीक हो जाती हैं।
जल एवं कृषि-
कृषि में जल का प्रयोग बहुतायत में होता है। जब से कृषि की शुरूआत हुई और अब तक कृषि में होने वाले जल का प्रयोग में बहुत अंतर आ गया है। पहले गाँव खेती के लिए ही अधिकांशतः नदियों के किनारे बसते थे ताकि जल से आसानी से सिंचाई की जा सके। नदियों से फिर नहरे बनाई गई जिनका मूल आधार ही सिंचाई था। धीरे- धीरे जब नदियों सूखनी शुरू हुई तो नहर भी सूख गई। इसके बाद रहट अथवा कुआं का आविष्कार हुआ। रहट में बैलों को जोड़कर सिंचाई की जाती थी। जिसमें किसान बड़ी मुश्किल से खेत के छोटे से टुकड़े की सिचाई करते थे क्योंकि इसमें बहुत अधिक श्रम लगता था। कई जगह तालाबों जोहड़ों आदि के बरसात के पानी से सिंचाई होने लगी। इन कुओं में सिंचाई के लिए मोटर रखने लगे अर्थात ट्यूबवेल का आविष्कार हुआ। जिसमें बिजली की भी जरूरत पड़ने लगी और सिंचाई धीरे-धीरे महंगी होती चली गई।
भूगर्भ जल निरंतर नीचे चला गया तो ये कुएं भी फेल हो गए। फिर सिंचाई के लिए समर्सिबल का प्रयोग होने लगा। जिसकी कीमत आज के समय में दो लाख रुपए होती है। अब ये ट्यूबवेल छोटे व मंझले किसानों की पहुंच से दूर हो गई। गाँव में अब 25 रुपए प्रति घंटा पानी खेतों की सिंचाई के लिए बिकने लगा। हमने खेतों की प्राचीन सिंचाई से आधुनिक सिंचाई के तकनीक के बारे में चिन्तन किया। पानी जहां खेतों के लिए शून्य खर्च पर आता था अब लाखों रुपए सिंचाई के लिए खर्च होने लगे। जो हम सबके लिए चिंता का विषय है। अगर यही हाल रहा तो सिंचाई के लिए तो दूर पीने के लिए भी पानी नहीं मिलेगा। अब वर्तमान में ट्यूबवेलों से सिंचाई करते हैं जिससे पानी की बहुत अधिक बर्बादी होती है और हम अनावश्यक जल खेतों में बर्बाद करते हैं। अगर यही हालात रहे तो भूगर्भ में भी जल नहीं बचेगा। खेती तो दूर हम सब पानी पीने के लिए तड़प-तड़प कर मरेंगे। इसलिए समय रहते हमें खेतों में सीमित जल का प्रयोग करने की आदत डालनी होगी। तभी हम आगे कृषि कार्य के लिए पानी को सुरक्षित कर सकेंगे।
जल एवं जीवन-
जब मानव अंतरिक्ष के बाहर जीवन के लक्षणों की तलाश करता है तो सबसे पहले क्या देखता है? वह देखता है जल का अस्तित्व। किसी ग्रह में जल की उपस्थिति से यह संकेत मिलता है कि वहां जीवन सम्भव है। जाहिर है कि जल ही जीवन हैं। अंतरिक्ष में स्थित विभिन्न ग्रहों पर वैज्ञानिक जीवन को तलाश रहे हैं। तो इसके लिए वे वहां की मिट्टी या वातावरण में पानी की मौजूदगी देख रहे हैं। किसी ग्रह पर पानी होने का अर्थ है वहां किसी न किसी रूप में जीवन का होना। दरअसल बिना दाम के मिलने की वजह से हम पानी का मोल नहीं जान पाते। इसलिए पानी अनमोल है। हमें अपनी आगामी पीढ़ी के लिए पानी को संजोना होगा। पशु पक्षियों का जीवन भी जल पर आधारित है पेड़ पौधों को पानी की आवश्यकता मौसम आदि पर निर्भर है। पेड़ पौधे जितना पानी लेते हैं उतना पानी रसने के लिए छोड़ते भी हैं। जिससे जलवायु में सुधार होता है। जल ही जीवन है या जीवन ही जल है। जल प्यासे के मुंह में जाकर उसे मौत के मुंह से निकाल लेता है। इसलिए जल के बिना जीना संभव नहीं है। जीने के लिए जितनी ऑक्सीजन की जरूरत है उतनी ही पानी की भी है। औषधियों की अपेक्षा पानी का गिलास ही कहीं ज्यादा पानी का उपचार है।
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