एक तरफ जहाँ नर्मदा पर बड़े बाँधों से विस्थापित होने वाले लोगों की लड़ाइयाँ लड़ते हुए नर्मदा बचाओ आन्दोलन के 31 बरस हो रहे हैं, वहीं अब तक के नर्मदा पर बनाए बाँधों में इन्दिरा सागर में डूब चुके सबसे बड़े कस्बे हरसूद की भी 12वीं बरसी बीते दिनों निकली है।
बारह साल का लम्बा वक्त निकले के बाद भी वहाँ के लोग अब भी एक अदद जिन्दगी से महरूम हैं। यहाँ तक कि पीने का पानी, शिक्षा के लिये स्कूल और रहने के लिये मकान भी पुनर्वास स्थलों पर समुचित ढंग से नहीं मिल पा रहे हैं।
मध्य प्रदेश में भोपाल से करीब 200 किमी दूर हरसूद कस्बे के लोगों की आँखों में अब भी अपने पुराने शहर की तस्वीरें और मन में यादें जब-तब हरहरा उठती हैं। यहाँ तक कि जब गर्मियों के दिनों में बाँध के बैकवाटर का पानी उतरता है तो दूर-दूर जा बसे लोग अपने उजड़े हुए कस्बे से मिलने चले आते हैं। हर साल 30 जून को इसके उजाड़े जाने की बरसी पर यहाँ सैकड़ों लोग इकट्ठा होते हैं और मन में गहरे अवसाद के साथ इसे याद करते हैं।
उनके लिये हरसूद आत्मा में फँसे किसी काँटे की तरह है या किसी पके फोड़े की तरह, जो याद दिलाते ही दर्द की टीस भर देता है और अव्यवस्थाओं का मवाद रिसने लगता है। वे न उसे भुला पा रहे हैं और न ही उसे खुलकर याद कर पाते हैं। उनके साथ जिन्दगी का सबसे बड़ा छलावा हुआ है।
विकास की जो कीमत उन्होंने चुकाई है, उसमें उन्हें कोई हिस्सा नहीं मिला, यहाँ तक कि बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं। बात तो नए हरसूद को चंडीगढ़ की तरह बसाने की थी पर वह एक अदद गाँव भी नहीं बन सका।
यह पीड़ा है अब से बारह साल पहले 30 जून 2004 को अपने ही घरों की दरों-दीवार से बेदखल कर निकाल दिये गए उन सवा लाख से ज्यादा अभागों की, जो पीढ़ियों से हरसूद और उसके आसपास के 250 गाँवों के बाशिंदे थे। इन्दिरा सागर बाँध से इस भरी-पूरी बस्ती को विस्थापित होना पड़ा था। बताते हैं राजा हर्षवर्धन ने हरसूद को 1815 में बसाया था।
पौने दो सौ सालों में यह इलाके का बड़ा कस्बा बना, तहसील मुख्यालय और करीब साढ़े पाँच हजार से ज्यादा परिवारों में धड़कता हुआ। यहाँ के लोग खेती करते थे, मजदूरी करते थे, परम्परागत धंधा कारोबार करते या नौकरियाँ पर सब बड़े खुश थे और एक दूसरे की चिन्ताओं में शामिल थे। यह एशिया का सबसे बड़ा विस्थापन था, जिसमें 700 साल पुराना शहर पानी में डुबो दिया गया था।
लेकिन एक सरकारी फरमान ने ताबड़तोड़ इस जीते-जागते कस्बे को मरघट में बदल दिया। यहाँ बाँध से एक हजार मेगावाट बिजली बनाने के लिये लोगों ने सिसकते हुए छाती पर पत्थर रख अपने ही घरों को तोड़ा। मेघा पाटकर, अरुंधती राय और तमाम आन्दोलनों की दलीलें भी काम नहीं आई।
31 जनवरी 1989 को यहाँ इस बाँध का विरोध पर्यावरण के मुद्दों पर लड़ने वाले बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा, शिवराम कारन्त, स्वामी अग्निवेश, मेघा पाटकर और शबाना आजमी सहित हजारों लोगों ने इसका विरोध किया था। तब सर्वे टीम के अधिकारियों की किसी बात से लोग भड़क उठे और उन्होंने अनायास पथराव शुरू कर दिया था तो प्रशासन ने भी आँसू गैसे के गोले और लाठियों से लोगों को खदेड़ा था।
तब इन रोते-सुबकते 22 हजार लोगों को ख्वाब दिखाया गया था कि वे विस्थापित होकर जिस नए हरसूद (छनेरा) में बसेंगे, वहाँ उन्हें कोई किल्लत नहीं होगी। उसे चंडीगढ़ की तर्ज पर विकसित किया जाएगा। पर तमाम छलावों की तरह यह भी एक छलावा ही साबित हुआ। विकास की भेंट चढ़े इन लोगों की जिन्दगी का कोई हिस्सा इससे रोशन नहीं हो सका।
विस्थापित साढ़े पाँच हजार परिवारों में से तेईस सौ ही यहाँ बसने पहुँचे, बाकी के अलग-अलग कस्बों और शहरों में कहाँ बिसरा गए, किसी को नहीं पता। पर यहाँ की अव्यवस्थाएँ देखकर यह पीड़ा और बड़ी हो जाती है। यहाँ तक कि उन्हें अपने मकान के स्थायी पट्टे तक नहीं मिले हैं।
इस उजाड़-बंजर जमीन पर उन्हें बसा तो दिया पर लोग बारह साल बाद भी रोजी-रोटी के लिये परेशान हैं। न पानी है और न रोटी। पानी दो दिन में एक बार आता है और कभी-कभी तो तीन से चार दिन भी लग जाते हैं। मुआवजे की रकम भी कब तक चलती। यहाँ की जमीन अब भी उबड़-खाबड़ ही है। सड़कें और नाली खराब स्थिति में हैं। न इनके लिये समुचित स्वास्थ्य सुविधाएँ हैं और न ही शिक्षा की। सबसे ज्यादा बुरी स्थिति यहाँ बसे करीब पचास दलित परिवारों की है।
पुराने हरसूद रोड के लोगों को पीने का पानी भी डेढ़ किमी दूर भराड़ी गाँव से ढोकर लाना पड़ता है। नगर परिषद, हरसूद के अध्यक्ष कमलकांत भारद्वाज कहते हैं कि रोजगार और अन्य बातें सरकारों के बस में है, हम अपनी परिषद की जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं।
इन दिनों बाँध के बैकवाटर का पानी कम हो जाने से कई लोग मलबे में तब्दील हो चुके हरसूद में अपनी यादों को खोजने आते हैं। 30 जून को बड़ी संख्या में लोग अपनी यादों में इसे संजोने आते हैं। यहाँ आकर उनकी आँखों में यादों का हरसूद हरहराने लगता है।
बुजुर्ग अपने बच्चों को इस उजड़े हुए शहर का भूगोल समझाने की कोशिश करते हैं तो कभी उनकी आँखें ही छलछला आती है। राजेश राठौर और मयंक महाजन बताते हैं कि इसकी स्मृतियाँ हमेशा बनी रहेंगी। मोहम्मद बशीर बताते हैं कि हमें जड़ों से काट दिया गया। पर इसका फायदा हमें तो दूर इलाके को भी नहीं मिल पाया।
प्रभाकर शास्त्री की तीन बेटियाँ हैं, छोटी बेटी प्रतिभा कहती है कि हमारे लिये तो मायका ही उजड़ गया। बची हैं तो बस उसकी यादें। अब भोपाल में बस चुके वसन्त सकरगाए बताते हैं कि वे दुनिया में कहीं भी जा सकते हैं, पर विडम्बना कि कभी हरसूद नहीं लौट सकते। हमारे साथ क्रूर मजाक हुआ है। उनकी माँ हरसूद का नाम सुनते ही हमारी ओर आती हैं और पूछती हैं- क्या पानी उतरने पर अब भी उनके घर का खण्डहर नजर आता है।
दरअसल पुराने पत्थरों को चूने से जोड़ी हुई उनके मकान की चौहद्दी का एक हिस्सा अब भी सागर की तरह के लबालब जलाशय के बीच मुँह चिढ़ाते हुए खण्डहर की शक्ल में खड़ा है। बहुत जिद करने पर करीब तीन साल पहले उनके बेटे उन्हें पानी उतरने पर वहाँ ले गए थे। उनकी बूढ़ी आँखों में अब भी अपने कस्बे की बनती-बिगड़ती तस्वीरें और मन में यादों का बवंडर साफ महसूस किया जा सकता है।
विकास के नाम पर हजारों लोगों की जिन्दगियों से धड़कते हुए किसी कस्बे या सैकड़ों गाँवों की रातों-रात पहचान को अचानक इस तरह पानी में डुबो देना मानवता के हक में तो खैर किसी भी दशा में ठीक नहीं है लेकिन पर्यावरण के लिहाज और सुचारु व टिकाऊ विकास के एक व्यवस्थित क्रम के भी पूरी तरह खिलाफ है। इससे यहाँ का पर्यावरण भी पूरी तरह से नेस्तनाबूद हो गया है। जंगली जानवरों और पेड़ -पौधों के नुकसान के साथ यह नदी के प्राकृतिक तंत्र को भी नुकसान पहुँचाने वाला कदम ही साबित होता है।
हमें अपनी गलतियों का आकलन करते हुए भविष्य में इस तरह पानी इकट्ठे किये जाने के तौर-तरीके बदलने होंगे, तभी हम पानी और उसके विज्ञान को सही दिशा में ले जा सकते हैं।
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