भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहाँ की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। हरित क्रांति के पहले यहाँ पर खाद्य पदार्थों का उत्पादन बहुत ही निम्न स्तर पर था। देश के वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से हरित क्रांति द्वारा पिछले 30 वर्षों में खाद्य पदार्थों के उत्पादन का स्तर लगभग 75 प्रतिशत बढ़ा है। इसके कारण कृषि क्षेत्र न केवल जीविकोपार्जन का बल्कि व्यवसाय का भी एक प्रमुख साधन बन गया है। अत: फसलों के उत्पादन व उत्पादकता को बढ़ाने में कृषि वैज्ञानिकों व किसानों की मुख्य भूमिका है। परंतु, विगत कुछ वर्षों में भूमण्डलीय परिवर्तन के कारण फसलों में अनेक रोगों का प्रकोप तेजी से बढ़ा है, जिससे उत्पादन प्रभावित हुआ है। कवक फसलों के उत्पादन को लगभग 30 प्रतिशत तक प्रभावित करते हैं। एस्कोमाइसिटीज समूह का बाईपोलेरिस सोरोकिनिएना एक प्रमुख कवक है, जो मुख्यत: गेहूँ, जौ व मक्का में पर्ण-अंगमारी नामक रोग पैदा करता है। यह न केवल विश्वस्तरीय संकट को बढ़ावा दे रहा है बल्कि उत्पादों के आयात-निर्यात में बाधा उत्पन्न कर आर्थिक रूप से नुकसान पहुँचा रहा है।
पूरे विश्व में गेहूँ की खेती एक प्रमुख फसल के रूप में की जाती है और फसलों के उत्पादन में गेहूँ दूसरे स्थान पर है जबकि जौ चौथे स्थान पर है। भारत में गेहूँ की उत्पादकता 31.5 प्रतिशत है तथा जौ की 0.76 प्रतिशत। बाईपोलेरिस सोरोकिनिएना गेहूँ में पर्णअंगमारी रोग पैदा कर 15-20 प्रतिशत तथा जौ में 16-33 प्रतिशत की हानि पहुँचता है।
बाईपोलेरिस सोरोकिनिएना गहरे व हल्के भूरे रंग का 38.6-65.8 μM × 12.3-25 μM होंठ के आकार का कर्णा (Conidia) बनाता है जोकि 4-13 पट्ट में विभाजित होता है और यह कवक सूत्र (Hyphae) के अग्रभाग यानी कर्णाधार (Conidiophore) पर लगा होता है।
अनुकूल तापमान (25-300 से.) और वातावरण में अधिक सांद्रता की उपस्थिति में कर्णा 2-4 घण्टे में अंकुरित हो जाता है और बढ़कर अत्यंत महीन धागे जैसी संरचना ‘कवक सूत्र’ बनाता है, जोकि बाद में कवक जाल (Mycelium) बना लेता है। कर्णा व कवक सूत्रों की कोशाभित्ति मुख्यत: कवक सेन्युलोज, काइटिन और कैलोस (Callose) की बनी होती है। कोशाभित्ति का रंग एक विशेष प्रकार के पदार्थ यानी मिलैनिन के कारण हल्के या गहरे भूरे रंग का होता है।
मिलैनिनयुक्त उत्तकों में विद्युतीय संकेत होता है, जो कवक को बचाने व रोग प्रबलता को बढ़ाने के लिये सहायक होता है। मिलैनिन का एंटीऑक्सीडेटिव एंजाइम, जैसे कि सुपर ऑक्साइड डिसम्यूटेज (एसओडी), कैटालेज एवं पराक्सीडेज, से बहुत ही सीधा संबंध होता है, जो कवक को वातावरण की विपरीत परिस्थितियों जैसे अधिक तापमान, UV, प्रकाश व अन्य प्रकार की बाह्य हानियों से बचाता है। वातावरण में रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पीसिज (ROS) जैसे कि हाइड्रॉक्सी रेडिकल (-OH), हाइड्रोजन परॉक्साइड (H2O2), सुपरऑक्साइड रेडिकल (0O2) इत्यादि की अधिकता होने पर कर्णा व कवक सूत्र के आकार छोटे हो जाते हैं।
इनमें (कवक) संग्रहीत मुख्य भोजन ग्लाइकोजन (Glycogen) तथा तेल (Oil) की बूँदे होती हैं, जो मिलैनिनयुक्त कोशाभित्ति के अंदर बंद होने के कारण कवक को भोजन प्रदान कर लंबे समय तक जीवित रखने के लिये उत्तरदायी होती हैं। अनुकूल परिस्थिति आने पर कर्णा अंकुरित होकर अपनी विशेष शाखा यानी चूसकांगों (Haustorium) द्वारा वाहक (Host) से भोजन ग्रहण करता है और वाहक पर फैलकर पर्ण अंगमारी रोग पैदा करता है। वाहक पर बनने वाले नये-नये कर्णा बहुत ही हल्के भूरे रंग व होंठ के आकार जैसे लंबे होते हैं तथा अंकुरण के लिये ये कर्णा बहुत ही आक्रामक होते हैं।
गेहूँ व जो (वाहक) के पौधों को मरने के बाद कवक सूत्र व कर्णा सुसुप्तावस्था में गेहूँ व जौ के बीजों और अवशेषों पर लगे रहते हैं तथा इनका रंग गहरा भूरा व आकार छोटा हो जाता है।
प्रयोगशाला में इन्हें एक-एक महीने के अंतर पर कृत्रिम माध्यम (जैसे कि PDA व MM Media) पर उगाने से यह 50-70 प्रतिशत व गहरे भूरे रंग के मिलते हैं तथा कर्णा 4-7 पट में ही विभाजित होता है, इस प्रकार इनके कवक सूत्र व कर्णा का रंग, आकार व पट विभाजन हमेशा परिवर्तित होता रहता है।
कवक सूत्र व कर्णा की कोशाभित्ति में मिलैनिन का बनना, जमा होना तथा रोग जनन में भूमिका एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। पौधों तथा स्तनधारियों में मुख्यत: दो प्रकार के मिलैनिन बनते हैं- ड्राइहाइड्रॉक्सी नेप्थेलिन (1, 8 - DHN) और ड्राईहाइड्रॉक्सी फिनाइल-एलैनिन (3, 4 - DOPA)। सामान्यत: पौधों में रोग पैदा करने वाले कवक जैसे कि टोरूला कोरालाइन, एस्परजिलस फ्यूमिगेट्स, एस्परजिलस निडूलेंस,कोलैटोट्राइकम लैजीनेरियम, मैग्नापोर्थी ग्रीसिया, अल्टरनेरिया अल्टरनाटा, कोक्लियोवोलस ओराइजी, वर्टीसीलियम लैकेनाई और एक्जोफिएला डर्माटाइटिडिस इत्यादि में मुख्यत: DHN मिलैनिन पाया जाता है।
मिलैनिन का उत्पादन कई चरणों में होता है और इन पर बहुत सारे जीन व एंजाइम कार्य करते हैं जिनमें रिडक्टेज, डिहाइड्रेटेज व लैकेज मुख्य होते हैं। कोशा के अंदर कोशाद्रव्य में ग्लाइकोलिसिस का उत्पाद यानी पाइरूवक अम्ल बनता है जो माइटोकाण्ड्रिया में प्रवेश करने से पहले ऐसीटिल-कोएन्जाइम-A या मैलेनोइल-कोएन्जाइम-A बनाता है, जो मिलैनिन बनाने के लिये प्रमुख अग्रदूत होता है।
Acetyl CoA, पेंटाकिटाइड सिन्थेस एंजाइमद्वारा 1, 3, 6, 8 टेट्राहाइड्रक्सिनैप्थेलीन (T4HN) में परिवर्तित होता है जिसके लिये PKSP (ALB-1) जीन उत्तरदायी होता है। क्रमबद्ध चरण में T4HN का अनॉक्सीकरण (Reduction) T4- हाइड्रॉक्सीनैप्थेलीन सिंथेज एंजाइम द्वारा साइटोलोन में होता है। तत्पश्चात साइटोलोन का डिहाइड्रेसन साइटोलोन डीहाइड्रीटेज एंजाइम द्वारा 1, 3, 8 ट्राइहाइड्राक्सीनेप्थेलीन (T3HN) में होता है। जोकि बाद में T3HN रिडक्टेज एंजाइम द्वारा वर्मीलोन में परिवर्तित हो जाता है और अंत में यह डिहाइड्रेटेड होकर 1, 8 DHN बनाता है। p-diphenol-oxidase (Laccase) एंजाइम 1, 8 DHN की कई सारी कड़ियां जुड़कर DHN मिलैनिन बनाती हैं।
DHN मिलैनिन जो एक चयापचयी उत्पाद है, कवक के कोशाभित्ति में जमा होकर कवक के जीवनकाल और आबादी में विभिन्नता को निर्धारित करते हैं। कवक की कोशाभित्ति में मिलैनिन की उपस्थिति के कारण पौधों पर रोगजनन क्षमता व आक्रामकता निर्धारित होती है। कवक के इस रोगजनित क्षमता को समाप्त करने के लिये बाजार में बहुत सारी कवकरोधी दवायें उपलब्ध हैं। जिनमें कि मुख्य रूप से ट्राईसाक्लाजोल, कार्प्रोपामाइड, पाइरोक्वीलोन, प्रोबेनाजोल (ओराइजीमेट), PCBA (ब्लास्टिन), 4, 5, 6, 7 - ट्राइक्लोरोफ्थैलाइट (फ्थलाइड, रैबिराइड) इत्यादि।
परंतु ये दवायें कवक को पूरी तरह से नष्ट करने में कारगर नहीं है, लेकिन माना जाता है कि ये दवायें जब भी पौधों पर छिड़की जाती हैं तो ये पौधों के कोशाभित्ति में जमा होकर कवक की रोगजनन क्षमता को कम कर देती हैं और इस प्रकार से पर्ण अंगमारी रोग की रोकथाम करती है।
विभिन्न प्रकार के कवकरोधी दवाओं की रासायनिक संरचना
ये दवायें कवक के मिलैनिन पाथवे के किसी एक चरण पर कार्य कर पाथवे में बनने वाले नये उत्पाद को रोक देती हैं, जिससे मिलैनिन निर्माण रुक जाता है। परंतु कवक खुद को बचाने के लिये तथा रोगजनन के लिये कोई दूसरा रास्ता ढूंढ लेता है। कवक मिलैनिन पाथवे में दवाओं के कार्य करने के पूर्व चरण से ही कुछ नया उत्पाद बना लेता है, जो कवक के जीवित रखने व रोगजनन कार्यान्वयन में सहायक होता है। कवक में इस प्रक्रिया के चलते वैज्ञानिकों तथा किसानों के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं। दुनियाभर में आज बहुत सारे शोध संस्थान इस दिशा में कार्य कर रहे हैं।
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