बुंदेलखंड में अकाल और सूखे के घाव गहरे होते जा रहे हैं. जीवन की संभावनाएं क्रमशः कम होती जा रही हैं. लोग बड़ी उम्मीद से आसमान में टकटकी लगाए देख रहे हैं लेकिन साल दर साल बादल धोखा दे कर निकल जा रहे हैं. पिछले 10 सालों में बारिश के दिनों की संख्या 52 से घट कर 23 पर आ गई है.
चारों तरफ पहाडी श्रृंखलायें, ताल-तलैये और बारहमासी नालों के साथ काली सिंध, बेतवा, धसान, केन और नर्मदा जैसी नदियों से घिरा इस इलाके का अतीत भले ही गौरवशाली रहा हो लेकिन इसका वर्तमान दुख की एक ऐसी कहानी लिख रहा है, जिससे किसी बेहतर भविष्य की उम्मीद नहीं की जा सकती. इसलिए भी नहीं क्योंकि ताजा संकट के हल बेहद हल्के और सतही अंदाज में खोजने की कोशिश की जा रही है.
यह इलाका प्रकृति के कितना करीब रहा है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों के नाम वृक्षों (जमुनिया, इम्लाई), जलाशयों (कुआं, सेमरताल), पशुओं (बाघडबरी, हाथीसरा, मगरगुहा, झींगुरी, हिरनपुरी), पक्षियों, घास-पात या स्थान विशेष के पास होने वाली किसी ख़ास ध्वनि के आधार पर हैं पर अब इस अंचल को विकास की नीतियों ने सूखा इलाका बना दिया है.
यहाँ की जमीन खाद्यान, फलों, तम्बाकू और पपीते की खेती के लिए बहुत उपयोगी मानी गई है. यहाँ सारई, सागौन, महुआ, चार, हर्र, बहेडा, आंवला, घटहर, आम, बैर, धुबैन, महलोन, पाकर, बबूल, करोंदा, समर के पेड़ खूब पाए जाते रहे हैं. लेकिन अब ये पेड़ खत्म हो रहे हैं. पिछले 10 वर्षों में बुंदेलखंड में खाद्यान उत्पादन में 55 फीसदी और उत्पादकता में 21 प्रतिशत की कमी आई है और प्राकृतिक संसाधनों के बाजारू दोहन की नीतियों ने खेती को भी सूखा दिया. लेकिन इतना होने पर भी सरकार किसान उन्मूलक कृषि को संरक्षण देने के पक्ष में नहीं दिखती.
बुंदेलखंड की औसत बारिश 95 सेंटीमीटर है, जिससे यहाँ पानी की कमी बनी रहती है. ऐसे में यहाँ कम बारिश में पनपने वाली फसलों को प्रोत्साहन करने की जरुरत थी. इस इलाके में दालों के उत्पादन को सरकार ने बढावा नहीं दिया, जो कि शायद बुंदेलखंड के लिए एक अच्छा साधन और विकल्प हो सकता था, क्योंकि धान की तुलना में इसमें केवल एक तिहाई पानी ही लगता है. लेकिन मुनाफे की ललक में सरकार और कुछ बड़े किसानों ने सोयाबीन और कपास जैसे विकल्पों के चुना.
पिछले बीस सालों में निजी आर्थिक हितों की मंशा को पूरा करने के लिए नकदी फसलों को बढावा दिया गया. जमीन की नमी गयी तो गहरे नलकूप खोद कर जमीन का पानी खींच कर निकालने की शुरुवात हुई और भू-जल स्रोतों को सुखाना शुरू कर दिया गया.
सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड क्षेत्र के जिलों के कुओं में पानी का स्तर नीचे जा रहा है और भू-जल हर साल 2 से 4 मीटर के हिसाब से गिर रहा है. दूसरी ओर हर साल बारिश में गिरने वाले 70 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी में से 15 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन में उतर पाता है.
1999 से 2008 के बीच के वर्षों में यहाँ बारिश के दिनों की संख्या 52 से घट कर 23 पर आ गई है. अब ऐसे में यदि 1000 मिलीमीटर बारिश हो भी जाए तो क्या पानी जमीन में उतर पायेगा ? क्या तेज गति से गिरे पानी को खेतों की बाड़े रोक पाएंगी ? क्या ऐसे में भू-जल स्तर बढ़ पायेगा ? इन सभी सवालों के जवाब नकारात्मक हैं.
इस इलाके की मुख्य समस्याएँ जल, जंगल और जमीन से जुडी हुई है, जो कभी उसकी ताकत हुआ करती थी. यहाँ की जमीन उपजाऊपन खो रही हैं, जिसे उपजाऊ बनाने रखने की जरूरत है, पर ऐसा ना करके सरकार पडत भूमि को खनिज खदानों और सीमेंट के कारखानों के लिए बाँट रही है. सीमेंट के कारखाने केवल अपनी जमीन का ही उपयोग नहीं करते हैं बल्कि आसपास की सैकडों एकड़ जमीन को भी बर्बाद कर देते हैं. कल तक जिन खेतों में लहलहाती फसलें उगती थीं, आज उन खेतों में कारखानों का प्रदूषण उपज रहा है, जिसने एक बड़ी आबादी को बीमारी की चपेट में ले रखा है.
इस साल फिर टीकमगढ़ (-56 फीसदी कम बारिश), छत्तरपुर (-54 फीसदी कम बारिश), पन्ना (-61 फीसदी कम बारिश), सागर (-52 फीसदी कम बारिश), दमोह (-61 फीसदी कम बारिश), दतिया (-38 फीसदी कम बारिश) सहित पूरा बुंदेलखंड अब तक के सबसे पीड़ादायक सूखे की चपेट में है. लेकिन यह संकट हमें कुछ सीखने के अवसर भी दे रहा है. इससे हमें यह साफ़ संकेत मिल रहे हैं कि सत्ता और समाज को अपनी विकास की जरूरतों और सीमाओं को संयम के सिद्धांत के साथ परिभाषित करना चाहिए.
इस साल फिर टीकमगढ़ (-56 फीसदी कम बारिश), छत्तरपुर (-54 फीसदी कम बारिश), पन्ना (-61 फीसदी कम बारिश), सागर (-52 फीसदी कम बारिश), दमोह (-61 फीसदी कम बारिश), दतिया (-38 फीसदी कम बारिश) सहित पूरा बुंदेलखंड अब तक के सबसे पीड़ादायक सूखे की चपेट में है.हम हमेशा यह नहीं कह सकते हैं कि सरकार की राहत से ही सूखे का मुकाबला किया जाना चाहिए, बल्कि समाज को इस मुकाबले के लिए ताकतवर और सजग बनाना होगा. सरकार पर निर्भरता सूखे को और विकराल बना देगी. यह बेहद जरूरी है कि तत्काल ऐसे औद्योगिकरण को रोका जाए जो पर्यावरण चक्र को आघात पहुंचाता हो. यह तय किया जाना जरूरी है कि भू-खनन, निर्वनीकरण और वायुमंडल में घातक गैसें छोड़ने वाले उद्योगों की स्थापना नहीं की जायेगी और तत्काल वन संवर्धन और संरक्षण का अधिकार समुदाय को सौंपा जाएगा.
भारत सरकार के सिंचाई एवं विद्युत मंत्रालय के सन् 1985 के आंकडों के मुताबिक बुंदेलखण्ड में बारिश का 131021 लाख घन मीटर पानी हर साल उपलब्ध रहता है. इसमें से महज 14355 लाख घन मीटर पानी का ही उपयोग किया जा पाता है, बाकी का 116666 लाख घन मीटर बिना उपयोग के ही चला जाता है यानी पूरी क्षमता का 10.95 प्रतिशत ही उपयोग में लिया जाता है. आज भी स्थिति यही है.
इसके लिए बुंदेलखंड की पुरानी छोटी-छोटी जल संवर्धन संरचनाओं के पुनर्निमाण और रख-रखाव की जरूरत थी, जिसे पूरा नहीं किया गया. इसके बजाये बुंदेलखंड में 15 बड़े बाँध बना दिए गए, जिनमें गाद भर जाने के कारण उनकी क्षमताओं का 30 फीसदी हिस्सा ही उपयोग में लाया जा पा रहा है. इस इलाके के 1600 खूबसूरत ऐतिहासिक तालाबों में से अभी केवल 40 ही बेहतर स्थिति में हैं. अनुपम मिश्र लिखते हैं कि बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें अपने किसी सदस्य की अक्षम्य गलती पर जब दंड देती थीं तो उसे दंड में प्राय: तालाब बनाने को कहती थीं. लेकिन अब परोपकार के लिए भी तालाब बनाने की बात नहीं होती.
बार-बार यह आंकडा पेश किया जाता है कि लाखों मिलियन लीटर पानी बेकार बह जाता है. इस सन्दर्भ में हमें थोडा अपने आप से यह सवाल पूछना चाहिए कि यदि यह पानी बह कर समुद्र में नहीं जाएगा तो समुद्रों का क्या हश्र होगा. जिस तरह का जल प्रबंधन सरकारें कर रही हैं, उससे नदियों का पानी या तो सूख रहा है (नर्मदा, सोन), या बाढ़ आ रही है (कोसी).
जहाँ पानी सूख रहा है, वहां समुद्र अपना पानी प्रवाहित करने लगा है, जिससे नर्मदा जैसी नदियों का पानी खारा हो रहा है और बाढ़ तो तबाही मचा ही रही है. अब सूखा केवल प्रकृति के व्यवहार से उपजी हुई स्थिति नहीं है, यह मानवीय समाज की असंयमित और गैर जवाबदेय विकास की प्रक्रिया का परिणाम भी है. जिसे समझे बिना बुंदेलखंड के अकाल का सामना संभव नहीं है.
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