हमने कभी सिंचाई के नाम पर नदियों को बाँधा और कभी बाढ़ मुक्ति-बिजली उत्पादन के नाम पर। नदी के नफा-नुकसान की समीक्षा किये बगैर यह क्रम आज भी जारी है। एक चित्र में नदियों को जहाँ चाहे तोड़ने-मोड़ने-जोड़ने की तैयारी है, तो दूसरे में भारत की हर प्रमुख नदी के बीच जलपरिवहन और नदी किनारे पर राजमार्ग के सपने को आकार देने की पुरजोर कोशिश आगे बढ़ती दिखाई दे रही है।
नोएडा से गाजीपुर तक गंगा एक्सप्रेस-वे परियोजना को आगे बढ़ाने की मायावती सरकार की पैरोकारी को याद कीजिए। श्री नितिन गडकरी द्वारा परिवहन मंत्री बनते ही गंगा जलमार्ग के नाम पर इलाहाबाद से हल्दिया के बीच हर सौ किलोमीटर पर एक बैराज बनाने की घोषणा को याद कीजिए।
श्री गडकरी ने अब ब्रह्मपुत्र किनारे भी 1600 किलोमीटर लम्बे राजमार्ग की परियोजना को आगे बढ़ा दिया है। तीसरे चित्र में साबरमती रिवर फ्रंट डेवलपमेंट माॅडल से निकला जिन्न, राजधानियों में मौजूद नदी भूमि को अपने को व्यावसायिक कैद में लेने को बेताब दिखाई दे रहा है। चौथे चित्र में नदी पुनर्जीवन के नाम पर पहले नदियों की खुदाई और फिर उनमें पानी रोकने के छोटे बंधे बनाने की गतिविधियाँ दिखाई दे रही हैं। पाँचवें चित्र में बाँध प्रबन्धकों का वह रवैया है, जो अपने लिये तय पर्यावरण संरक्षक नियमों पर ठेंगे पर रखता है। राष्ट्रीय हरित पंचाट द्वारा टिहरी हाइड्रोपावर डेवलपमेंट कारपोरेशन पर ठोका गया 50 लाख का जुर्माना इसी ठेंगे को प्रमाणित करता है।
ठेंगे पर अनुभव की सीख
इन सभी चित्रों में न कमला-कोसी के अनुभव की सीख दिखाई दे रही है और न ही महाराष्ट्र के बाँधों से निकले भ्रष्टाचार और साल-दर-साल विनाशक होता सूखे से उपजी समझ। कोई समझ नहीं बन रही कि राजमार्ग बनाने हैं, तो नदी से दूर जाओ और यदि बाढ़-सुखाड़ का दुष्प्रभाव रोकना है, तो अन्य ज्यादा टिकाऊ, ज्यादा उपयोगी, ज्यादा स्वावलम्बी, ज्यादा सस्ते और कम विनाशक विकल्पों को अपनाओ।
कोसी के अनुभव को सामने रखिए और आकलन कीजिए कि हो सकता है कि सामरिक दृष्टि से ब्रह्मपुत्र राजमार्ग परियोजना महत्त्वपूर्ण हो, लेकिन क्या इससे ब्रह्मपुत्र का भी कुछ भला होगा? क्या इससे ब्रह्मपुत्र किनारे के 1600 किलोमीटर लम्बे भूभाग के उपजाऊ क्षमता, जैवविविधता, बसावट, पानी की उपलब्धता और बाढ़ की अवधि आदि पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा?
विरोधाभासी राजनीति
राजनीतिक चित्र देखिए। महाराष्ट्र सरकार ने एक लातूर से सीखकर जल साक्षरता और जल संचयन के छोटे ढाँचों की तरफ कदम बढ़ा दिया है। आमिर खान और नाना पाटेकर जैसे अभिनेता पानी संजोने के काम को अपना दायित्व मानकर जमीन पर उतारने में लग गए हैं। लेकिन सुश्री उमाजी अभी भी केन-बेतवा पर अटकी पड़ी हैं।
वित्त वर्ष 2016-17 में 10 लाख तालाबों के निर्माण के उनके दावे पर अभी भी सन्देह व्यक्त किया जा रहा है। सुश्री उमाजी अभी भी अविरलता सुनिश्चित किये बगैर नदियों की निर्मलता का दिवास्वप्न देख रही हैं। विशेषज्ञों की विपरीत राय के बावजूद दिल्ली के जलमंत्री श्री कपिल मिश्रा श्री श्री रविशंकर के कार्यक्रम को बार-बार यमुना तट पर किये जाने का सुझाव सुझा रहे हैं। यह रवैया बावजूद इसके है कि गंगा-यमुना की अदालती पहचान भी अब एक इंसान के रूप में है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे नीति नियन्ता याद ही नहीं करना चाहते कि कभी ऐसा ही कथन कोसी तटबन्ध और फरक्का बैराज के पक्ष में भी देखा गया था। वे समझना ही नहीं चाह रहे कि हिमालय से निकली गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि धाराएँ महाराष्ट्र की नदियों जैसी नहीं है। दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। जीवनदायिनी कोसी को हमने हर मानसून में राह भटक जाने वाले विनाशक प्रवाह के रूप में तब्दील कर दिया है। आज कोसी सर्वाधिक तबाही लाने वाली भारतीय नदी है।
दामोदर नदी पर बने तटबन्ध ने प. बंगाल के जिला बर्दवान के तालाबों व समृद्धि का नाश किया है। कभी ब्रह्मपुत्र ही कटान और नदीद्वीप निर्माण के लिये जाना जाता था, फरक्का बैराज बनाकर अब हमने माँ गंगा को भी द्वीप निर्माण और कटान के लिये विवश कर दिया है। दुष्परिणाम मालदा, मुर्शिदाबाद से लेकर पटना, इलाहाबाद तक ने भुगतना शुरू कर दिया है।
सुखद है तो सिर्फ यह कि गंगा जलमार्ग परियोजना को लेकर बढ़ी बेचैनी फिलहाल भले ही थम गई हो, लेकिन फरक्का बैराज को लेकर समाज और राज दोनों ही आज बेचैन नजर आ रहे हैं। ऐसे सन्देश हैं कि लम्बे अरसे से फरक्का बैराज के दुष्परिणाम झेल रही जनता अब फरक्का बैराज से तकनीकी तौर पर निजात चाहती है; ताकि भारत-बांग्लादेश जलसंधि भी सुरक्षित रहे और बैराज से पलटकर जाने वाले पानी से तबाही से भी लोग बच जाएँ। वे फरक्का बैराज की समीक्षा की माँग कर रहे हैं।
फरक्का बैराज समीक्षा की माँग
खबर है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं इस बेचैनी की अगुवाई कर रहे हैं। यह अच्छा लक्षण है; किन्तु यदि कटान रोकने के नाम पर मालदा, मुर्शिदाबाद जैसे जिलों में तटबन्ध/राजमार्ग निर्माण की परियोजना लाई गई अथवा गंगा में सिल्ट कम करने के नाम पर गंगा की खुदाई की परियोजना अपनाई गई, तो यह एक अच्छी बेचैनी का बेहद बुरा परिणाम होगा।
अतः इतनी याददाश्त हमेशा जरूरी है कि समस्या के कारण का निवारण ही उसका सर्वश्रेष्ठ समाधान होता है। तटबन्ध और खुदाई सिर्फ लक्षणों का तात्कालिक उपचार जैसे काम हैं; जो कि बीमारी को निपटाते नहीं, बल्कि आगे चलकर और बढ़ाते ही हैं। इस बात को बिहार के लोगों से अच्छा शायद ही कोई और समझ पाया हो। नीतीश कुमार जी अभी से समझ लें, तो ज्यादा अच्छा होगा।
बिहार जल-प्रबन्धन की भी करें समीक्षा
जरूरी है कि फरक्का बैराज की समीक्षा के साथ-साथ बिहार बंगाल की नदियों के किनारे बने तटबन्धों और नूतन सिंचाई प्रणालियों की भी समीक्षा हो। साथ-ही-साथ आप्लावन नहरों तथा वर्षाजल संजोने वाली आहर-पाइन जैसी प्रणालियों को पुनर्जीवित करने की जरूरत और सम्भावनाओं का भी आकलन हो।
आकलन व समीक्षा करते वक्त बिहार सरकार यह कभी न भूले कि बिहार में वार्षिक वर्षा का औसत पटना में 1000 मिमी से लेकर पूर्वी हिस्सों में 1600 मिमी तक है। दक्षिण के मैदानी इलाके यानी पुराने पटना, गया, शाहाबाद, दक्षिण मुंगेर और दक्षिण भागलपुर में जमीन में आर्द्रता सम्भालकर रखने की क्षमता कम है। गंगा किनारे के इलाके छोड़ दें तो इतर इलाकों का भूजल स्तर इतना नीचा है कि कुआँ खोद पाना मुश्किल है।
इस बात को यहाँ कहना इसलिये भी ज्यादा जरूरी है चूँकि पानी को लेकर बिहार सरकार का रवैया भी कम विरोधाभासी नहीं है। नीतीश जी एक ओर फरक्का बैराज की समीक्षा की माँग को समर्थन दे रहे हैं; आहर-पाईन की परम्परागत सिंचाई प्रणाली के पुनरुद्धार को बढ़ावा देने की अच्छी बात कहते रहे हैं; तो दूसरी ओर उनकी गाड़ी नदी जोड़ परियोजनाओं के राजमार्ग पर दौड़ती दिखाई दे रही है; जबकि वे जानते हैं कि एक समय में जिस तरह नहरों, तटबन्धों ने जिस तरह आहार-पाईन आधार बिहार की शानदार सिंचाई शानदार प्रणाली के व्यापक तंत्र को ध्वस्त किया था; नदी जोड़ भी वही करेगा।
अतिरिक्त पानी को लेकर समझने की बात यह है कि उत्तर बिहार से होकर जितना पानी गुजरता है, उसमें मात्र 19 प्रतिशत ही स्थानीय बारिश का परिणाम होता है; शेष 81 प्रतिशत भारत के दूसरे राज्यों तथा नेपाल से आता है। गंगा में बहने वाले कुल पानी का मात्र तीन प्रतिशत ही बिहार में बरसी बारिश का होता है। इसका मतलब है कि बिहार की बाढ़ को नियंत्रित करने का रास्ता या तो नेपाल को तबाह करके निकलेगा या फिर नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में जलसंचयन ढाँचों के निर्माण, सघन वनों की समृद्धि और जलप्रवाह मार्ग को बाधामुक्ति से।
ऐसे उपायों को प्राथमिकता पर न रखने का नतीजा है कि बिहार में नहरों और तटबन्धों के टूटने की घटनाएँ आम हैं। तिरहुत, सारण, सोन, पूर्वी कोसी...। बरसात में बाढ़ आएगी ही और हर साल नहरें टूटेंगी ही। नहरों का जितना जाल फैलेगा, समस्या उतनी विकराल होगी; सेम अर्थात जलजमाव उतना अधिक बढ़ेगा। सेम से जमीनें बंजर होंगी और उत्पादकता घटेगी। इसके अलावा नहरों में स्रोत से खेत तक पहुँचने में 50 से 70 फीसदी तक होने वाले रिसाव के आँकड़े पानी की बर्बादी बढ़ाएँगे। समस्या को बद-से-बदतर बनाएँगे। गंगा घाटी की बलुआही मिट्टी इस काम को और आसान बनाएगी।
नदी जोड़ परियोजना के कारण सिंचाई महंगी होगी, सोे अलग। क्या फरक्का बैराज की समीक्षा माँग बढ़ाने से आगे बढ़ाने से पहले बिहार सरकार अपने जल-प्रबन्धन तंत्र और योजनाओं की समीक्षा करेगी? क्या वह बताएगी कि कोसी-कमला से हो रहे विनाश को लेकर उनकी राय क्या है? परम्परागत और स्वावलम्बी जल प्रणालियोें का जन आधारित विकेन्द्रित व्यापक संजाल पुनः कायम करने में बिहार राज्य को अभी कितना वक्त लगेगा? बिहार की नदियों में गाद जमाव तथा कटान के अन्य कारणों को दूर करने के बारे में उनका क्या ख्याल है?
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