ऐसे देश में जहां प्यासे को पानी देना पुण्य का काम समझा जाता है, पानी का बाज़ारीकरण, निजीकरण, कंपनीकरण और स्थानांतरण वास्तव में हमारी सभ्यता को चुनौती है। आज हाल यह है कि कंपनियों की दखल के चलते बोतलबंद पानी गांव-गांव तक पहुंच गया है।
सन्- 2009 में विश्व जल मंच की बैठक में पानी को मौलिक अधिकार बनाने पर जोर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि दुनिया भर में पेयजल की लगातार कमी हो रही है, जबकि दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से विश्व जल मंच और पानी की कंपनियां, पानी को एक उपभोक्ता वस्तु की तरह देख रहे हैं। भारत में अभी 90 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। 3 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल कारखाने कर रहे हैं और 5 प्रतिशत पानी घरों में प्रयोग में लाया जाता है। अभी पिछले दिनों पानी से संबंधित भारत सरकार के दो दस्तावेज सार्वजनिक हुए हैं। एक है, राष्ट्रीय जलनीति- 2012 का मसौदा और दूसरा है, नेशनल वाटर फ्रेम वर्क का मसौदा। पहला दस्तावेज़ जल संसाधन मंत्रालय और दूसरा योजना आयोग की तरफ से आया है। इन दोनों का महत्व पानी के निजीकरण, बाज़ारीकरण, व्यापारीकरण और कंपनीकरण के संदर्भ में है। इनका महत्व इसलिए भी है कि ये मसौदे भारत सरकार के इस संदर्भ में अभी तक के आखिरी बयान हैं। इससे पूर्व दो बार और जल नीति आ चुकी है। इन सबकी जगह पर ही यह 2012 का संस्करण लाया गया है। इस जल नीति में पानी के बाजार का जिक्र किया गया है। जो प्रस्तावित वाटर फ्रेम वर्क एक्ट है, उसमें निजीकरण, बाज़ारीकरण, कंपनीकरण और पानी के बाजार जैसे शब्दों को परिभाषित किया गया है। प्रस्तावित जल नीति और प्रस्तावित कानून दोनों में ही व्यापारीकरण, बाज़ारीकरण, निजीकरण, कंपनीकरण का स्थान नियत है। कुछ समय पहले सरकार की चिंता थी कि साफ पेयजल हर गांव में पहुंचाना है, पर मौजूदा व्यवस्था ऐसी स्थिति का निर्माण कर रही है कि पानी, जो मानव मात्र का मूल अधिकार है, सामान्य रूप से ठीक से मिले न मिले, उसके बजाय बोतलबंद पानी हर कीं ज़रूर मौजूद रहे। आज का हाल यह है कि कंपनियों की दखल के चलते बोतलबंद पानी गांव-गांव तक पहुंच चुका है।
एक अनुमान के मुताबिक रोज़ाना देश में 10 लाख बोतल पानी की बिक्री होती है। एक लीटर बोतल वाले पानी की कीमत 12-14 रुपये हो चुकी है। यह साफ दिखाई दे रहा है कि बढ़ती कीमत के चलते पानी का अर्थशास्त्र आने वाला दिनों में ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों, आम नागरिकों के खिलाफ होने जा रहा है। उम्मीद यही की जा रही थी कि सरकार और सरकारी कंपनियां मिलकर निजी पानी कंपनियों के ऊपर लगाम लगाएंगी, लेकिन इसके उलट अब तो सरकारी क्षेत्र के उद्यम, जैसे कि भारतीय रेल, खुद पानी की बिक्री के धंधे में आ गए हैं। हमारी रेलों में रोज़ाना 50 मिलियन लोग यात्रा करते हैं और उसमें से एक बड़े प्रतिशत को बोतलबंद पानी खरीदने पर मजबूर होना पड़ता है। जाहिर है कि इस स्थिति को नहीं रोका गया तो सार्वजनिक क्षेत्र की अन्य कंपनियां और उद्यम भी बोतलबंद पानी बेचने ही लगेंगे।
जो सबसे नया आंकड़ा पानी को लेकर सामने आया है, उसके मुताबिक प्रतिदिन 740 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की मांग है। लेकिन भविष्य में यह मांग बढ़कर 1500 बिलियन क्यूबिक मीटर होने जा रही है। ऐसे में पेयजल ही क्या हर तरह की जरूरत के पानी की कीमत में इज़ाफा होने लगेगा। उद्योग और कृषि दोनों की ही लागत में भारी बढ़ोत्तरी होगी। अभी कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने पानी पर अपने विचार जाहिर करते हुए कहा कि पानी के अप व्यय का कारण है, उसकी कीमतों का कम होना। प्रधानमंत्री ने कहा कि कीमतें कम हैं, इसलिए कीमत वसूलने के लिए पानी पर सार्वजनिक अधिकार खत्म करके उसे निजी हाथों में देना होगा। प्रधानमंत्री आदतन हर समस्या से निपटने के लिए निजी कंपनियों के हस्तक्षेप पर बल देते रहे हैं।
ऐसा ही उन्होंने ऊर्जा क्षेत्र के लिए किया था। ऊर्जा और पानी क्षेत्र में चोली-दामन का साथ है, क्योंकि ऊर्जा उत्पादन पानी की उपलब्धता पर निर्भर है। चाहे पानी आधारित परियोजना हो, कोयला आधारित परियोजना हो या नाभिकीय परियोजना हो-सबके लिए पानी की उपलब्धता अनिवार्य है। विभिन्न क्षेत्र में पानी के बँटवारे को लेकर प्राथमिकताएं तय की गई हैं। इसमें पेयजल, कृषि, उद्योग आदि को प्राथमिकता देने की बात आती है। सच तो यह है कि पानी के प्रबंधन में अलोकतांत्रिकता गृहयुद्ध को निमंत्रण दे रही है। सरकार के शहर एवं उद्योग केंद्रित जल प्रबंधन को किसानों और खेती की कीमत पर किया जा रहा है। सभ्यता का इतिहास बताता है कि लगभग सभी शहरों की शुरुआत नदियों के किनारे हुई। लेकिन इन शहरों में नदियों और जल स्रोतों का इस प्रकार से दोहन करके उन्हें नष्ट किया गया है कि ये शहर पड़ोसी राज्यों के जल स्रोतों पर निर्भर हो गए हैं और उससे भी उनका काम नहीं चलता है तो दूरदराज के क्षेत्रों से भी नहरों आदि के जरिए अपने लिए पानी की आपूर्ति करते हैं।
सन्- 2009 में विश्व जल मंच की बैठक में पानी को मौलिक अधिकार बनाने पर जोर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि दुनिया भर में पेयजल की लगातार कमी हो रही है, जबकि दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से विश्व जल मंच और पानी की कंपनियां, पानी को एक उपभोक्ता वस्तु की तरह देख रहे हैं। भारत में अभी 90 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। 3 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल कारखाने कर रहे हैं और 5 प्रतिशत पानी घरों में प्रयोग में लाया जाता है। भारत में विश्व की जनसंख्या की 17 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन विश्व के केवल 4 प्रतिशत जल स्रोत ही भारत के पास है। भारत में जल एवं जल आधारित क्षेत्रों द्वारा 987 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी प्रति वर्ष इस्तेमाल होता है। इसका मतलब प्रति व्यक्ति 980 क्यूबिक मीटर पानी प्रतिवर्ष इस्तेमाल होता है। पानी का मामला सिर्फ पानी तक सीमित नहीं है। ऐसे देश में, जहां प्यासे को पानी देना पुण्य का काम समझा जाता रहा है, पानी का बाज़ारीकरण, निजीकरण, कंपनीकरण और स्थानांतरण वास्तव में हमारी सभ्यता को ही चुनौती है।
अभी पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी को बेचने का प्रकरण सामने आया है। इसी तरह दिल्ली, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव में पानी के निजीकरण के प्रयास हुए, जिन्हें नागरिक विरोध के कारण रोकना पड़ा। दिल्ली में तो पानी के निजीकरण के खतरे फिर से मंडराने लगे हैं। यह संभावना भी उभर रही है कि जल शोधन के सरकारी संयंत्र भी निजी कंपनियों को दे दिए जाएंगे। दिल्ली सरकार ने मई-2011 में जल नियामक आयोग गठित करने के संकेत दिए थे। तब से दिल्ली जलबोर्ड एवं जलापूर्ति के निजीकरण के प्रयास अलग-अलग बहानों से किए जाते रहे हैं। जैसे, ‘जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन मिशन’ के के तहत ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’ के नाम पर निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। पानी के क्षेत्र में एक तरफ बाजार एवं कंपनियां अपने जाल बुन रही हैं, तो दूसरी तरफ पानी राजनीति भी चल रही है। यह राजनीति राज्यों, शहरों, विभिन्न नदी घाटियों और विभिन्न देशों में हो रही है। ऐसे में, जब चीन ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर बांध बनाने की बात करता है तो भारत ‘नदी जोड़ो परियोजना’ की बात करता है।
एक तरफ गंगा घाटी के निचले क्षेत्र के बांग्लादेश जैसे देश यह शिकायत करते हैं कि गंगा के ऊपरी क्षेत्र में भारत का नदी के बहाव में हस्तक्षेप, उनके हितों को नुकसान पहुँचाता है, तो दूसरी तरफ भारत चीन से यह शिकायत करता है कि ब्रह्मपुत्र के निचले क्षेत्र बसने के कारण ब्रह्मपुत्र के ऊपरी क्षेत्र में हस्तक्षेप से उसके हितों को नुकसान पहुँचता है। ऐसे में अदूरदर्शी सियासी दलों को और जल तकनीक तंत्र को दो ही रास्ते दिखते हैं – या तो नदियों के पानी का निजीकरण कर दो या उनका राष्ट्रीयकरण। ये दोनों ही रास्ते न समाज के हित में हैं, न पर्यावरण के हित में हैं, न जीव-जंतुओं और न ही आने वाली पीढ़ियों के हित में हैं।
अक्सर यह देखा जाता है कि जल उपलब्धता की बात करने वाले लोग एवं संस्थान जल की गुणवत्ता के बारे में बात नहीं करते हैं। वास्तव में उपलब्धता और गुणवत्ता के बीच में नाभि-नाल संबंध है, क्योंकि जब नदियों के जल प्रवाह में कमी आती है तो पानी की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है। यह बात भूजल पर भी लागू होती है। नदियों का प्रदूषण अथवा भूजल या भूमि का प्रदूषण कोई बाहरी चीज हो, ऐसा नहीं है, बल्कि उसके उपयोग के तुरंत बाद वह हमारी धमनियों में बहने लगता है। इस प्रकार के प्रदूषण से निपटने का अर्थ अपनी नसों और धमनियों को भी शुद्ध रखने का काम है। यह बात बोतलबंद पानी उद्योग और उनके समर्थक नीति निर्माताओं को समझ में नहीं आ रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
सन्- 2009 में विश्व जल मंच की बैठक में पानी को मौलिक अधिकार बनाने पर जोर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि दुनिया भर में पेयजल की लगातार कमी हो रही है, जबकि दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से विश्व जल मंच और पानी की कंपनियां, पानी को एक उपभोक्ता वस्तु की तरह देख रहे हैं। भारत में अभी 90 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। 3 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल कारखाने कर रहे हैं और 5 प्रतिशत पानी घरों में प्रयोग में लाया जाता है। अभी पिछले दिनों पानी से संबंधित भारत सरकार के दो दस्तावेज सार्वजनिक हुए हैं। एक है, राष्ट्रीय जलनीति- 2012 का मसौदा और दूसरा है, नेशनल वाटर फ्रेम वर्क का मसौदा। पहला दस्तावेज़ जल संसाधन मंत्रालय और दूसरा योजना आयोग की तरफ से आया है। इन दोनों का महत्व पानी के निजीकरण, बाज़ारीकरण, व्यापारीकरण और कंपनीकरण के संदर्भ में है। इनका महत्व इसलिए भी है कि ये मसौदे भारत सरकार के इस संदर्भ में अभी तक के आखिरी बयान हैं। इससे पूर्व दो बार और जल नीति आ चुकी है। इन सबकी जगह पर ही यह 2012 का संस्करण लाया गया है। इस जल नीति में पानी के बाजार का जिक्र किया गया है। जो प्रस्तावित वाटर फ्रेम वर्क एक्ट है, उसमें निजीकरण, बाज़ारीकरण, कंपनीकरण और पानी के बाजार जैसे शब्दों को परिभाषित किया गया है। प्रस्तावित जल नीति और प्रस्तावित कानून दोनों में ही व्यापारीकरण, बाज़ारीकरण, निजीकरण, कंपनीकरण का स्थान नियत है। कुछ समय पहले सरकार की चिंता थी कि साफ पेयजल हर गांव में पहुंचाना है, पर मौजूदा व्यवस्था ऐसी स्थिति का निर्माण कर रही है कि पानी, जो मानव मात्र का मूल अधिकार है, सामान्य रूप से ठीक से मिले न मिले, उसके बजाय बोतलबंद पानी हर कीं ज़रूर मौजूद रहे। आज का हाल यह है कि कंपनियों की दखल के चलते बोतलबंद पानी गांव-गांव तक पहुंच चुका है।
एक अनुमान के मुताबिक रोज़ाना देश में 10 लाख बोतल पानी की बिक्री होती है। एक लीटर बोतल वाले पानी की कीमत 12-14 रुपये हो चुकी है। यह साफ दिखाई दे रहा है कि बढ़ती कीमत के चलते पानी का अर्थशास्त्र आने वाला दिनों में ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों, आम नागरिकों के खिलाफ होने जा रहा है। उम्मीद यही की जा रही थी कि सरकार और सरकारी कंपनियां मिलकर निजी पानी कंपनियों के ऊपर लगाम लगाएंगी, लेकिन इसके उलट अब तो सरकारी क्षेत्र के उद्यम, जैसे कि भारतीय रेल, खुद पानी की बिक्री के धंधे में आ गए हैं। हमारी रेलों में रोज़ाना 50 मिलियन लोग यात्रा करते हैं और उसमें से एक बड़े प्रतिशत को बोतलबंद पानी खरीदने पर मजबूर होना पड़ता है। जाहिर है कि इस स्थिति को नहीं रोका गया तो सार्वजनिक क्षेत्र की अन्य कंपनियां और उद्यम भी बोतलबंद पानी बेचने ही लगेंगे।
जो सबसे नया आंकड़ा पानी को लेकर सामने आया है, उसके मुताबिक प्रतिदिन 740 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की मांग है। लेकिन भविष्य में यह मांग बढ़कर 1500 बिलियन क्यूबिक मीटर होने जा रही है। ऐसे में पेयजल ही क्या हर तरह की जरूरत के पानी की कीमत में इज़ाफा होने लगेगा। उद्योग और कृषि दोनों की ही लागत में भारी बढ़ोत्तरी होगी। अभी कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने पानी पर अपने विचार जाहिर करते हुए कहा कि पानी के अप व्यय का कारण है, उसकी कीमतों का कम होना। प्रधानमंत्री ने कहा कि कीमतें कम हैं, इसलिए कीमत वसूलने के लिए पानी पर सार्वजनिक अधिकार खत्म करके उसे निजी हाथों में देना होगा। प्रधानमंत्री आदतन हर समस्या से निपटने के लिए निजी कंपनियों के हस्तक्षेप पर बल देते रहे हैं।
ऐसा ही उन्होंने ऊर्जा क्षेत्र के लिए किया था। ऊर्जा और पानी क्षेत्र में चोली-दामन का साथ है, क्योंकि ऊर्जा उत्पादन पानी की उपलब्धता पर निर्भर है। चाहे पानी आधारित परियोजना हो, कोयला आधारित परियोजना हो या नाभिकीय परियोजना हो-सबके लिए पानी की उपलब्धता अनिवार्य है। विभिन्न क्षेत्र में पानी के बँटवारे को लेकर प्राथमिकताएं तय की गई हैं। इसमें पेयजल, कृषि, उद्योग आदि को प्राथमिकता देने की बात आती है। सच तो यह है कि पानी के प्रबंधन में अलोकतांत्रिकता गृहयुद्ध को निमंत्रण दे रही है। सरकार के शहर एवं उद्योग केंद्रित जल प्रबंधन को किसानों और खेती की कीमत पर किया जा रहा है। सभ्यता का इतिहास बताता है कि लगभग सभी शहरों की शुरुआत नदियों के किनारे हुई। लेकिन इन शहरों में नदियों और जल स्रोतों का इस प्रकार से दोहन करके उन्हें नष्ट किया गया है कि ये शहर पड़ोसी राज्यों के जल स्रोतों पर निर्भर हो गए हैं और उससे भी उनका काम नहीं चलता है तो दूरदराज के क्षेत्रों से भी नहरों आदि के जरिए अपने लिए पानी की आपूर्ति करते हैं।
सन्- 2009 में विश्व जल मंच की बैठक में पानी को मौलिक अधिकार बनाने पर जोर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने चेतावनी दी थी कि दुनिया भर में पेयजल की लगातार कमी हो रही है, जबकि दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से विश्व जल मंच और पानी की कंपनियां, पानी को एक उपभोक्ता वस्तु की तरह देख रहे हैं। भारत में अभी 90 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। 3 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल कारखाने कर रहे हैं और 5 प्रतिशत पानी घरों में प्रयोग में लाया जाता है। भारत में विश्व की जनसंख्या की 17 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन विश्व के केवल 4 प्रतिशत जल स्रोत ही भारत के पास है। भारत में जल एवं जल आधारित क्षेत्रों द्वारा 987 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी प्रति वर्ष इस्तेमाल होता है। इसका मतलब प्रति व्यक्ति 980 क्यूबिक मीटर पानी प्रतिवर्ष इस्तेमाल होता है। पानी का मामला सिर्फ पानी तक सीमित नहीं है। ऐसे देश में, जहां प्यासे को पानी देना पुण्य का काम समझा जाता रहा है, पानी का बाज़ारीकरण, निजीकरण, कंपनीकरण और स्थानांतरण वास्तव में हमारी सभ्यता को ही चुनौती है।
अभी पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी को बेचने का प्रकरण सामने आया है। इसी तरह दिल्ली, कर्नाटक और महाराष्ट्र में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव में पानी के निजीकरण के प्रयास हुए, जिन्हें नागरिक विरोध के कारण रोकना पड़ा। दिल्ली में तो पानी के निजीकरण के खतरे फिर से मंडराने लगे हैं। यह संभावना भी उभर रही है कि जल शोधन के सरकारी संयंत्र भी निजी कंपनियों को दे दिए जाएंगे। दिल्ली सरकार ने मई-2011 में जल नियामक आयोग गठित करने के संकेत दिए थे। तब से दिल्ली जलबोर्ड एवं जलापूर्ति के निजीकरण के प्रयास अलग-अलग बहानों से किए जाते रहे हैं। जैसे, ‘जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन मिशन’ के के तहत ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’ के नाम पर निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। पानी के क्षेत्र में एक तरफ बाजार एवं कंपनियां अपने जाल बुन रही हैं, तो दूसरी तरफ पानी राजनीति भी चल रही है। यह राजनीति राज्यों, शहरों, विभिन्न नदी घाटियों और विभिन्न देशों में हो रही है। ऐसे में, जब चीन ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर बांध बनाने की बात करता है तो भारत ‘नदी जोड़ो परियोजना’ की बात करता है।
एक तरफ गंगा घाटी के निचले क्षेत्र के बांग्लादेश जैसे देश यह शिकायत करते हैं कि गंगा के ऊपरी क्षेत्र में भारत का नदी के बहाव में हस्तक्षेप, उनके हितों को नुकसान पहुँचाता है, तो दूसरी तरफ भारत चीन से यह शिकायत करता है कि ब्रह्मपुत्र के निचले क्षेत्र बसने के कारण ब्रह्मपुत्र के ऊपरी क्षेत्र में हस्तक्षेप से उसके हितों को नुकसान पहुँचता है। ऐसे में अदूरदर्शी सियासी दलों को और जल तकनीक तंत्र को दो ही रास्ते दिखते हैं – या तो नदियों के पानी का निजीकरण कर दो या उनका राष्ट्रीयकरण। ये दोनों ही रास्ते न समाज के हित में हैं, न पर्यावरण के हित में हैं, न जीव-जंतुओं और न ही आने वाली पीढ़ियों के हित में हैं।
अक्सर यह देखा जाता है कि जल उपलब्धता की बात करने वाले लोग एवं संस्थान जल की गुणवत्ता के बारे में बात नहीं करते हैं। वास्तव में उपलब्धता और गुणवत्ता के बीच में नाभि-नाल संबंध है, क्योंकि जब नदियों के जल प्रवाह में कमी आती है तो पानी की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है। यह बात भूजल पर भी लागू होती है। नदियों का प्रदूषण अथवा भूजल या भूमि का प्रदूषण कोई बाहरी चीज हो, ऐसा नहीं है, बल्कि उसके उपयोग के तुरंत बाद वह हमारी धमनियों में बहने लगता है। इस प्रकार के प्रदूषण से निपटने का अर्थ अपनी नसों और धमनियों को भी शुद्ध रखने का काम है। यह बात बोतलबंद पानी उद्योग और उनके समर्थक नीति निर्माताओं को समझ में नहीं आ रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
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