तटबंध बाढ़ से होने वाली तबाही को रोकता है या परेशानी का सबब बनता है, यह बहस का मुद्दा है लेकिन इस बात पर कोई संदेह नहीं कि नदियों में बाढ़ आने के साथ ही तटबंध की मरम्मत और तबाही की रोकथाम के नाम पर करोड़ो रुपये का वारा-न्यारा कर दिया जाता है। ठेकेदार, अफसर और सरकारी दलाल के गठजोड़ ने तटबंधों के जरिए उत्तर बिहार का पूरा परिदृश्य बदल कर रख दिया है। हालांकि इसका अर्थशास्त्र बताता है कि इससे जितना नुकसान हुआ, उतना तटबंध बनने से पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि तटबंधों का निर्माण क्यों? इसके जवाब में बिहार में एक दिलचस्प मुहावरा प्रचलित है, 'जिस साल बाढ़ नहीं आती, उस साल बिहार की राजनीति में सूखा पड़ जाता है।'
आजादी के बाद प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान तटबंधों की कुल लंबाई 160 किलोमीटर थी, जबकि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र था 25 लाख हेक्टेयर। फिलहाल तटबंधों की लंबाई बढ़कर 3,619 किलोमीटर हो गई है और बाढ़ प्रभावित इलाका बढ़कर करीब 70 लाख हेक्टेयर। जान-माल का गुणात्मक नुकसान हुआ सो अलग। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, तटबंधों के निर्माण के बाद करीब पांच करोड़ लोग बेघर हुए और करीब नौ हजार लोगों की डूबकर मौत हो गई। बाढ़-तटबंध और उससे उपजी तबाही की हकीकत यही है। ऐसी बात नहीं कि तटबंध के अर्थशास्त्र से सरकार अनजान है। योजना आयोग ने 1978 में ही एक अध्ययन किया था। उसका निष्कर्ष यही था, 'तटबंधों के निर्माण के दो दशक बाद भी कृषि के विकास में कोई तब्दीली नहीं आई। सुरक्षित क्षेत्र में मामूली इजाफा हुआ। पूर्वी तटबंध के बाहर, पांच किलोमीटर के दायरे में स्थायी जल-जमाव की वजह से खेती योग्य जमीन का रकबा घट गया। यही नहीं, यहां प्रति हेक्टेयर उपज में भी कमी आई. सिर्फ डाउन स्ट्रीम में मामूली बढ़त हुई।
इसके अलावा सुरक्षित क्षेत्र में बसे परिवारों की आमदनी में भी मामूली बढ़त देखी गई। ' रिपोर्ट के अनुसार,'...तटबंधों का निर्माण कार्य 1962 में हुआ। उस पर कुल खर्च 40.37 करोड़ रुपये खर्च हुए। हर साल उनकी मरम्मत आदि पर लगभग 10 लाख रुपये खर्च होते हैं, तो एक करोड़ से अधिक उसके रख-रखाव पर, लेकिन जैसे-जैसे तटबंध का विस्तार हो रहा है, वैसे-वैसे बाढ़ की आशंका वाले संवेदनशील स्थलों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। ' तटबंध विरोधी अभियान के प्रखर कार्यकर्ता रंजीव कहते हैं, 'यह 'पॉलिटिकल इकोनॉमी' से अधिक कुछ नहीं है। सबको पता है कि तटबंध तबाही का टीला है। इसके बावजूद राजनीतिक इच्छा शक्ति के मामले में लोग बेबस हैं। यह स्थायी समाधान नहीं है, इसे अस्थायी समाधान कहना बेहतर होगा। अगर यह समाधान होता तो तबाही का मंजर बढ़ता क्यों जाता?'
सीतामढ़ी जाएं तो बागमती नदी के किनारे गांवों में खिड़की तक बालू से अटे-पड़े कुछ दो मंजिले घर दिख जाएंगे। पूर्णिया से मधेपुरा जाएं तो सड़क को छूती हुई नदी मिल जाएगी। लोग बताएंगे कि वह कोसी की नई धारा है। यही नहीं, कोसी क्षेत्र में नौ लाख हेक्टेयर में सिर्फ जल-जमाव ही है। उत्तर प्रदेश और नेपाल की सीमा पर स्थित गंडक नदी तो बगहा शहर पर ही कहर बन रही है। हर साल वहां से लोग पलायन कर रहे हैं। सहरसा-नौहटा में बालू के बड़े-बड़े सिल्ट मिल जाएंगे। सिल्ट से खारापन बढ़ता जा रहा है, बावजूद इसके ट्रीटमेंट के लिए कुछ खास नहीं किया जा रहा। कलरव करते विदेशी पक्षियों ने अगर आपका मन मोह लिया तो यह समझने की कोशिश कीजिए कि कभी जहां कोई सभ्यता थी, वहां अब झील है। हालांकि झील नाम स्थानीय लोगों ने दिया है। बाढ़ की शब्दावली में कहें तो यह जल-जमाव क्षेत्र है।
दरभंगा के कुशेश्वर स्थान में कभी हरे-भरे खेत थे। आज वहां जल ही जल है। यहां कई गांव तो नक्शे से ही गायब हो गए। इसी तरह चंपारण के निकट नगदाहा और कोयरपट्टी गंडक तटबंध के निकट के कुछ गांवों का पता बदल गया, जबकि हकीकत यह है कि यहां लोगों को बाढ़ से बचाने की कवायद आजादी के बाद ही शुरू हो गई थी।
इन सब तथ्यों से अलग एक और बात काबिले गौर है। बाढ़ के पानी ने कई नेता भी पैदा किए। ऐसे नेताओं को 'जल राजनीतिज्ञ' नाम दिया गया है। पूर्व मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने आधा दर्जन बार तब बांध पर कुदाल चलाई होगी, जब वह राजनीति का ककहरा सीख रहे थे। अपराध से राजनीति का सफर तय करने वाले पप्पू यादव का भी यही हाल है। पहले उन्होंने कोसी क्षेत्र में तटबंध का विरोध किया और बाद में उसी की ठेकेदारी शुरू कर दी। उसके बाद इसके विरोध में कोई संगठित स्वर नहीं उठा।
फिर कुसहा के लिए तैयार रहें: दिनेश मिश्र
आईआईटी खडग़पुर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के दिनेश मिश्र को बिहार में तटबंध आंदोलन के लिए ही जाना जाता है। अच्छी-खासी नौकरी छोड़ कर उन्होंने जल प्रबंधन को ही अपना जीवन मान लिया है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश:
क्या आप मानते हैं कि तटबंध सुरक्षा नहीं दे रहे?
मेरे मानने या न मानने से सच नहीं बदलने वाला। स्थितियां खुद सच्चाई बयां कर रहीं हैं। तटबंध बनते गए, बर्बादी बढ़ती गई।
सरकार ने फिर तटबंधों के निर्माण की घोषणा की है?
इसमें नया क्या है ! सभी सरकारें ऐसा करती आ रहीं हैं। तटबंध कितना उचित है, इस पर सरकार बहस तक में नहीं आना चाहती। खुल कर बहस होनी चाहिए। यह बड़ी समस्या है।
नेपाल किस हद तक दोषी है। उससे वार्ता भी जारी है?
इसमें नेपाल का क्या दोष है? वार्ता तो 1937 से ही जारी है। नेपाल से आने वाले पानी में तो सोना बहता है। बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर तटबंधों के निर्माण में पूंजी निवेश व्यर्थ है। हकीकत तो यह है कि हमारी सरकारें तटबंधों के निर्माण के नाम पर आने वाली पीढ़ी की तबाही के लिए सामान जमा कर रही हैं।
तटबंध, पीढ़ी की बर्बादी के सामान से अधिक कुछ नहीं हैं। उत्तर और पूर्वी बिहार के करीब 17 जिलों पर बाढ़ के खतरे की घंटी मानसून के आते ही बजने लगती है। सावन के बरसने से पहले ही नेपाल ने 72 हजार क्यूसेक पानी छोड़ कर जलग्रहण क्षेत्र के लाखों लोगों को भयाक्रांत कर दिया। गोपालगंज, बेतिया, मुजफ्फरपुर, सहरसा और कई अन्य जलग्रहण क्षेत्रों में पानी, तबाही का मंजर बन कर नाचने लगा। सरकारी अमला सक्रिय तो हुआ पर गोपालगंज के कुछ तटबंध टूट गए। बाढ़ से बचाने के लिए सरकार के पास एक ही उपाय है –तटबंध। यही वजह है कि सत्तारूढ़ नीतीश सरकार ने भी 1,600 किमी तटबंध निर्माण की घोषणा कर दी। विभाग को बाढ़ से जूझने के लिए निर्देश भी जारी कर दिए गए। यह अलग बात है कि तटबंध का विरोध भी शुरू हो गया है। पिछले दिनों कमला-बलान नदी पर बन रहे तटबंध का विरोध करते हुए लोगों ने ठेकेदारों को पीट कर भगा दिया। वैसे तो इस तरह के विरोध पहले भी हुए हैं, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। आलम यह है कि बाढ़ और तटबंध ने उत्तर बिहार का पूरा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है। अर्थव्यवस्था में भी गजब की तब्दीली हो रही है। पहले जहां चावल होता था, वहां अब मक्का और दलहन की खेती हो रही है। बिहार में बाढ़ और तटबंध की हकीकत जानने के लिए समय के पहिए को पीछे घुमाते हैं। घटना 1937 की है. डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आग्रह पर कोसी को बांधने के लिए पटना की सिन्हा लाइब्रेरी में एक बहस आयोजित की गई थी। बहस में अंग्रेज चीफ इंजीनियर कैप्टन हॉल भी मौजूद थे। उनके हाथों में अंग्रेजी का एक अखबार था। हेड लाइन की ओर इशारा करते उन्होंने अखबार को गुस्से से फेंकते हुए कहा था कि तटबंध बनाओगे तो यही होगा। हेडलाइन थी- चीन के ह्वांगहो का तटबंध ध्वस्त- हजारों डूबे, लाखों बेघर। 1952 में पूर्णिया के समाजवादी नेता ब्रह्मदेव मंडल ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को काला झंडा दिखाते हुए तटबंध संकल्पना की मुखालफत की थी। मधेपुरा के राम नारायण गुप्ता ने तो कोसी केनाल का विरोध करते हुए अपने खेतों के लिए उस नहर का पानी लेना बंद कर दिया और पानी के लिए बंबू बोरिंग का आविष्कार कर दिया जिसे बाद में लाखों लोगों ने अपना लिया। बाद में उसी बंबू बोरिंग ने उन्हें पद्मश्री तक की यात्रा कराई।
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