बांधों से आई बाढ़ की आफत

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आजकल बाढ़ प्राकृतिक होने की बजाय मानव निर्मित ज्यादा दिखाई देने लगी है। बाढ़ से बचने के लिए हमें नदियों के जल-भराव, भंडारण, पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा करना होगा। पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ पेड़ों को कटने से बचाना तथा नए पेड़ लगाना होगा। यही पेड़ पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते हैं। हमें मिट्टी-पानी के संरक्षण वाली जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए क्योंकि रासायनिक खेती से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो जाती है। ऐसे उपायों को अपनाएंगे तभी बाढ़ नियंत्रण हो पाएगा।

पिछले कुछ दिनों से मध्य प्रदेश के होशंगाबाद और हरदा जिले बाढ़ की चपेट में हैं। कई गांव जलमग्न हैं और खेत की फसलें डूब गई हैं। कई गांवों से संपर्क टूट गया है। पर यह बाढ़ प्राकृतिक होने की बजाय मानव निर्मित ज्यादा दिखाई देती है। तवा-बरगी बांध के गेट खोलने और इंदिरा सागर बांध के बैक वॉटर और नदी-नालों के स्वाभाविक बहाव को रोकना ही इस बाढ़ के कारण बताए जा रहे हैं। होशंगाबाद जिले में कुछ दिनों से लगातार बारिश से नदी-नालों का जलस्तर बढ़ गया है। नर्मदा भी उफान पर हो गई। इससे होशंगाबाद की निचली बस्तियों व आसपास के गांवों में पानी भर गया। इसी प्रकार हरदा जिले का भी बड़ा हिस्सा बाढ़ की चपेट में आ गया। हरदा शहर में अजनाल नदी का पानी निचली बस्तियों में भर गया। जिले की टिमरन, कालीमाचक, गंजाल, हंडली, सदानी, आदि नदियों में बाढ़ के कारण कई गांव इससे घिर गए। इस बीच खबर है इंदिरा सागर और सरदार सरोवर बांध के कई गांव बाढ़ की चपेट में आ गए हैं। डूब के खिलाफ उनका कई दिनों से जल सत्याग्रह चल रहा है।

पानी के अध्ययन में लंबे अरसे से जुड़े रहमत कहते हैं कि पहले बांध का एक फायदा बाढ़ नियंत्रण बताया जाता है लेकिन वही बांध बाढ़ के कारण बन गए हैं। बांधों से बाढ़ नियंत्रण तभी संभव है जब बांधों को खाली रखा जाए लेकिन यह तो नहीं हो सकता। इसलिए जब बारिश होती है, तब नदी-नाले उफान पर होते हैं और बांध भी लबालब होते हैं, इसलिए बाढ़ की स्थिति निर्मित होती है। आपदा प्रबंधन के काम में लगे सामाजिक कार्यकर्ता विमल जाट कहते हैं कि जब से इंदिरा सागर बांध बना है तब से बाढ़ का खतरा बढ़ गया है और इससे न केवल ग्रामीण बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी दहशत व्याप्त है। उनका मानना है कि तवा-बरगी बांध का पानी छोड़ना और इंदिरा सागर का बैक वॉटर ही इस कारण का प्रमुख कारण माना जा सकता है। फिर नदी तटों के पेड़-पौधे भी नहीं हैं, जो पानी रोकते थे।

कुछ साल पहले ओडिशा में आई बाढ़ ने भयानक तबाही मचाई थी। वह बाढ़ भी हीराकुंड बांध से छोड़े गए पानी को बताया गया था। देश में ऐसे कई छोटे-छोटे बांध हैं, जिनसे समय-असमय पानी छोड़ा जाता है, जिसके चलते उन इलाकों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बांध के निचले भागों की फसल नष्ट हो जाती है और लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। यानी जो बांध कभी बाढ़ नियंत्रण के उपाय बताकर बनाए गए थे, वही अब बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। इसके अलावा, नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को अवरुद्ध करने, उनके किनारों पर अतिक्रमण करने और जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी बाढ़ की स्थिति पैदा करती हैं। कुछ बरस पहले मुंबई में बाढ़ का प्रमुख कारण वहां की मीठी नदी के रास्ते को बदलना और उसके बीचों-बीच व्यावसायिक परिसर का निर्माण करना था।

बाढ़ प्राकृतिक न होकर मानव निर्मित हो गई हैबाढ़ प्राकृतिक न होकर मानव निर्मित हो गई हैसतपुड़ा अंचल के साहित्यकार कश्मीर उप्पल का कहना है कि पहले नदियों की बाढ़ के साथ जो मिट्टी आती थी, वो हमारे खेतों को उपजाऊ बनाती थी, लेकिन अब हमें रासायनिक खादों के कारण उसकी जरूरत रही नहीं। अब बाढ़ कहर ढाती है। इसका बड़ा कारण हमने छोटे-छोटे नदी-नालों के बहाव को रोक दिया है। इसलिए थोड़ी भी बारिश होती है तो शहरों में पानी भर जाता है। इटारसी शहर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा जबसे यहां कांक्रीट की बडे़-बड़े भवन और इमारतें खड़ी हुई हैं तबसे यहां बाढ़ आने लगी है। हम ही बाढ़ के रास्ते में आ गए हैं। वो तो बरसों से आती रही है लेकिन इतनी तबाही पहले कभी नहीं हुई। न ही शहरों में इतना पानी भरा।

बाढ़ के लिहाज से सबसे आशंका वाले उत्तर बिहार की कई नदियां, जो ज्यादातर हिमालय से निकलती हैं, के पानी के सहेजने के परंपरागत ढांचे यानी तालाब, बंधान, कुएं, बावड़ी सब खत्म हो गए हैं, इसलिए वहां बाढ़ का कई गुना खतरा बढ़ गया है। इसी प्रकार सतपुड़ा से निकलने वाली नदियों में बाढ़ का कारण यही माना जा सकता है। मंथन अध्ययन केंद्र से जुडे़ रहमत कहते हैं कि बाढ़ का एक कारण और है और वह कैचमेंट एरिया का प्रवाह इंडेक्स कम होना। यानी जो घना जंगल था, वो कम हो गया। जंगल ही बारिश के पानी के प्रवाह को कम रखते थे या रोकते थे। अब जंगल कम हो गया इसलिए सीधे बिना रूके सरपट पानी खेतों व गांवों में चला आता है। इसके अलावा, रासायनिक खेती भी एक कारण है। यह खेती मिट्टी की जलधारण क्षमता को कम कर देती है। उसमें पानी पीने या जज्ब करने की क्षमता कम हो जाती है।

पहले सूखा और बाढ़ की स्थिति कभी-कभार ही उत्पन्न हुआ करती थी। अब यह समस्या लगभग नियमित और स्थायी हो गई है। हर साल सूखा और बाढ़ का कहर हमें झेलना पड़ रहा है। सूखा यानी पानी की कमी। अगर पानी नहीं है तो किसानों को भयानक सूखा का सामना करना पड़ता है। इस संकट को भी किसानों को लगभग सहना पड़ता है। दूसरी ओर बाढ़ से भी भयंकर स्थितियों का सामना करना पड़ता है। सिर्फ बाढ़ ही नहीं, सूखे की स्थिति भी मानव निर्मित है। लगातार जंगल काटे जा रहे हैं। ये जंगल ही पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। वे ही नहीं रहेंगे तो पानी कम होगा ही। नदियां भी सूख रही हैं। सतपुड़ा की दुधी, पलकमती, तवा, देनवा, मछवासा, सींगरी, शक्कर आदि जैसी बारहमासी नदियां अब बरसाती नाले बन गई हैं। उनकी भी यह स्थिति इसलिए है क्योंकि एक जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश होना कम हुई है। दूसरा हमने नदियों के तटों के किनारे के पेड़-पौधे व हरी घास को नहीं छोड़ा है। हरी घास भी ओंस को अपने में समा लेती थी। नदियों की रेत,जो पानी को जज्ब करके रखती थी, उसे उठा लिया है और यह सिलसिला जारी है। इसलिए अब नदियां दिनोंदिन सूखती जा रही है। यानी कभी बाढ़ तो कभी सूखा संकट का कारण बना हुआ है।

मानव निर्मित बाढ़ से हो रहा नुकसानमानव निर्मित बाढ़ से हो रहा नुकसानयह तो हुई भू-पृष्ठ की बात। इसके अलावा, भूजल को पानी भी हमने अंधाधुंध तरीके से नलकूपों से उलीच लिया है। हरित क्रांति के नाम से लाए गए प्यासे बीजों की फसलों ने हमारा भूजल पी लिया। इनकी वजह से कई इलाकों में भूजल का स्तर नीचे चला गया और टाइम बम की तरह और नीचे चला जा रहा है। सूखे की वजह से गांवों से शहरों की ओर लोग भागते हैं पर बाढ़ में तो भागने का मौका भी नहीं मिलता। पिछले साल हरदा जिले में ही एक बुजुर्ग पानी में बह गया था। हर साल बाढ़ से लोग मरते हैं। उनकी फसलें जलमग्न हो जाती हैं। कई गांवों से संपर्क टूट जाता है। प्रशासन फौरी तौर पर राहत वगैरह की घोषणा करता है, कहीं कुछ देता भी है।

सिनर्जी संस्था के विमल जो आपदा प्रबंधन से जुड़े हैं, का कहना है बाढ़ से निपटने की पूर्व तैयारी होनी चाहिए। कहने को तो आपदा प्रबंधन का ढांचा राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला स्तर तक है लेकिन वह व्यवस्थित ढंग से काम नहीं करता। प्रशासन की पहुंच शहरी क्षेत्रों तक ही है, सुदूर अंचल तो राहत से वंचित रह जाता है। इसके अलावा, स्थायी उपायों की ओर भी काम करना चाहिए। नदी तटों के किनारे वृक्षारोपण, सुदूर गांवों के लोगों के लिए अनाज रखने के लिए गोदाम जैसे प्रयास भी किए जाने चाहिए। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बाढ़ पीड़ितों को राहत पैकेज देने जैसे फौरी उपायों के अलावा इसे रोकने के स्थायी उपायों की ओर बढ़ना चाहिए जिससे ऐसा ढांचा विकसित हो जिसमें बाढ़ की विभीषिका को कम किया जा सके। पहले भी बाढ़ आती रही है, पर समाज से इससे अपनी बुद्धि और कौशल से निपटता रहा है। लेकिन हम उन तरीकों को भुला दिया है। परंपरागत ढांचों को खत्म कर दिया।

इसलिए हमें नदियों के जल-भराव, भंडारण और पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा करना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। पेड़ों को कटने से बचाना चाहिए और नए पेड़ लगाना चाहिए। क्योंकि यही पेड़ पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण वाली जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए, क्योंकि रासायनिक खेती से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो जाती है। ऐसे उपायों को अपनाएंगे तभी बाढ़ नियंत्रण हो पाएगा वरना सिर्फ खबरिया चैनलों पर बाढ़ की खबर से हम बेखबर हो जाएंगे और बाढ़ की समस्या बनी रहेगी।

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