बचा लें जल, बचा लें जीवन

एक अनुमान के अनुसार हर दिन दुनियाभर के पानी में 20 लाख टन सीवेज, औद्योगिक और कृषि कचरा डाला जाता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, हर साल हम 1,500 घन किमी पानी बर्बाद करते हैं। दुनियाभर में 2.5 अरब लोगों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है- जलजनित बीमारियाँ। युद्ध सहित सभी तरह की हिंसाओं से मरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा लोग हर साल असुरक्षित पानी पीने से मर जाते हैं।

यों तो जल की उपयोगिता संपूर्ण विश्व के लिए अपरिहार्य है। जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु तथा आकाश इन पंच तत्वों से निर्मित हमारे शरीर में भी 80 प्रतिशत जल मौजूद है। शरीर में जल की कमी अनेक रोगों को आमंत्रण देती है। लेकिन भारत में जल की उपयोगिता मानव जीवन के अलावा कृषि के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। इसलिए यहाँ पर हम जल की उपयोगिता का आकलन मानव तथा कृषि के परिप्रेक्ष्य में करेंगे।

जल और जीवन


जल का कोई विकल्प नहीं है, इसकी एक-एक बूँद अमृत है। लेकिन भारत में तेजी से घटते जल स्रोतों से मानव के समक्ष पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है। आज भी एक-तिहाई लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है जबकि वर्ष 2012 तक हर नागरिक को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने का वादा किया गया है। वैश्विक तपन तथा जलवायु परिवर्तन की वजह से तेजी से पिघलते ग्लेशियर भी आने वाले ख़तरे का संकेत दे रहे हैं।

काफी हद तक जल के दुरुपयोग ने भी समस्या को बढ़ाया है। यही नहीं, पेयजल की गुणवत्ता भी यथेष्ट नहीं है। इसीलिए वर्ष 2010 के जल दिवस का विषय है- पेयजल की गुणवत्ता।

एक अनुमान के अनुसार हर दिन दुनियाभर के पानी में 20 लाख टन सीवेज, औद्योगिक और कृषि कचरा डाला जाता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, हर साल हम 1,500 घन किमी पानी बर्बाद करते हैं। दुनियाभर में 2.5 अरब लोगों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है- जलजनित बीमारियाँ। युद्ध सहित सभी तरह की हिंसाओं से मरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा लोग हर साल असुरक्षित पानी पीने से मर जाते हैं।

दुनिया में सालाना होने वाली कुल मौतों में से 3.1 प्रतिशत मौतें जल की साफ-सफाई न होने से होती है। असुरक्षित पानी से होने वाली बीमारी डायरिया से हर साल चार अरब मामलों में 22 लाख मौतें होती हैं। भारत में बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण यही बीमारी है। हर साल करीब पाँ लाख बच्चे इसका शिकार बनते हैं।

भूजल पर आश्रित दुनिया में 24 प्रतिशत स्तनधारियों और 12 फीसदी पक्षी प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का ख़तरा है, जबकि एक-तिहाई उभयचरों पर भी तलवार लटकी है। 70 देशों के 14 करोड़ लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को विवश हैं।

विश्व बैंक की हाल की रिपोर्ट के अनुसार भारत में जलस्तर निरंतर घट रहा है। वर्ष 1997 में यह लगभग 550 क्यूबिक किलोमीटर था जिसमें से सतही जल लगभग 310 क्यूबिक किमी है। वर्ष 2020 में इसका 360 क्यूबिककिमी तथा वर्ष 2050 में 100 क्यूबिक किमी होने का अनुमान है। उत्तर-पश्चिम राज्यों में घटता भूजल स्तर चिन्ता का कारण है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पिछले छह वर्षों में 190 क्यूबिक किमी भूजल कम हुआ है।

कृषि तथा जल का पारस्परिक सम्बन्ध है इसलिए खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी जल संसाधनों में वृद्धि से हीसम्भव है। विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न माँग में 50 प्रतिशत बढ़ोतरी होने की सम्भावना है।

यह सही है कि भूजल की भरपाई काफी हद तक वर्षा जल से हो सकती है। लेकिन प्रत्येक वर्ष घटती मानसूनी वर्षा से स्थिति और ख़राब हुई है। यों तो भूजल दोहन का सिलसिला साठ के दशक यानी हरित क्रान्ति के दौर से शुरू हो चुका था। लेकिन पिछले 8-10 वर्षों में इसमें बहुत तेजी आई है।

चूँकि जल राज्य का विषय है, इसलिए राज्यों को भूजल प्रबन्धन पर ठोस कार्रवाई करनी चाहिए थी, लेकिन वह नहीं की गई। यही नहीं, केन्द्र की पहल पर वर्ष 1970 और वर्ष 1992 में बने माॅडल भूजल (नियमन एवं नियंत्रण) कानून पर राज्यों का यथोचित सहयोग नहीं मिला।

इतना ही नहीं, केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण के अन्तर्गत भूजल बचाने हेतु दिए गए महत्वपूर्ण सुझावों पर भीराज्यों ने उचित प्रकार से अमल नहीं किया। प्रतिव्यक्ति जल खपत में भी दिनोंदिन बढ़ोतरी हो रही है। इसलिए भूजल के अनियन्त्रित दोहन पर कठोर नियन्त्रण के साथ जल संरक्षण को मुख्य प्राथमिकता सूची में रखा जाना जरूरी है।

आज जबकि बेहतर प्रौद्योगिकी और संसाधन मौजूद हैं तो सफलतापूर्वक जल संरक्षण करना संभव है। जल के घटते स्तर के साथ इसकी प्रदूषण समस्या भी चिन्तनीय है। जहाँ तक जल प्रदूषण का सम्बन्ध है, गंगा-यमुना का प्रदूषण सर्वज्ञात है।

जल प्रदूषण समस्या से देश की राजधानी दिल्ली सहित 19 राज्य भयंकर रूप से ग्रस्त हैं। केन्द्रीय भूजल बोर्ड का अनुमान है कि बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और गुजरात का भूजल पीने लायक नहीं है। देश के कई जिले भूगर्भीय जल में आर्सेनिक-फ्लोराइड और आयरन जैसे रसायनों की अधिक मात्रा का खामियाजा भुगत रहे हैं विशेषकर बिहार, राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक की स्थिति इस सम्बन्ध में भयावह है।

कारण चाहे औद्योगिक कचरे को नदी में प्रवाहित करने की हो या सीवेज अथवा धर्म के नाम पर विसर्जित की जाने वाली सैकड़ों मूर्तियाँ, फूलमालाएँ आदि। इन सभी चीजों से नदियाँ बड़ी मात्रा में प्रदूषित हुई हैं। यह भी सच्चाई है कि दीर्घकालिक नदी संरक्षण अथवा जल प्रबन्धन नीतियों के अभाव की वजह से कई नदियाँ या तो सूख गई हैं या नाला बन गई हैं। गंगा को प्रदूषण से बचाने हेतु गंगा कार्य योजना प्रथम तथा द्वितीय मेंक्रमशः वर्ष 1985 और 2000 के मध्य 1,000 करोड़ रुपए से अधिक ख़र्च किए गए। इसी प्रकार करोड़ों रुपए यमुना कार्ययोजना पर भी ख़र्च किए गए हैं।

वर्ष 2010-11 के बजट में भी राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनजीआरबीए) के लिए आवण्टन में दुगुनीबढ़ोतरी कर इसे 500 करोड़ रुपए कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि एनजीआरबीए के अन्तर्गत ‘स्वच्छ गंगा मिशन 2020’ का उद्देश्य राष्ट्रीय नदी में किसी भी प्रकार के अशोधित सीवेज अथवा औद्योगिक कचरे को प्रवाहित करने की मनाही है।

जल प्रदूषण समस्या से देश की राजधानी दिल्ली सहित 19 राज्य भयंकर रूप से ग्रस्त हैं। केन्द्रीय भूजल बोर्ड का अनुमान है कि बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और गुजरात का भूजल पीने लायक नहीं है।

देश के कई जिले भूगर्भीय जल में आर्सेनिक-फ्लोराइड और आयरन जैसे रसायनों की अधिक मात्रा का खामियाजा भुगत रहे हैं विशेषकर बिहार, राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक की स्थिति इस सम्बन्ध में भयावह है। यह भी उल्लेखनीय है कि शहरों के ज्यादातर हिस्सों में फर्श पक्का होने से पानी जमीन के अन्दर न जाकर किसी जल स्रोत की तरफ बह जाता है।

रास्ते में यह अपने साथ हमारे द्वारा फेंके गए कूड़ा-करकट, ख़तरनाक रसायनों, तेल, ग्रीस, कीटनाशकों और उर्वरकों जैसे कई प्रदूषक तत्वों के साथ मिलकर पूरे जल स्रोत को प्रदूषित कर देता है। इसीलिए इन रसायनों से जल स्रोतों को बचाने के लिए पक्के फर्श के विकल्प का चुनाव बहुत शरूरी है। इस हेतु छिद्रयुक्त फर्श बनाए जा सकते हैं। इससे दो लाभ होंगे। पहला, वर्षा जल का समुचित संचयन होगा और दूसरा, सड़क के आसपास स्थित पेड़ों में भी पानी पहुँचेगा जिससे उन्हें सूखने से बचाया जा सकता है।

जल और कृषि


भारत गाँवों में बसता है। देश में 12 करोड़ किसान और परिवार सहित उनकी आबादी लगभग 60 करोड़ है। गाँवों में ग्रामीणों की आजीविका का साधन कृषि है और कृषि के लिए सिंचाई की व्यवस्था अहम है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2030 तक 71 प्रतिशत वैश्विक जल का उपयोग कृषि कार्यों में किया जाएगा।

इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि के लिए जल का कितना अधिक महत्व है। इसके अतिरिक्त, उद्योगों के लिए भी वैश्विक स्तर पर पानी की मौजूदा 16 प्रतिशत की ख़पत के वर्ष 2030 तक बढ़कर लगभग 22 प्रतिशत होने का अनुमान है। इसलिए कृषि और जल सम्बन्धी नीतियों के बीच समन्वय की जरूरतहै। सरकार का ध्यान इस ओर गया है और उसने राष्ट्रीय जल आयोग का गठन किया है।

गौरतलब है कि ग्रामीण विकास के लिए बजट में साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए बढ़ाकर ग्रामीण आधारभूत संरचना को मजबूत बनाने की दिशा में पहल की गई है जिसके तहत् कुआँ खोदना, सिंचाई संसाधन मजबूत करना, कृषि बाजार का सुदृढ़ीकरण, ग्रामीण सड़क निर्माण आदि को मुख्य स्थान दिया गया है।

यह भी हकीकत है कि गाँव और किसान की हालत बदले बिना देश की हालत नहींं सुधर सकती। मौजूदा बजट 2010-11 में वित्तमन्त्री ने गाँवों में रहने वालों की आमदनी बढ़ाने के लिए 4-सूत्री कार्यक्रम निर्धारित किया है जिसमें उनके द्वारा कृषि उत्पादन बढ़ाना, खाद्यान्न बर्बादी रोकना, किसानों को कर्ज की मदद और खाद्य प्रसंस्करण पर जोर दिया गया है। साथ ही उन्होंने दलहन और तिलहन का उत्पादन बढ़ाने की योजना कीशुरुआत करते हुए इसके लिए 300 करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया है।

परन्तु यहाँ भी जब तक हम कृषि के लिए उचित मात्रा में जल की व्यवस्था नहींं करते, तब तक इन उद्देश्यों की प्राप्ति में आशंका बराबर बनी रहेगी। वैश्विक तपन और जलवायु परिवर्तन की वडह से भी बाढ़, सूखा, बढ़ता तापमान, पिघलते ग्लेशियर, बढ़ता समुद्र स्तर जैसी कई समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। भारत का रेगिस्तान बहुल राज्य राजस्थान को भी बाढ़ का सामना करना पड़ा और सुनामी के कारण दक्षिण भारत के समुद्रतटीय इलाकों में भारी जानमाल की हानि हुई।

पहले ही भारतीय कृषि मानसून के अनिश्चित मिजाज से ग्रस्त रही है। 60 प्रतिशत कृषि मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। अब जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम चक्र में गड़बड़ी आ जाने से दक्षिण पश्चिम मानसून पर भी काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। सरकार ने स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए एक कार्ययोजना प्रारम्भ की है जिसमें जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप जल संसाधनों पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव से निपटने की प्रभावी व्यवस्था करना शामिल है।

इस कार्य योजना के तहत् पानी की उपयोगिता लगभग 20 प्रतिशत बढ़ाना प्रस्तावित है। इसके साथ ही केन्द्र द्वारा जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु घोषित 8 मिशन के अन्तर्गत जल संरक्षण मिशन को भी शामिल किया गया है। इसके तहत् पानी के संरक्षण तथा जरूरी तकनीकों के विकास पर जोर है। स्मरण रहे कि भारत मेंप्रतिवर्ष 4,000 अरब क्यूबिक मीटर पानी बरसता है। लेकिन सतह पर या भूजल रिचार्ज के रूप में सिर्फ 1,000 अरब क्यूबिक मीटर का ही इस्तेमाल हो पाता है। इसलिए इस मिशन के अन्तर्गत पानी के पूर्ण सदुपयोग पर जोर दिया गया है।

पहाड़ों में मकानों की ऊँची छतें वर्षा जल संचयन का प्रभावी माध्यम हैं तो रेगिस्तानी क्षेत्रों में भूमिगत कुएँ, दक्षिण के राज्यों में जलाशय, जोहड़, खुले कुएँ आदि भी जल संरक्षण में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे हैं। वर्तमान में देश में विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों- हाउसिंग सोसाइटी, सरकारी विभागों, कार्यालय परिसरों ने वर्षा जल संचयन के कार्य को सफलतापूर्वक हाथ में लिया है और इसके लिए उन्हें अपनी राज्य सरकारों से प्रोत्साहन स्वरूप सहायता तथा सब्सिडी भी मिल रही है।

पर्यावरण सम्बन्धी अन्तरसरकारी समिति के अध्यक्ष डाॅ. आर. के. पचौरी की इस चेतावनी पर भी विचार किया जाना जरूरी है जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत सहित कई देशों की कृषि पैदावार जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह से प्रभावित होने की आशंका है। इसलिए उन्होंने वर्षापोषित कृषि पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रेखांकित करते हुए जल संकट के निदान हेतु किसानों से जल तथा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में संयम बरतने की अपील की है।

उन्होंने किसानों को सुझाव दिया है कि वे अपनी खेती के तरीके बदलें और फसल चक्र में जलवायु और स्थानीयभौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बदलाव लाएँ। खेती और सिंचाई के ऐसे नये तरीके इजाद किए जाएँ जो कम-से-कम पानी और सूखे की स्थिति में पूरी उपज दे सकें। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने भी कुछ इसी प्रकार की चिन्ता व्यक्त करते हुए इस चुनौती से फौरी तौर पर निपटने की सलाह दी है।

एक अनुमान के अनुसार अभी दुनियाभर की लगभग 6 अरब से अधिक आबादी में से 85 करोड़ से अधिक लोग भुखमरी के शिकार हैं, जिनमें से ज्यादातर आबादी विकासशील देशों की है। यह विडम्बना है कि पर्यावरण प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार दुनिया के विकसित और धनी देश हैं लेकिन इसका खामियाजा अन्ततः विकासशील और गरीब देशों को भुगतना पड़ता है।

कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन का कहना है कि अगर भारत में औसत तापमान में वृद्धि जारी रही तो इसका हमारी खाद्य सुरक्षा और जल संसाधनों पर घातक असर पड़ेगा। उनका यह भी कहना है कि ग्रामीण महिलाओं को इससे भारी मुसीबत उठानी पड़ेगी क्योंकि हमारे देश में दाना, पानी और चारा जुटाने का दायित्व उन्हीं पर है।

डाॅ. स्वामीनाथन ने समुद्र के खारे पानी में और समुद्र स्तर से नीचे के खेतों में फसलें उगाने की तकनीकें विकसित करने पर भी जोर दिया है। परम्परागत ज्ञान को आधुनिक मौसम विज्ञान से मिलाकर मौसम कीजानकारी प्राप्त करना और उसे गाँव वालों को हस्तान्तरित करने हेतु प्रत्येक गाँव पंचायत में एक स्त्री और एक पुरुष को जलवायु जोख़िम प्रबन्धन का प्रशिक्षण देकर गाँव में तैनात करने का सुझाव भी उन्होंने दिया है।

दृष्टिकोण


निस्सन्देह जल संरक्षण हेतु हमें दो मोर्चों पर लड़ाई लड़नी होगी। पहला, जहाँ सबके लिए स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी, वहीं लोगों को भूजल के अन्धाधुन्ध दोहन से रोकना होगा और जल की गुणवत्ता तथा सेहत के बीच के अभिन्न रिश्ते के प्रति जागरूक होना होगा। उल्लेखनीय है कि भारत की वर्षाजल संचयन में प्रमुख भूमिका है। सम्पूर्ण देश में लोगों ने जल संचयन के नए-नए तरीके इजाद किए हैं।

पहाड़ों में मकानों की ऊँची छतें वर्षा जल संचयन का प्रभावी माध्यम हैं तो रेगिस्तानी क्षेत्रों में भूमिगत कुएँ, दक्षिण के राज्यों में जलाशय, जोहड़, खुले कुएँ आदि भी जल संरक्षण में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे हैं। वर्तमान में देश में विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों- हाउसिंग सोसाइटी, सरकारी विभागों, कार्यालय परिसरों ने वर्षा जल संचयन के कार्य को सफलतापूर्वक हाथ में लिया है और इसके लिए उन्हें अपनी राज्य सरकारों से प्रोत्साहन स्वरूप सहायता तथा सब्सिडी भी मिल रही है।

अतः वर्षा जल संचयन को एक आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है। कहना न होगाकि स्वच्छ पेयजल और सफाई सुविधाएँ मुहैया कराकर दुनियाभर के 90 प्रतिशत बीमारियों को कम किया जा सकता है। यूनिसेफ द्वारा हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार देश की 54 प्रतिशत आबादी खुले में शौच के लिए बाध्य है।

आजादी के छह दशक बीत जाने के बावजूद लोगों को आम सुविधा उपलब्ध नहींं है। हमें पानी का मोल पहचानते हुए उसके दुरुपयोग से भी बचना होगा। संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि हम प्रतिवर्ष 1, 500 घनमीटर पानी बर्बाद करते हैं।

भूजल का अत्यधिक दोहन और उसका गिरता स्तर तथा स्वच्छ जल संसाधनों के बढ़े प्रदूषण ने स्थिति को और गम्भीर बनाया है। एक प्रकार से हम वैश्विक जल संकट के कगार पर खड़े हैं और यह भी कहा जा रहा है कि अगला विश्व युद्ध अगर हुआ तो वह पानी के लिए होगा। इसलिए जल संरक्षण हेतु व्यक्तिगत तथा सामूहिकदोनों स्तरों पर प्रयास की जरूरत है।

दैनिक उपयोग में पानी की मितव्ययिता से हम काफी जल संरक्षण कर सकते हैं। सामूहिक स्तर परजल संरक्षण हेतु स्वैच्छिक संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है। प्रदूषण की समस्या से निशात पाने हेतु सरकार को और अधिक कठोर उपाय करने होंगे और नदी किनारे स्थित उद्योगों हेतु ठोस प्रदूषण मानदण्ड और जुर्माने की व्यवस्था करनी होगी।

प्रदूषण के समाधान में जनसहभागिता के महत्व को भी कम नहींं आँका जा सकता। यदि धर्म के नाम पर विसर्जित मूर्तियों, मालाओं या अन्य सामानों को नदी में विसर्जित करने के बजाय जमीन के अन्दर गाड़ दिया जाए तो काफी हद तक नदियों को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। हमारे समक्ष अनेक उदाहरण हैं जबकि विश्व में सार्वजनिक-निजी भागीदारी ने लुप्त होती नदियों को नवजीवन प्रदान किया है।

इंग्लैंड की टेम्स परियोजना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सरकार द्वारा जल संसाधनों के बेहतर प्रबन्धन हेतु नदियों को आपस में जोड़ने को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। स्मरण रहे कि इस दिशा में 14 राष्ट्रीय परियोजनाओं का पता लगाया गया है जिन्हें 90 प्रतिशत केन्द्रीय सहायता दिया जाना प्रस्तावित है। योजना आयोग का आकलन है कि सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना सम्बन्धी परियोजनाओं की लागत 33, 000 करोड़ रुपए होगी जिसमें से 7,000 करोड़ रुपए अकेले गंगा नदी की समस्याओं के समाधान हेतु अपेक्षितहै।

इस बीच सरकार जापान अन्तरराष्ट्रीय सहयोग एजेंसी से अतिरिक्त 833 करोड़ रुपए की माँग कर रही है ताकि उसके सहयोग से यमुना कार्य योजना के तीसरे चरण को कार्यान्वित करने में धन की कमी आड़े न आए। पर यहाँ पर हम यह भी नहींं भूल सकते कि किसी समस्या का समाधान निधि की व्यवस्था करने मात्रा से नहींंहो सकता, बल्कि उसके लिए कठोर माॅनीटरिंग की भी जरूरत है।

हमें बोतल बन्द पानी की संस्कृति को भी हतोत्साहित करना होगा। स्वच्छ पेयजल के नाम पर बोतलबन्द पानी की जो संस्कृति विकसित की गई है उस पर प्रभावी नियन्त्रण तभी लगाया जा सकता है जब सरकार सभी के लिए स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करे और पानी की माँग और आपूर्ति के बीच भारी असन्तुलन को दूर करे। हमें देशी/विदेशी कम्पनियों द्वारा पानी जैसे नैसर्गिक संसाधन पर कब्ज़ा जमाने की चाल को समझना होगा।

पानी की आपूर्ति के बीच समन्वय स्थापित करते हुए जल संरक्षण, जल क्षमता, वर्षाजल अधिग्रहण, प्रदूषित जल को साफ कर पुनः इस्तेमाल लायक बनाना तथा ड्रिप सिंचाई पर विशेष ध्यान देना होगा। हम यह भी चाहेंगे कि प्रतिवर्ष 25 मार्च को मनाए जाने वाले अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस के साथ-साथ वर्ष 2005-15 तक अन्तरराष्ट्रीय जल दशक में आम जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो।

यह तथ्य किसी से छिपा नहींं है कि स्वच्छ जल की निर्बाध आपूर्ति सभी प्राणियों का मूल बुनियादी अधिकार है। इसलिए उसके इस अधिकार का हनन नहींं होना चाहिए। जल एक अमूल्य संसाधन है और वाणिज्य लाभ हेतु इसका दोहन किसी भी मायने में उचित नहींं कहा जा सकता।

हम इस तथ्य से भी मुँह नहींं मोड़ सकते कि कोई भी देश अपनी तेल, प्राकृतिक गैस तथा खनिजों की पूर्ति आपसी व्यापार से कर सकता है परन्तु जल के सम्बन्ध में स्थिति सर्वथा उलट है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर जल संसाधन का टिकाऊ तथा एकीकृत प्रबन्धन करना होगा।

पानी की आपूर्ति के बीच समन्वय स्थापित करते हुए जल संरक्षण, जल क्षमता, वर्षाजल अधिग्रहण, प्रदूषित जल को साफ कर पुनः इस्तेमाल लायक बनाना तथा ड्रिप सिंचाई पर विशेष ध्यान देना होगा।

हम यह भी चाहेंगे कि प्रतिवर्ष 25 मार्च को मनाए जाने वाले अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस के साथ-साथ वर्ष 2005-15 तक अन्तरराष्ट्रीय जल दशक में आम जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो। विचार गोष्ठियों का आयोजन हो जो मुख्यतः सबके बीच जल के समान उपयोग, वानिकी और कृषि उत्पादन के उचित औरपर्यावरण सम्मत तरीके को अपनाने पर केन्द्रित हो।

पर्यावरणविदों का मत है कि भारत में 33 प्रतिशत वन क्षेत्र होना चाहिए जबकि भारत में यह मात्रा 22.4 प्रतिशत ही है। इसलिए भूस्खलन की समस्या भी पैदा हुई है। जल संरक्षण के सम्बन्ध में प्रिण्ट तथा इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को भी आगे आना होगा ताकि जल स्रोतों के प्रदूषण पर रोक और नदी संरक्षण के प्रति आम लोगोंमें जागरुकता बढ़े। कृषि कार्यों, औद्योगिक तथा घरेलू कार्यों हेतु भूजल के अन्धाधुध दोहन पर प्रभावी रोक लगे।

समय की माँग है कि जल संरक्षण को राष्ट्रीय प्राथमिकता का विषय बनाया जाए और व्यक्ति, समाज, संस्था तथा सरकार के स्तर पर नदियों सहित जल स्रोतों के संरक्षण हेतु सुनियोजित प्रयास किया जाए। हमें जलस्रोतों और उनके जल ग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण, हरियाली के विनाश तथा आवासीय भवनों के निर्माण पर रोक लगानी होगी।

शीतल पेयजल हेतु पानी के अन्धाधुन्ध उपयोग पर भी नियन्त्रण लगाना होगा। यद्यपि पर्यावरण शिक्षा सभी स्कूलों में एक अनिवार्य विषय बना दिया गया है लेकिन इसे और व्यापक बनाए जाने की जरूरत है ताकि विद्यार्थी आसन्न जल संकट जैसे पर्यावरण सम्बन्धी अन्य व्यवहार्य पहलुओं और चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम हों।

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं

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Post By: Shivendra
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