यदि इस काम को अंजाम दिया गया, तो नए बायोईंधन काफी हद तक ग्रीन हाउस गैस को निकालने से रोकेंगे और बदलाव लाएंगे। अन्यथा, हम सभी खुद को ही मूर्ख बनाएंगे। दूसरा सवाल यह है कि बायोईंधन का प्रयोग कहां होगा? प्रभावशाली तरीके से बायोईंधन क्रांती सिर्फ़ धनी देशों के लिए नहीं है जहां वाहन चलाए जाएं, बल्कि भारत और अफ्रीका के गाँवों में भी प्रयोग हो। यहां स्थिति यह है कि घर में रोशनी, खाने बनाने में ईंधन, वाटर पंप चलाने के लिए जनरेटर सेट और वाहन चलाने के लिए ऊर्जा की कमी है। कोई दूसरा विकल्प न होने की दशा में जीवाश्म ईंधन लगातार मांग बढ़ना लाज़िमी है। भारत में जैट्रोफा जैसे जंगली पौधे से बायोईंधन बनाया जाता है। यह बंजर भूमि पर उगता है और इसके द्वारा ईंधन बनाए जाने पर लोगों को रोज़गार भी मिलेगा।जलवायु में हो रहे परिवर्तन को अब शंकालु लोगों ने भी स्वीकार कर लिया है, तो इसका जवाब ढूंढने की कोशिश की जाने लगी है। ग्रीनहाउस गैसों, जीवाश्म ईंधन के अलावा वनस्पति ईंधन के मुद्दे पर सबसे अधिक बहस चल रही है। दुर्भाग्यवश, जिस तरह इस बेहतर विचार को लागू करने की दिशा में काम किया जा रहा है वह आसमान से टपके खजूर पर अटके वाली बात है। बायोईंधन दो तरह का होता है। एक गन्ने या मक्के से तैयार होने वाला इथेनॉल है और दूसरा बायोडीजल, जिसे बायोमॉस से तैयार किया जाता है। बायोईंधन सबसे पहले यूरोप में बना, जिसका लक्ष्य 2010 तक छह फीसदी वाहनों और 2020 तक दस फीसदी वाहनों में ईंधन के तौर पर प्रयोग करने का है। बायोडीजल की अधिकतर मात्रा का उत्पादन घरेलू किस्म की रेपसीड से होता है। ब्राजील और अर्जेंटीना में सोयाबीन से यह ईंधन तैयार किया जा रहा है और इंडोनेशिया और मलेशिया में खजूर के तेल से इसे बनाया जा रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अपने देश को 2017 तक 132 बिलियन लीटर बायोईंधन तैयार करने का निर्देश दिया है, जिससे विदेशी ईंधन पर निर्भरता खत्म हो सके। अमेरिका का पसंदीदा ईंधन मक्के से बनने वाला इथेनॉल है। दुनिया में सबसे अधिक इथेनॉल का उत्पादन करने वाला ब्राजील इसे तैयार करने में गन्ने का प्रयोग करता है। अनुमान के मुताबिक, आने वाले वर्षों में अमेरिका के घरों में प्रयोग होने वाले मक्के की आधी से अधिक मात्रा से इथेनॉल बनाया जाएगा। साथ ही, बायोईंधन इंडस्ट्री ईंधन के लिए सोया के अलावा दूसरी फ़सलों का प्रयोग ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में करेगा। बदलाव का प्रभाव पहले से ही दिखने लगा है। पिछले साल मैक्सिको में लोगों का गुस्सा तब सामने आया, जब एकाएक मक्के का दाम दोगुना हो गया । तेजी की वजह थी वाहन ईंधन के रूप में उभर रहे नए बाजार की संभावनाएं और इसमें कारपोरेट अमेरिका की दिलचस्पी। लेकिन इसके विरोध में लोग सड़कों पर आंदोलन के लिए उतर आए थे। इस मामले में आर्चर डेनियल्स मिडलैंड नामक कंपनी ने मक्के और गेहूं के बाजार में मुख्य रुचि दिखाई और पूरे क्षेत्र में सबसे अधिक इथेनॉल का उत्पादन किया। साथ ही, आर्थिक इनाम के तौर पर टारटिला बनाने और गेहूं को रिफाइन करने वाली मेक्सिको की कंपनी को साझेदार बनाया।
जाहिर है कि जब मक्के का दाम बढ़ेगा और इसकी वजह से लोग मक्के की जगह गेहूं का इस्तेमाल करेंगे तो भी कंपनी को फायदा होगा। दूसरे शब्दों में रुझान खाद्य से ईंधन की ओर जाएगा। वर्तमान परिदृश्य में गेहूं, सोया, खजूर, तेल जैसे खाद्य पदार्थों का दाम जिस कदर बढ़ रहा है, इसका प्रभाव व्यापक तौर से गरीब उपभोक्ताओं पर पड़ रहा है। खाद्य पदार्थों के दामों में उछाल 20-40 फीसदी होने की संभावना है और यह सिर्फ इस परिवर्तन के कारण ही होगा।
समस्या यह है कि इस सबसे पर्यावरण में होने वाले बदलाव पर बहुत कम असर पड़ेगा। यह साफ है कि पूरे विश्व में बायोईंधन जीवाश्म ईंधन की खपत होने से बन रही खतरनाक स्थिति को रोकेगा। अमेरिका में यदि मक्के की पूरी फसल से इथेनॉल बनाया जाए, तो भी वर्तमान में प्रयोग हो रहे गैसोलीन का सिर्फ 12 फीसदी ही बदला जा सकेगा। अमेरिकी विदेश विभाग की एक पत्रिका के मुताबिक 95 लीटर शुद्ध इथेनॉल बनाने के लिए 200 किलोग्राम मक्के की आवश्यकता होती है, जो पूरे साल एक व्यक्ति को पर्याप्त कैलोरी दे सकता है।
यदि हम देखें कि बायोमास को ऊर्जा में बदलने के लिए जो ऊर्जा इस्तेमाल होती है जैसे, ट्रैक्टर चलाने के लिए डीजल, उर्वरक बनाने के लिए प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी चलाने के लिए ईंधन तो बायोईंधन उतना ऊर्जा उपयोगी नहीं रह जाता। अनुमान के मुताबिक, मक्के से बनने वाले ईंधन का सिर्फ 20 फीसदी ही नई ऊर्जा में तब्दील हो पाता है। इस बात के भी पर्याप्त सबूत हैं कि सोया, गन्ना, खजूर के तेल के उत्पादन को बढ़ने के लिए वनों को काटा जायेगा, जो जलवायु परिवर्तन को काफी प्रभावित करते हैं।
मुझे गलत न समझा जाए, मैं बायोईंधन के पक्ष में हूं। लेकिन यहां यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि ग्रीनहाउस गैस को रोकने में यह किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान में हम लोग सिर्फ कारपोरेट के लाभ को बढ़ाने में लगे हैं और सहज तौर से विश्वास करने लगे कि इससे सामाजिक ध्येय पूरा हो गया। पहली बात तो यह है कि जीवाश्म ईंधन का स्थान बायोईंधन नहीं ले सकता। लेकिन इससे कुछ बदलाव लाया जा सकता है यदि बायोईंधन का सीमित दायरे में प्रयोग किया जाए। अमेरिका और यूरोप की भांति बायोईंधन के लिए फसल उगाने पर सरकार द्वारा छूट नहीं दी जानी चाहिए। सड़क पर लगातार बढ़ रही वाहनों की संख्या कम कर ईंधन के खर्च पर अंकुश लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए। यदि इस काम को अंजाम दिया गया, तो नए बायोईंधन काफी हद तक ग्रीन हाउस गैस को निकालने से रोकेंगे और बदलाव लाएंगे। अन्यथा, हम सभी खुद को ही मूर्ख बनाएंगे। दूसरा सवाल यह है कि बायोईंधन का प्रयोग कहां होगा? प्रभावशाली तरीके से बायोईंधन क्रांती सिर्फ़ धनी देशों के लिए नहीं है जहां वाहन चलाए जाएं, बल्कि भारत और अफ्रीका के गाँवों में भी प्रयोग हो। यहां स्थिति यह है कि घर में रोशनी, खाने बनाने में ईंधन, वाटर पंप चलाने के लिए जनरेटर सेट और वाहन चलाने के लिए ऊर्जा की कमी है। कोई दूसरा विकल्प न होने की दशा में जीवाश्म ईंधन लगातार मांग बढ़ना लाज़िमी है। भारत में जैट्रोफा जैसे जंगली पौधे से बायोईंधन बनाया जाता है। यह बंजर भूमि पर उगता है और इसके द्वारा ईंधन बनाए जाने पर लोगों को रोज़गार भी मिलेगा।
ईंधन का बाजार एक अलग किस्म के बिज़नेस मॉडल की मांग करता है। इस खुले बाजार को उस मॉडल पर नहीं चलाया जा सकता, जो इकोनॉमी ऑफ स्केल पर आधारित है। यह मॉडल बाजार से प्रतियोगिता को खत्म कर देता है। वर्तमान मॉडल में कंपनी फसल उगाने, तेल निकालने, रिफाइन करने से लेकर ग्राहकों तक पहुंचाने के सारे काम खुद करेगी। नई तकनीक वाले बायोईंधन के व्यापार को फैलाने की जरूरत है। इसमें लाखों उत्पादक और लाखों डिस्ट्रीब्यूटर्स हैं और प्रयोग करने वाले भी लाखों की संख्या में हैं। जलवायु में परिवर्तन महज तकनीक की बात नहीं है, यह राजनैतिक चुनौती है। बायोईंधन नए भविष्य का एक हिस्सा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अपने देश को 2017 तक 132 बिलियन लीटर बायोईंधन तैयार करने का निर्देश दिया है, जिससे विदेशी ईंधन पर निर्भरता खत्म हो सके। अमेरिका का पसंदीदा ईंधन मक्के से बनने वाला इथेनॉल है। दुनिया में सबसे अधिक इथेनॉल का उत्पादन करने वाला ब्राजील इसे तैयार करने में गन्ने का प्रयोग करता है। अनुमान के मुताबिक, आने वाले वर्षों में अमेरिका के घरों में प्रयोग होने वाले मक्के की आधी से अधिक मात्रा से इथेनॉल बनाया जाएगा। साथ ही, बायोईंधन इंडस्ट्री ईंधन के लिए सोया के अलावा दूसरी फ़सलों का प्रयोग ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में करेगा। बदलाव का प्रभाव पहले से ही दिखने लगा है। पिछले साल मैक्सिको में लोगों का गुस्सा तब सामने आया, जब एकाएक मक्के का दाम दोगुना हो गया । तेजी की वजह थी वाहन ईंधन के रूप में उभर रहे नए बाजार की संभावनाएं और इसमें कारपोरेट अमेरिका की दिलचस्पी। लेकिन इसके विरोध में लोग सड़कों पर आंदोलन के लिए उतर आए थे। इस मामले में आर्चर डेनियल्स मिडलैंड नामक कंपनी ने मक्के और गेहूं के बाजार में मुख्य रुचि दिखाई और पूरे क्षेत्र में सबसे अधिक इथेनॉल का उत्पादन किया। साथ ही, आर्थिक इनाम के तौर पर टारटिला बनाने और गेहूं को रिफाइन करने वाली मेक्सिको की कंपनी को साझेदार बनाया।
जाहिर है कि जब मक्के का दाम बढ़ेगा और इसकी वजह से लोग मक्के की जगह गेहूं का इस्तेमाल करेंगे तो भी कंपनी को फायदा होगा। दूसरे शब्दों में रुझान खाद्य से ईंधन की ओर जाएगा। वर्तमान परिदृश्य में गेहूं, सोया, खजूर, तेल जैसे खाद्य पदार्थों का दाम जिस कदर बढ़ रहा है, इसका प्रभाव व्यापक तौर से गरीब उपभोक्ताओं पर पड़ रहा है। खाद्य पदार्थों के दामों में उछाल 20-40 फीसदी होने की संभावना है और यह सिर्फ इस परिवर्तन के कारण ही होगा।
समस्या यह है कि इस सबसे पर्यावरण में होने वाले बदलाव पर बहुत कम असर पड़ेगा। यह साफ है कि पूरे विश्व में बायोईंधन जीवाश्म ईंधन की खपत होने से बन रही खतरनाक स्थिति को रोकेगा। अमेरिका में यदि मक्के की पूरी फसल से इथेनॉल बनाया जाए, तो भी वर्तमान में प्रयोग हो रहे गैसोलीन का सिर्फ 12 फीसदी ही बदला जा सकेगा। अमेरिकी विदेश विभाग की एक पत्रिका के मुताबिक 95 लीटर शुद्ध इथेनॉल बनाने के लिए 200 किलोग्राम मक्के की आवश्यकता होती है, जो पूरे साल एक व्यक्ति को पर्याप्त कैलोरी दे सकता है।
यदि हम देखें कि बायोमास को ऊर्जा में बदलने के लिए जो ऊर्जा इस्तेमाल होती है जैसे, ट्रैक्टर चलाने के लिए डीजल, उर्वरक बनाने के लिए प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी चलाने के लिए ईंधन तो बायोईंधन उतना ऊर्जा उपयोगी नहीं रह जाता। अनुमान के मुताबिक, मक्के से बनने वाले ईंधन का सिर्फ 20 फीसदी ही नई ऊर्जा में तब्दील हो पाता है। इस बात के भी पर्याप्त सबूत हैं कि सोया, गन्ना, खजूर के तेल के उत्पादन को बढ़ने के लिए वनों को काटा जायेगा, जो जलवायु परिवर्तन को काफी प्रभावित करते हैं।
मुझे गलत न समझा जाए, मैं बायोईंधन के पक्ष में हूं। लेकिन यहां यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि ग्रीनहाउस गैस को रोकने में यह किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान में हम लोग सिर्फ कारपोरेट के लाभ को बढ़ाने में लगे हैं और सहज तौर से विश्वास करने लगे कि इससे सामाजिक ध्येय पूरा हो गया। पहली बात तो यह है कि जीवाश्म ईंधन का स्थान बायोईंधन नहीं ले सकता। लेकिन इससे कुछ बदलाव लाया जा सकता है यदि बायोईंधन का सीमित दायरे में प्रयोग किया जाए। अमेरिका और यूरोप की भांति बायोईंधन के लिए फसल उगाने पर सरकार द्वारा छूट नहीं दी जानी चाहिए। सड़क पर लगातार बढ़ रही वाहनों की संख्या कम कर ईंधन के खर्च पर अंकुश लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए। यदि इस काम को अंजाम दिया गया, तो नए बायोईंधन काफी हद तक ग्रीन हाउस गैस को निकालने से रोकेंगे और बदलाव लाएंगे। अन्यथा, हम सभी खुद को ही मूर्ख बनाएंगे। दूसरा सवाल यह है कि बायोईंधन का प्रयोग कहां होगा? प्रभावशाली तरीके से बायोईंधन क्रांती सिर्फ़ धनी देशों के लिए नहीं है जहां वाहन चलाए जाएं, बल्कि भारत और अफ्रीका के गाँवों में भी प्रयोग हो। यहां स्थिति यह है कि घर में रोशनी, खाने बनाने में ईंधन, वाटर पंप चलाने के लिए जनरेटर सेट और वाहन चलाने के लिए ऊर्जा की कमी है। कोई दूसरा विकल्प न होने की दशा में जीवाश्म ईंधन लगातार मांग बढ़ना लाज़िमी है। भारत में जैट्रोफा जैसे जंगली पौधे से बायोईंधन बनाया जाता है। यह बंजर भूमि पर उगता है और इसके द्वारा ईंधन बनाए जाने पर लोगों को रोज़गार भी मिलेगा।
ईंधन का बाजार एक अलग किस्म के बिज़नेस मॉडल की मांग करता है। इस खुले बाजार को उस मॉडल पर नहीं चलाया जा सकता, जो इकोनॉमी ऑफ स्केल पर आधारित है। यह मॉडल बाजार से प्रतियोगिता को खत्म कर देता है। वर्तमान मॉडल में कंपनी फसल उगाने, तेल निकालने, रिफाइन करने से लेकर ग्राहकों तक पहुंचाने के सारे काम खुद करेगी। नई तकनीक वाले बायोईंधन के व्यापार को फैलाने की जरूरत है। इसमें लाखों उत्पादक और लाखों डिस्ट्रीब्यूटर्स हैं और प्रयोग करने वाले भी लाखों की संख्या में हैं। जलवायु में परिवर्तन महज तकनीक की बात नहीं है, यह राजनैतिक चुनौती है। बायोईंधन नए भविष्य का एक हिस्सा है।
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