बाल मजदूरी

बच्चे जब कालीन पट्टी से लौट कर आते हैं तब उनके लिए अपने गांव या आस-पास में पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने या फिर अगर दूसरा काम ही खोजना पड़ जाय तो उसकी व्यवस्था नहीं होती। परिवार की आर्थिक स्थिति पर दबाव पड़ता है और इन बच्चों को बड़े लोगों के साथ खेतों में काम करना पड़ता है जिसका असर बड़े लोगों की मजदूरी पर भी पड़ता है और उसकी दर घटती है। एक दूसरी कड़ी जो कि जीविका, रोजगार और स्कूल से बच्चों के विमुख होने को जोड़ती है वह बाल मजदूरी की समस्या है। कोसी-कमला का क्षेत्र दूर-दूर तक कालीन और शीशे के उद्योग में बाल मजदूरों की आपूर्ति करने के लिए सारे देश में कुख्यात है। इसलिए यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि मधुबनी जिले में मधेपुर जैसी प्रखण्ड स्तर की छोटी-छोटी-सी जगहों से उत्तर प्रदेश में भदोही जैसे कालीन के गढ़ के लिए सीधी सरकारी बसें चलती हैं। अब जबकि बाल मजदूरी के खिलाफ व्यापक आन्दोलनों के कारण वहां के कालीन उद्योग पर बच्चों को काम में लगाने के विरोध में आवाजें उठ रही हैं तो बच्चों का मिर्जापुर, इलाहाबाद, भदोही, वाराणसी और जौनपुर जाना कुछ कम हुआ है। इन शहरों से फैक्टरी मालिकों के दलाल इस क्षेत्र में आकर संभावित बाल मजदूरों के अभिभावकों से सम्पर्क करते थे।

सौदा पट जाने पर दलाल अभिभावकों को कुछ रकम दे देता था और बच्चों को लेकर उत्तर प्रदेश की कालीन पट्टी में चला जाता था। वहां इन बच्चों को बहुत ही कम ’वेतन’ पर लगभग एक साल तक ट्रेनिंग पर रखा जाता था। जब तक वह अपने ट्रेड में जरूरी हुनर नहीं पा जाते तब तक उनका वेतन निर्धारित नहीं होता था। दलाल यह नहीं चाहते थे कि अभिभावकों का उनके बच्चों से सम्पर्क हो मगर बताते हैं कि उन्हें बच्चे की कमाई का हिस्सा नियमित रूप से मिल जाया करता था। इस इलाके के सैकड़ों बच्चों की कालीन उद्योग से रिहाई के प्रयास किये गये हैं और रिहाई के बाद उन्हें दूसरे कामों में लगाने की कोशिशें बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं ने कीं यद्यपि इस काम में वांछित सफलता कभी नहीं मिली। देखें बॉक्स-बच्चों का शोषण कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है- घूरन महतो।

घूरन महतो के बयान में एक व्यावहारिक सच्चाई निहित है कि बाल मजदूरों का शोषण आसानी से खत्म होने वाली चीज नहीं है। यह हमारे समाज में काफी अन्दर तक बैठी हुई हकीकत है। बच्चे जब कालीन पट्टी से लौट कर आते हैं तब उनके लिए अपने गांव या आस-पास में पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने या फिर अगर दूसरा काम ही खोजना पड़ जाय तो उसकी व्यवस्था नहीं होती। परिवार की आर्थिक स्थिति पर दबाव पड़ता है और इन बच्चों को बड़े लोगों के साथ खेतों में काम करना पड़ता है जिसका असर बड़े लोगों की मजदूरी पर भी पड़ता है और उसकी दर घटती है।

इन बच्चों के लिए दूसरा विकल्प है कि वह शहर के होटलों या सड़क के किनारे के ढाबों में काम करें। यह काम भी किसी मायने में कालीन पट्टी की नौकरी से कम दुःख पहुंचाने वाला नहीं है। बच्चों को लेकर देश में छिट-पुट प्रयास तो जगह-जगह हुये हैं मगर इनके लिए सुचारु रूप से कोई आन्दोलनात्मक कार्यवाही नहीं हुई। जो कुछ भी हुआ वह है कालीन पट्टी से बच्चों को निकालने तक के लिए सीमित रह गया और उतना होने के बाद चारों तरफ शान्ति ही शान्ति है।

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Post By: tridmin
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