बांध की भेंट चढ़ते गांव


देश को रोशन करने के लिए बनाए गए एशिया के सबसे बड़े बांध टिहरी में अभी न जाने कितने और गांवों की बलि चढ़ेगी। इस प्रश्न का उत्तर न तो शासन-प्रशासन के पास है और न ही टिहरी बांध का निर्माण करने वाली संस्था टीएचडीसी के पास। टिहरी जल विद्युत परियोजना शुरू होने और नई टिहरी में विस्थापितों को बसाये जाने के बाद भी गांवों के उजड़ने का सिलसिला रुका नहीं है। यहां के ग्रामीणों के लिये ना पुनर्वास की व्यवस्था है ना ही किसी तरह के मुआवजे की। उत्तराखण्ड में हाल में हुई भारी बारिश से टिहरी का जल स्तर ८३१ मी. तक पहुंच गया। स्थिति इतनी भयावह हो गई कि बांध से पानी छोड़ना पड़ा। हरिद्वार, रुड़की समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों में इसका असर देखने को मिला। टीएचडीसी कुंभकर्णी नींद सोया रहा और बांध का पानी कई गांवों में द्घुस गया। खेती-बाड़ी, मकान सब पानी में डूब गये। अब पुनर्वास योजना से बाहर रखे हुये गांव खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। टीएचडीसी इसके बाद भी मदद के लिये आगे नहीं आया। प्रदेश के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने जरूर लोगों को पुनर्स्थापित करने का आश्वासन दिया। इस सबके बाद एक बार फिर ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या बड़े बांध राज्य के लिये हितकर हैं।

टिहरी बांध से छोड़े गये पानी से देवप्रयाग समेत तमाम पहाड़ी और मैदानी क्षेत्र जलमग्न हो गये। अब एक नया संकट आ खड़ा हुआ है। लगातार बढ़ते जलस्तर के कारण झील से सटे गांवों पर भू-स्खलन का खतरा पैदा हो गया है। पहले ही विस्थापन और आपदा का दंश झेल चुके ग्रामीण अब अपने अस्तित्व को लेकर संकट में हैं। टिहरी के प्रतापनगर प्रखंड से लेकर कोटेश्वर बांध तक सभी जगह बांध ने विनाश का ही कार्य किया है। प्रतापनगर प्रखंड के दर्जनों गांव इससे प्रभावित हुए हैं वहीं टिहरी बांध के पानी से कोटेश्वर बांध भी पूरी तरह ठप हो गया। गौरतलब है कि टिहरी बांध के पास एक ही सुरंग है, जिससे पानी को कोटेश्वर बांध में छोड़ा जा सकता है। लेकिन इसकी भी अधिकतम क्षमता मात्र ११८० क्यूसेक है।

अब ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों टीएचडीसी ने समय पर और सुरंगों का निर्माण नहीं किया। टीएचडीसी की खामियों के चलते ग्रामीण दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं। झील से सटे चौंधार, नकोट, कंगसाली समेत दर्जनों गांवों में भूस्खलन शुरू हो गया है। भवन दरकने के साथ-साथ उनमें दरारें आनी भी शुरू हो गयी हैं। जिससे ग्रामीणों पर हर समय मौत का साया बना हुआ है, वहीं आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति न होने से अब इन क्षेत्रों में भुखमरी की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में टीएचडीसी के राहत और पुनर्वास कार्यक्रमों की सच्चाई भी सामने आती है। पिछले दो दशकों से अति संवेदनशील द्घोषित बांध प्रभावित गांव रौलाकोट का विस्थापन न हो पाना भी उसके पुनर्वास के दावों की पोल खोलता है। प्रतापनगर प्रखंड के न्याय पंचायत भैनगी के अंतर्गत आने वाले इस गांव के २६० परिवारों को वर्ष १९९० से ही बांध विस्थापित की श्रेणी में रखा गया था।

भूगर्भवैज्ञानिकों ने इसे अति संवेदनशील बताया था। दो दशक बीत जाने के बाद भी टीएचडीसी महज ३० परिवारों को ही विस्थापन सूची में दर्ज कर सका है। उन्हें भी सिर्फ कागजों पर ही मुआवजा दिया गया है। २००१ में ग्रामीणों ने पुनर्वास के लिये आंदोलन भी किया पर उन्हें जेल भेज आंदोलन को समाप्त करवा दिया गया। २००८ में रुड़की के भू- वैज्ञानिकों ने झील के कारण इस गांव पर खतरा बताया। सुरक्षा के लिहाज से पूरे गांव का विस्थापन किया जाना चाहिये था। पर टीएचडीसी ने इस ओर कोई पहल नहीं की। नतीजतन यहां के ग्रामीण मौत के मुहाने पर जीने को मजबूर हैं। झील बनने के बाद से ही यह गांव तीन ओर से पानी से द्घिरा हुआ है। इसकी स्थिति टापू जैसी है। ग्रामीणों को आने जाने के लिये नाव का सहारा लेना पड़ता है। गांव के उपप्रधान अरविन्द नौटियाल आरोप लगाते हैं कि टीएचडीसी प्रबंधन उन्हें बांध प्रभावित की जगह आपदा प्रभावित के तहत पैसे लेकर गांव छोड़ने को कह रहा है। इस प्राकूतिक आपदा के बाद भी टीएचडीसी का रवैया कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं रहा है।

टिहरी बांध से छोड़े गये पानी के कारण मैदानी क्षेत्रों में आई विपदा पर टीएचडीसी का कहना है कि हरिद्वार या मैदानी क्षेत्रों में अधिकांश पानी अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों से आता है। भागीरथी का योगदान इसमें कम है। यहां यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट तौर पर कहा था 'यदि टिहरी जलाशय में जल स्तर ८३० मीटर या उसके आसपास पहुंचने के आसार हों तो छह माह पूर्व ही बचाव संबंधी कार्यवाही की जानी चाहिए।' यह आदेश २५ सितम्बर २००८ तथा ३० अप्रैल २००९ को दिया गया था। उस समय परियोजना प्रबंधन ने अदालत को जानकारी दी कि राहत और पुनर्वास की व्यवस्था की गई है। पर आज स्थिति और भयावह है। अब अगर झील में पानी बढ़ता है, तो इसमें डूबने वाले गांवों की संख्या में इजाफा होना तय है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में ये भी कहा गया है कि टिहरी परियोजना संबंधी तमाम कार्य प्रणाली पर केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन विभाग नजर रखेगा। ठीक ऐसा ही आदेश २९ अक्टूबर २००५ को नैनीताल हाईकोर्ट ने भी दिया था।

लेकिन इन आदेशों का कितना अनुपालन हुआ वह इस आपदा के बाद देखने को मिल गया। बांध प्रभावितों के पुनर्वास और राहत की जिम्मेदारी राज्य सरकार और टीएचडीसी की बनती है। लेकिन दोनों ही बांध के जल स्तर को लेकर विवादों में उलझे रहे। बाद में मुख्यमंत्री ने मदद का आश्वासन दिया। यह टीएचडीसी का गैर जिम्मेदाराना रवैया ही है कि अभी भी वह बांध से छोड़े गए पानी से डूबे गांवों के प्रति नकारात्मक रुख अपनाए हुए है। छाम, नकोट, मोटणा, कंगसाली, पलापू समेत दर्जनों गांव और परिवार कभी भी डूब क्षेत्र में आ सकते हैं। इन परिवारों के सामने अब सबसे बड़ी समस्या द्घर और आजीविका की आ खड़ी हुई है।
 

 

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