बारानी खेती में बूंद बूंद पानी का उपयोग एवं मौसम आधारित जल प्रबंध

भारत की सिंचन क्षमता गत 40 वर्षों में लगभग चार गुनी हो जाने के बावजूद लगभग 70 प्रतिशत (100 मिलियन हेक्टेयर) क्षेत्र में वर्षाधीन खेती की जाती है। वर्षा के वितरण एवं मात्रा में स्थान एवं महीनों में भारी अन्तर होने तथा अनिश्चितता के कारण कृषि उत्पादन में स्थिरता नहीं रह पाती। इसी कारण सिंचित क्षेत्रं में पानी की सुनिश्चतता के कारण जहां हरित क्रांति का आविर्भाव संभव हो सका वहीं असिंचित क्षेतरों में कृषि उत्पादन अस्थिर एवं बहुत कम है। उदाहरणार्थ गेहूं, आलू एवं गन्ने की उत्पादकता जो सिंचित क्षेत्रों की फसलें हैं, गत 40 वर्षों में 100 से 300 प्रतिशत तक बढ़ी है परन्तु दलहन एवं तिलहन जो अपेक्षाकृत असिंचित क्षेत्रों को फसलें हैं की प्रतिशत तक बढ़ी है परन्तु दलहन एवं तिलहन जो अपेक्षाकृत असिंचित क्षेत्रों की फसलें है कि उत्पादकता लगभग 50 ही बढ़ी है।

उदाहरणार्थ गेंहूं एवं गन्ना की औसत उपज जो वर्ष 1950-51 में क्रमशः 663 किग्रा एवं 31,786 किग्रा प्रति हेक्टेयर थी वर्ष 1991-92 में बढ़कर क्रमश 2397 क्रिग्रा एवं 65357 किग्रा प्रति हेक्टे. हो गई परन्तु चना की औसतन उपज जो 1950-51 482 किग्रा. प्रति हेक्टे. थी वह वर्ष 1991-92 में बढ़कर मात्र 735 किग्रा प्रति हेक्टे. हुई। असिंचित क्षेत्रों में फसलों की कम उत्पादकता के लिए 5 कारण प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। भूखी एवं प्यासी भूमि, मौसम में तीव्र परिवर्तन यानी कमी अल्पवृष्टि तो कभी अति-वयष्टि, जलागम आधारित भूमि एवं जल संरक्षण के तरीके न अपनाना, परम्परागत तरीके से खेती करना एवं भूमि उपयोगिता के आधार पर वैकल्पिक भू उपयोग पद्धति न अपनाना। कानपुर एवं देश के अन्य स्थानों पर विगत 25 वर्षों में हुए अनुसंधान से प्राप्त परिमामों से स्पष्ट है कि जलागम आधारित भूमि संरक्षण एवं जल प्रबंध के समूचित उपाय करके, उन्नत कृषि विधियां एवं वैकल्पिक भू उपयोग की सही विधियां अपनाकर कटे-फटे असिंचित क्षेत्रों में भी कृषि उत्पादन काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। असिंचित खेती के प्रमुख सूत्र हैं:

1. आधारभूत संसाधनों जैसे मृदा, वर्षा जल एवं वनस्पति का संरक्षण एवं संवर्धन।
2.उपयुक्त फसल प्रजाति, पराल पद्धति एवं खेती के उन्नतिशील तरीके अपनाकर संरक्षित जल का कुशल उपयोग करना यानी उपलब्ध भूमि एवं जल संसाधनों से अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करना।
3. जब मानसून देर से आये अथवा फसल के बीच लम्बा सूखा पड़ जाय अथवा मानसून शीघ्र चला जाय तो आवश्यक आकस्मिक उपाय अपनाना।
4. बहुत ढालू एवं कटे-फटे क्षेत्र जो फसलोत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं है वहां वन, फलदार वृक्ष, घास आदि का रोपण करना चाहिए तथा तालाब-पोखर अथवा गड्ढे में जल संचित कर मत्स्य पालन, सिंघाड़े आदि की खेती करना जिससे प्रति व्यक्ति आय के साथ पर्यावरणीय संतुलन बना रहे। कानपुर में विगत 25 वर्षों में हुए अनुसंधान के आधार पर उत्तर प्रदेश के मध्यवर्ती भागों में कटी-फटी असिंचित भूमि पर सफल कृषि उत्पादन हेतु विभिन्न उपायों का विवरण लेख में प्रस्तुत है।

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