बाँस के भण्डार

असम के जोरहाट जिले के 43 वर्षीय किसान राहुल गोगोई को इस बात का कोई गम नहीं कि अब से पाँच साल पहले उन्होंने अपनी कुल चार एकड़ जमीन के एक हिस्से पर बाँस की खेती शुरू कर दी थी। बाँस की भरपूर उपज ने उन्हें न सिर्फ आमदनी का एक अतिरिक्त साधन उपलब्ध कराया बल्कि स्थानीय साहूकार की रिश्वत से छूटने में भी मददगार बनी। पहले वह धान की फसल उगाने के लिए ऋण लिया करते थे। अब भी वह आधे एकड़ में धान बोते हैं जिससे उनका साल भर का भोजन चल जाता है। खेत में उगने वाले बाँस को बेचकर वह अपनी वित्तीय जरूरत पूरी कर लेते हैं। यही कहानी है मणिपुर के बाँस किसान मुकुल मितेई की। वह भी पिछले 5 वर्षों से बाँस उगा रहे हैं। बाँस की कीमत बढ़ रही है और इसे ‘अजूबा फसल’ कहा जा रहा है। इसकी खास देखभाल करने की भी जरूरत नहीं पड़ती। यही कारण है कि बाँस की खेती अब खासतौर से पूर्वोत्तर राज्यों में लोकप्रिय होती जा रही है।

सरकार बाँस की खेती को प्रोत्साहित कर रही है और पूर्वोत्तर के राज्य बाँस की उपज खूब बढ़ाने की स्थिति में आ गए हैंपूर्वोत्तर राज्यों में बाँस का इस्तेमाल अतिरिक्त निर्माण सामग्री के रूप में किया जाता है। इसे घरेलू वस्तुएँ बनाने, हस्तशिल्प के उत्पाद तैयार करने, कागज बनाने, मछली-पालन, परिवहन आदि में भी इस्तेमाल किया जाता है। भारत में दुनिया के कुल बाँस उत्पादन के 43 प्रतिशत की पैदावार होती है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश भर में बाँस की 136 किस्में पाई जाती हैं। इनमें से 89 किस्में पूर्वोत्तर क्षेत्र में मिलती हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था में बाँस का बहुत महत्त्व है। असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम और त्रिपुरा इसके गढ़ माने जाते हैं।

त्रिपुरा सरकार के आँकड़ों के अनुसार राज्य के कुल वन क्षेत्र 834 वर्ग किलोमीटर (15 प्रतिशत) पर बाँस उगता है। अनुमान है कि लगभग 3 लाख गरीब परिवार बाँस की खेती पर निर्भर है। एक अनुमान के अनुसार त्रिपुरा में हर वर्ष 25-30 करोड़ रुपए मूल्य के बाँस का व्यापार होता है। राज्य के बाँस मिशन ने अगले कुछ ही वर्षों में इसे बढ़ाकर 75-85 करोड़ रुपए तक पहुँचा देने का लक्ष्य रखा है।

एक अनुमान के अनुसार देश के एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर बाँस के वन हैं। यह क्षेत्र भारत के कुल वनक्षेत्र के 13 प्रतिशत के बराबर है। भारत में बाँस के वन सर्वाधिक हैं। देश के कुल बाँस का 2/3 भाग पूर्वोत्तर राज्यों से आता है। इस क्षेत्र में कुल बाँस उत्पादन का 67 प्रतिशत बाँस पैदा होता है। बाँस पूर्वोत्तर राज्यों की संस्कृति और परम्पराओं में रचा-बसा है। इस क्षेत्र की 70 प्रतिशत श्रमिक आबादी बाँस पर निर्भर है।

वनस्पतिशास्त्र की नजर से देखें तो बाँस को घास वर्ग में सदाबहार पौधों की कोटि में गिना जाता है और यह गरीबों की इमारती लकड़ी की आवश्यकता पूरी करता है। दुनिया भर में बाँस की 1,200 किस्में और 91 वर्ग हैं। यह विभिन्न प्रकार की जलवायु— ठण्डे पहाड़ों से लेकर ऊष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में उगता है। बाँस की कोंपलें खाई जा सकती हैं और चीन तथा इण्डोनेशिया के सुपर बाजारों में इन्हें तरह-तरह के रूपों में बिकते देखा जा सकता है। पूर्वोत्तर भारत में भी बाँस की कोंपलें आदिवासी लोगों में सब्जियों की तरह लोकप्रिय हैं।

संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (यूनीडो) के अनुसार अगले एक दशक में पूर्वोत्तर राज्यों में बाँस आधारित व्यापार 5,000 करोड़ रुपए से अधिक का हो जाएगा। देश के राष्ट्रीय बाँस टेक्नोलॉजी मिशन एवं व्यापार विकास मिशन को उम्मीद है कि 2015 तक भारत का बाँस व्यापार बढ़कर साढ़े पाँच अरब अमेरिकी डॉलर का हो जाएगा।

भारत में दुनिया के कुल बाँस उत्पादन के 43 प्रतिशत की पैदावार होती है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश भर में बाँस की 136 किस्में पाई जाती हैं। इनमें से 89 किस्में पूर्वोत्तर क्षेत्र में मिलती हैं।बाँस की खेती में लगे किसानों का कहना है कि यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। चूँकि बाँस की अर्थव्यवस्था अधिकांशतः असंगठित है, अतः वह विधिवत विकास के कारण शीघ्र बढ़ेगी और उसी प्रकार विकसित होगी जैसाकि मिशन का अनुमान है। मिशन ने एक कार्य योजना लागू करने का कार्यक्रम बनाया है जिसके अनुसार बाँस को रोजगार सृजन का प्रमुख साधन बनाया जाएगा। इसकी खेती से पर्यावरण में सुधार आएगा और पूर्वोत्तर राज्यों के बाँस आधारित उद्योगों में वृद्धि होगी और हस्तशिल्प का खासतौर से विकास हो सकेगा। इससे पहले, इसी वर्ष यूनीडो ने पूर्वोत्तर राज्यों में बाँस व्यापार बढ़ाने पर दो अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की वचनबद्धता जाहिर की थी। इसे हस्तशिल्प, निर्माण सामग्री और निर्यात को बढ़ावा देने की योजनाओं पर लगाया जाएगा।

भारत में दुनिया के कुल बाँस के 30 प्रतिशत बाँस संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद विश्व के कुल बाँस व्यापार में भारत का भाग मात्र 4 प्रतिशत है। जापान, चीन और मलेशिया के मुकाबले कम उत्पादकता (लगभग 04 टन प्रति हेक्टेयर) के कारण भारत का हिस्सा कम है। इसका कारण है कम विकसित टेक्नोलॉजी और इस उद्योग का असंगठित होना। जापान, चीन और मलेशिया का इस व्यापार में हिस्सा लगभग 80 प्रतिशत है।

यूनीडो इससे सम्बद्ध अपने संसाधन समझौते को सुकर बनाने में भूमिका निभाने वाले असम के केन एवं बम्बू टेक्नोलॉजी केन्द्र की मार्फत लगा रहा है। इस समझौते के कारण इस क्षेत्र को नवीकरणीय ऊर्जा और चमड़ा शोधन जैसे क्षेत्रों में विशेष सेवाएँ दी जा रही हैं।

हाल के वर्षों में बाँस की माँग बढ़ी हैं। देश-विदेश में इसे फर्नीचर उद्योग में कच्चे माल के तौर पर देखा जा रहा है। इसका इस्तेमाल लकड़ी की जगह इस्तेमाल किए जाने वाले पैनल बोर्ड और निर्माण उद्योग में बढ़ रहा है। सब्जी के रूप में भी इसकी खपत हो रही है। चीन ने इसके बारे में नये-नये शोध किए हैं जिसके कारण 1970 के बाद इसकी उत्पादकता लगभग दस गुना बढ़ गई है। पहले इसकी वार्षिक उपज मात्र 2-3 टन प्रति हेक्टेयर होती थी। वर्तमान में चीन बाँस और इसके उत्पादों के निर्यात से साढ़े 5 अरब अमेरिकी डॉलर कमा रहा है।

भारत में दुनिया के कुल बाँस के 30 प्रतिशत बाँस संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद विश्व के कुल बाँस व्यापार में भारत का भाग मात्र 4 प्रतिशत है।राष्ट्रीय बाँस मिशन एक केन्द्र प्रायोजित योजना है। इसका सारा खर्च केन्द्र सरकार उठाती है। 2000-09 में राज्यों को 84 करोड़ रुपए आवण्टित किए गए जिसमें से 44 करोड़ रुपए पूर्वोत्तर राज्यों के लिए थे। इस मिशन का प्रमुख जोर क्षेत्र विशिष्ट बाँस की खेती और बाँस आधारित उत्पादों की निर्यात वृद्धि पर है। इसके जरिये रोजगार सृजन और कौशल विकास पर भी जोर दिया जाता है।

इसके साथ ही, पूर्वोत्तर राज्यों में 15 वर्ष का एक मास्टर प्लान भी शुरू किया गया। इसका नाम ‘पूर्वोत्तर क्षेत्रीय बाँस मिशन’ रखा गया है। इसका प्रमुख उद्देश्य गरीबी मिटाना और क्षेत्र के वन संसाधनों की रक्षा करना है।

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि जैसे-जैसे पूर्वोत्तर में बाँस की खेती बढ़ रही है, बाँस के फूलने का खतरा भी बढ़ सकता है। इससे पूर्वोत्तर क्षेत्र में बाँस की फसल बर्बाद हो सकती है, चूहों की संख्या बढ़ने के कारण भी इस पर असर पड़ सकता है। चूहों की बढ़ती संख्या से इस क्षेत्र में प्रचलित ‘झूम’ खेती पर असर पड़ सकता है। अनाज उपजाने के लिए यहाँ के लोग अभी भी यही तरीका अपनाते हैं। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में खाद्य सुरक्षा की समस्या पैदा हो सकती है।

केन्द्रीय कृषि मन्त्री शरद पवार ने बाँस मिशन की समीक्षा करते हुए कहा था कि अगर इन उत्पादों को ग्रामीण सड़कों और जलमार्गों के जरिये ढोने की सुविधा मिले, तो बाँस की फसल को तेजी से मण्डियों तक ले जाया जा सकता है। कृषि मन्त्री ने यह भी कहा था कि असम और अन्य राज्यों में बाँस की अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने की जरूरत है।

धरती का तापमान बढ़ने की एक बुनियादी वजह है ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ना एवं कार्बन डाइऑक्साइड भी इसका एक घटक है। बाँस इस गैस का एक असरदार तोड़ हो सकता है।अब जब कि दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन पर बहस छिड़ी हुई है, बाँस की खेती इसका एक उपयुक्त समाधान प्रस्तुत कर सकती है। धरती का तापमान बढ़ने की एक बुनियादी वजह यह है कि ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है और कार्बन डाइऑक्साइड भी इसका एक घटक है। यह जानना आश्चर्यजनक हो सकता है कि बाँस इस गैस का एक असरदार तोड़ हो सकता है। बाँस 35 प्रतिशत ऑक्सीजन छोड़ सकता है। अनेक रिपोर्टों में कहा गया है कि बाँस प्रतिहेक्टेयर 12 टन तक कार्बन शमन की क्षमता रखता है। अतः यह इन गैसों का सामना करने में इस्तेमाल किया जा सकता है। यही नहीं, 90 प्रतिशत से ज्यादा बाँस कार्बन से टिकाऊ उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं। ये ज्यादा दिन चलने वाले होते हैं। अतः अधिक दिनों तक कार्बन से बचाव कर सकते हैं। इसका इस्तेमाल खनिज ईन्धन के विकल्प के रूप में भी हो सकता है।

भारत में और विशेष रूप से पूर्वोत्तर राज्यों में बाँस का बहुत इस्तेमाल होता है और अगर केन्द्र एवं राज्य सरकारें बाँस व्यापार बढ़ाने के लिए मिलकर काम करें तो अगले कुछ वर्ष इस क्षेत्र के किसानों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। (लेखक दिल्ली स्थित पत्रकार हैं)ई-मेलः sandipdas2005@gmail.com

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