बांध की लागत

भारत और नेपाल के बीच बिजली की खरीद-बिक्री का अभी तक कोई समझौता नहीं हुआ है यहाँ तक कि बांध से पैदा होने वाली बिजली की क्या लागत आयेगी वह भी फिलहाल अनुमान से परे है। सीमा पार से जिस तरह के संकेत मिलते हैं और वहाँ की पत्रा-पत्रिकाओं में जो कुछ पढ़ने को मिलता है उसके अनुसार इन बांधों से नेपाल में जो बिजली पैदा होगी उसकी उपभोक्ता को वही कीमत चुकानी पड़ेगी जो एक आम अमरीकी नागरिक अपने यहाँ अदा करता है।

इस बांध की लागत वर्ष 1958 में ही 22,700 करोड़ रु. आँकी गई थी। बांध निर्माण पर होने वाला खर्च शायद एक और कारण है जिसकी वजह से इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पा रही है। फिलहाल इन बांधों के निर्माण का खर्च उठा पाना भारत या नेपाल के बस की बात नहीं दिखती। पिछले दशक में नर्मदा घाटी, टिहरी और सुवर्णरेखा जैसे बांधों से वित्तीय संस्थाओं के हाथ खींचने से सरकार के सामने इस तरह के निर्माण कार्यों के लिए दुविधा की स्थिति पैदा हो गई थी। ऐसा कहा जाता है कि बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बांध निर्माणकर्ताओं ने एक समय नेपाल से अपने निवेश पर लाभांश की गारन्टी मांगी थी यानी उसकी बिजली बिके न बिके, इस कम्पनियों की निश्चित आमदनी का आश्वासन उसे देना पड़ेगा।

नेपाल ऐसा आश्वासन देने की स्थिति में नहीं है। इस तरह से इन योजनाओं के लिए धन मुहैया करना नामुमकिन हो जाता है और बिना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के यह काम बहुत ही मुश्किल होगा। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने के लिए यह जरूरी होगा कि दाता संस्थाएं योजना से होने वाले लाभ के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हों। बाजार व्यवस्था की हालत अब यह हो चली है कि दाता संस्थाएं चाहेंगी कि बाढ़ नियंत्रण जैसे लोक कल्याण मूलक कामों की भी कीमत तय की जाय और इसे लाभार्थियों से वसूल किया जाय। सिंचाई के लिए मिलने वाले पानी की भी उसी तरह से व्यावसायिक दर निश्चित हो।

यह सारी बातें किसानों को समझाने में सरकार को निश्चित रूप से दिक्कतें पेश आयेंगी। भारत और नेपाल के बीच बिजली की खरीद-बिक्री का अभी तक कोई समझौता नहीं हुआ है यहाँ तक कि बांध से पैदा होने वाली बिजली की क्या लागत आयेगी वह भी फिलहाल अनुमान से परे है। सीमा पार से जिस तरह के संकेत मिलते हैं और वहाँ की पत्रा-पत्रिकाओं में जो कुछ पढ़ने को मिलता है उसके अनुसार इन बांधों से नेपाल में जो बिजली पैदा होगी उसकी उपभोक्ता को वही कीमत चुकानी पड़ेगी जो एक आम अमरीकी नागरिक अपने यहाँ अदा करता है।

अब कहाँ एक औसत अमरीकी नागरिक की आमदनी और कहाँ भारत तथा नेपाल के गरीब लोग? वैसे भी उदारीकरण के इस दौर में अब सरकारें बांध निर्माण क्षेत्र से बाहर निकल रही हैं और उनकी जगह बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ले रही हैं। यह संकट एक अलग किस्म का है और इस पर अलग से चर्चा की जरूरत है।

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Post By: tridmin
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